Tuesday, October 29, 2013

और हिंदी दिवस गुज़र गया

और हिंदी दिवस गुज़र गया 
गुज़र गया एक बोझ जैसे 
गुजर गयी दकियानूसी खयालो की रश्म अदायगी 
कल से फिर वही फैशन परस्ती में किलबिलाते से अधखिले लफ्ज़ 
और अगले साल तक के लिए

Wednesday, April 3, 2013

रग रग में बसी मेरी रांची- An anthem for ranchi


रग रग में बसी मेरी रांची- An anthem for ranchi

(रांची मेरे सपनो का शहर है, मेरा अपना शहर है। ये गीत मैंने अपने शहर के हर एक जुडाव के  लिए लिखा है।एक गीत जो इस शहर के हरेक पहलु को समाहित करता है। अपने  भावनात्मक जुडाव को अतिशयोक्ति से बचाते हुए मगर मेरे दिल के करीब रखते हुए काफी मेहनत  से ये गीत बन पड़ा। मैं चाहता हूँ की हर एक रांची वासी तक ये गीत पहुंचे। अगर कोई इसे धुन पे पिरोना चाहे, आवाज़ के साथ साज-ले-ताल देना चाहे तो हमेशा खुला आमंत्रण है। कुछ शब्द जो परिभाषा की अपेक्षा रखते है अंत में लिख दिए गए हैं। एक कवी की दृष्टि से मेरी अपेक्षा आप सब से क्या होगी ये आप गीत पढ़ कर और गुनगुनाकर मुझे सूचित करें।----डॉ गोविन्द माधव )



फिरता हूँ सपने तलाशते 
घाघ-बाग़ महुआ पलाश के। 
हर मोड़ मुझे बाँहों में भर ले 
कैद करे यादों के पाश से।।

मैं अपने शहर से कह दूँ 

कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।। 

खुले आसमान में सबसे कहूँ

ये मुझ में बहे, मैं इसमें रहूँ 
रग रग में बसी मेरी रांची। 
सांसो से सगी मेरी रांची।। ......

इन गलियों में गुजरा बचपन 

गूंजी किलकारी मांदर संग 
कोहबर में लिपटी दीवारें 
डोमकच , छऊ  करता हर आँगन।

सरहुल,करमा या बजरंगी 

कांके-हटिया सब एकरंगी 
बिरसा-टाना के प्राण यहाँ 
जिसे देख कम्पते थे फिरंगी।

कुडुख, सादरी, हो, कुरमाली 

खड़िया, मुंडा या संथाली 
धोनी और जयपाल के किस्से 
सुगना गाती है हर डाली।

लोहा-चांदी -सोना- हीरा

माटी से दिन-रात पनपता 
प्यार-मोहब्बत चैन-अमन 
आसमान से रोज़ बरसता।

झरनों के इस शहर को देखा 

सिंग-बोंगा के असर को देखा 
माथे पर शिव मंदिर ऊँचा 
है हाथों में सोने की रेखा

माँ  की गोद यहाँ की मिटटी 

और आसमान   है माँ  का आँचल
बूंद-धुल में लहू मिलाकर 
बरसा दूँ खुशियों के बादल। 


मैं अपने शहर से कह दूँ 
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।


शब्द परिभाषा
घाघ= झरने
मांदर = झारखण्ड का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र 
कोहबर = लोक चित्रकारी की एक शैली 
डोम कच / छऊ = लोक नृत्य की शैली 
सरहुल / करमा  = आदिवासी पर्व 
बजरंगी = रामनवमी का प्रतिक शब्द 
कांके/हटिया = स्थान 
बिरसा/टाना = स्वतंत्रता सेनानी 
कुडुख/ सादरी .......= आदिवासी जनजातीय भाषा 
धोनी/जयपाल = रांची के खेल हस्ती 
झरनों का शहर = city of waterfall, Wikipedia
सिंग-बोंगा = आदिवासी देवता 
शिव मंदिर= पहाड़ी मंदिर 
सोने की रेखा = स्वर्णरेखा नदी  
  

Friday, March 8, 2013

पुरुष ट्रेक्टर तो महिला कंप्यूटर

पुरुष ट्रेक्टर तो महिला कंप्यूटर-महिला दिवस पर 




सुनने में थोडा अजीब भले लगे, मगर सोचिये जरा सा तो इस बात की असली गहराई समझ में आयेगी।
आज समाज में नारी उत्थान, महिला ससक्तिकरण,स्त्री विमर्श इत्यादि नारों के साथ न जाने क्या क्या लिखा जा रहा है। आन्दोलन, कानून, विधेयक,नैतिकता और न जाने क्या क्या। मगर मैंने जब एक साधारण बूढ़े से दुकानदार की ये बात सुनी तो मुझे अजीब सी ख़ुशी मिली। लगा जैसे मेरे कई सवालों के जवाब मिल गए हो।

समाज में फैली लिंग विषमता और नारी उत्पीडन के बारे में बचपन से ही पढता,सुनता, देखता और महसूस करता आ रहा हूँ। कई तरह के सवाल मन में रोज़ पनपते थे। पहला सवाल  तो ये कि क्या सच में नारी के साथ अत्याचार होता है? क्यों कि अपने घर में मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। माँ को घर की गृहस्थी पे पूरा अधिकार प्राप्त था।बुआ दीदी सब को बराबर की स्कूली  शिक्षा मिली थी।हाँ उन्हें ऑफिस में नौकरी के लिए भले नहीं भेजा गया था।क्यों कि उन्हें पैसे कमाने से भी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी दी गयी थी -हम बच्चो को पढ़ाने की।परिवार सम्हालने की। अब ये काम या फिर जिम्मेदारी किस तरह उनके आजादी में बाधक थी, या फिर किस तरह उनके अरमानो का गला घोंटा गया था ...ऐसी कोई बात मुझे अपने बचपन में नहीं समझ आ रही थी।
ज़माना बदला। घर छोड़कर बाहर निकला तो कुछ अहसास हुआ। मेरे घर में भले नहीं मगर कई जगहों पे विषमता है।मुझे समझ में आ गया कि - कई घर ऐसे हैं जो भले पढ़े लिखे हों मगर वास्तविक शिक्षा से कोसो दूर की मानसिकता लिए बैठे थे। दहेज़, स्त्री भ्रूण हत्या,समाज में गिरता स्त्री-पुरुष अनुपात,बलात्कार,शिक्षा से वंचित आधी आबादी, कुपोषण से ग्रसित ग्रिह्शोभाएं,चिकत्सा रोग बिमारी में भी दोहरा मानदंड,नशबंदी में भी महिला को दी जाने वाली जबरन जिम्मेदारी,कम उम्र में शादी, घर से बाहर निकलने में पाबंदी,मन के मुताबिक़ जीवन साथी या पेशा  न चुन पाने का दर्द…. मन सच में डर गया। आखिर इंसान इंसान में ये भेद भाव क्यों? आखिर किसने दे दी है पुरुषों को शासन करने की इज़ाज़त? किसने ये हक दे दिया कि पुरुष ही भाग्य विधाता बन जाए आधी आबादी की? आखिर इसका उपाय क्या है? तो क्या मानवता के नाते अब नारी को शासन की बागडोर सौंप दिया जाना चाहिए ? तो क्या कानून बना कर नारी को पुरुष से श्रेष्ठ घोषित कर दिया जाना चाहिए?

मन फिर से उद्विग्न हो रहा था। मैं एक शाम शहर की लाइब्रेरी के पास वाली चाय दूकान में बैठा बसंत ऋतू की वास्तविक सुन्दरता को भीड़ से भरे इस शहर की रफ़्तार में महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि सामने से एक रैली गुजरी। कई सारे स्कूलों की लड़कियां, फिर महिला क्लब के मेंबर्स, और सुरक्षा के लिए महिला पुलिस .....नारे लग रहे थे। महिला ससक्तिकरण का जूनून दिख रहा था। कुछ मौकापरस्त अधेड़ पुरुष भी अपनी आँख सेंकने के लिए ही सही इस आन्दोलन में बैनर थामे साथ हो लिए थे।कुछ लड़कियों के आशिक भी अपने दोस्त को साथ लिए मोटरसाइकिल में भीड़ के पीछे पीछे चल रहे थे। बीच बीच में चिल्ला भी रहे थे और अपनी मोबाइल से अपने निशाने पे फ़्लैश भी चमका रहे थे। कुछ पत्रकार भी "मिशन ब्यूटी हंट" की तरह खुबसूरत चेहरों को खोज कर कैमरे में कैद करने की लगातार कोशिश कर रहे थे। उन्हें  मालूम था की इन चेहरों को वो पुरे साल तक "फाइल चित्र" बनाकर नारी ससक्तिकरण  के नाम पर अपनी बिक्री बढाने के प्रयोग में लाते रहेंगे।शाम ढलने लगी थी तो कुछ लड़कियों के घरवाले भी पहुंचे हुए थे सुरक्षा की चिन्ता से। कुछ अतिउत्साही महिलाएं पुरुष विहीन समाज की कल्पना को जोर दे रही थी। एक महिला ने तो अपने पति को तलाक की धमकी दे डाली थी - ऐसा उसने आगे मैदान में होने वाले नारी संग्राम सभा में भाषण में कहा। संग्राम, लड़ाई, आन्दोलन, उर्जा युक्त नारे और ढेर सारी कहानियाँ। एक महिला ने कहा- "मैं क्यों खाना बनाऊं? किसने कहा की बच्चो के देखभाल की जिम्मेवारी पुरुष की नहीं है? मैं भी अपने पैर पे खड़े होना चाहती हूँ, नौकरी करना चाहती हूँ, मेरे पति को मजबूरन नौकरी छोड़कर घर में बैठना पड़ा और घर का काम अब वो ही करता है". सम्मलेन में तालियों की गूंज हुई। करतल ध्वनि के साथ उत्साह का महासागर उमड़ उठा। एक महिला ने जो पुरुस्हीं की तरह के परिधान में यानी कोट -पैंट -टाई में थी उसने कई सारे उदाहरण गिना दिए, व्यवसाय में महिलाओं द्वारा जड़े  गए कीर्तिमान,खेल कूद में जीते गए पदक, विज्ञान और शोध में नए आयाम,सेना,फैशन,क्रिकेट, wwf fighting तक में महिलाओं की भागीदारी और प्रशाशन में भी उनका योगदान या भागीदारी। सच में प्रेरणा दायक। फिर से जोश।मन को सुकून का अहसास तो हुआ। मगर फिर से सवालों के खेप के खेप उतरने लगे मन के आंगन में।

आखिर ये लड़ाई क्यों? बेहतर कौन? क्या सच में दोनों एक सामान हैं? ये संग्राम कहीं  अलगाववाद तो नहीं?कम्पटीसन की तैयारी कर रहे एक बेरोजगार ग्रेजुएट ने दुःख भरे व्यंग के साथ कहा-"सोचिये न एक तरफ तो ये सब समानता की बात करती हैं, और दूसरी तरफ आरक्षण भी मांगती है? अगर बराबर ही है तो फिर आरक्षण कैसा??"मैं इसका जवाब सोच ही रहा था कि तभी उस बूढ़े चाय वाले ने कहा-" क्या बाबू?आप लोग तो मेडिकल के विद्यार्थी हैं?आप ही बताइये कि क्या सच में भगवान् ने उन्हें इस तरह संग्राम करने के लिए बनाया है? आखिर इनमे से बेहतर कौन है? क्या शारीरिक ताकत ज्यादा होने से ही पुरुष शासन का अधिकारी हो जाता है? अगर सिर्फ महिलाओं को सारे अधिकार दे दिए जाएँ तो ये पुरुषों का क्या करेगी? क्या अपना अलग थलग समाज या दुनिया बसाएगी या फिर पुरुषों को गुलाम बना लेगी? तो फिर क्या पुरुष ही बच्चे पैदा करेंगे? "
मैं अपना पक्ष निर्धारित नहीं कर पा रहा था। आखिर सच क्या है? आखिर सही कौन है? आखिर आदर्श समाधान क्या है? मैंने अपने असमंजस के भाव को अपने चेहरे से ही स्पष्ट हो जाने दिया।तब उस बूढ़े आदमी ने कहा-" मुझे तो बस इतना पता है कि पुरुष अगर ट्रेक्टर है तो स्त्री कंप्यूटर है। शारीरिक ताकत ज्यादा होने पर ट्रेक्टर खेत तो जोत सकता है, भारी भरकम काम कर सकता है, अपनी विशालता का प्रदर्शन कर सकते  है,मगर कंप्यूटर की तरह जटिल काम नहीं कर सकता। मस्तिष्क ज्यादा विकसित है कंप्यूटर का। कंप्यूटर भी चाहे तो अपनी क्षमता पर इठलाये, घमंड करे, मगर वो भी ट्रेक्टर वाले काम नहीं कर सकता ना। अब कंप्यूटर बनाने के लिए भी ट्रेक्टर से कल पुर्जे आते हैं, और ट्रेक्टर बनाने के लिए कंप्यूटर की जरुरत पड़ती है। तो एक दूजे के बिना तो दोनों का अस्तित्व खतरे में है। अब फैसला इन्हें करना है कि ये इस तरह संग्राम कर के अलग अलग रहना और ख़त्म हो जाना पसंद करेंगे, या फिर एक दुसरे के महत्व को स्वीकारते हुए बिना किसी रेस लगाए सहस्तित्व को अपनाते हुए दुनिया को आगे बढाते हैं।"

मैंने भी अपने बायोलॉजी के ज्ञान को  खंगालना शुरू किया तो उस बूढ़े आदमी का उदाहरण एकदम सटीक बैठ गया।  Biologically ये एकदम परफेक्ट उदहारण है. अगर मुझसे कोई पूछ दे कि लीवर और किडनी में कौन बड़ा है तो मैं क्या जवाब दूंगा? और अगर कोई मुझसे पूछे की दोनों बराबर हैं क्या? तो भी मैं निरुत्तर ही रहूँगा।दरअसल भगवान् ने नारी और पुरुष दोनों को अलग अलग ही बनाया  है। और  इसके पीछे भी कई प्रयोजन हैं। स्त्री शारीरिक रूप से कोमल है, कमजोर कहना सही नहीं है, मगर जटिल भी है। भावनात्मक रूप से ज्यादा उन्नत है,किसी भी भाव के अभिव्यक्ति कर सकने में ज्यादा सक्षम है। और इसलिए उसे रचनात्मकता में सर्वोतम यानि जीवन की रचना करने की क्षमता और जिम्मेदारी है। पुरुष मांशपेशियों की ताकत से युक्त है,मगर ह्रदय से कठोर।इसलिए रक्षा,शारीरिक परिश्रम या पसीने बहाने वाले कार्य इसके अनुरूप हैं।

और इन दोनों प्राणियों के बीच संतुलन ही मानवता की पहचान रही है। अगर राजनीति,मौकापरस्ती,शक्तियों का दुरूपयोग,स्वार्थ और अंधी दुस्पराम्पराओं को मिटा दें तो फिर शायद महिला दिवस की आवश्यकता न रहे। फिर कोई कुटिल चाल नहीं चली जायेगी। फिर कोई आजादी के नाम पर अलगाववाद की आग नहीं फैलाएगा। फिर कोई बड़ा और बेहतर कौन या समानता जैसे काल्पनिक मुद्दों पे बांटकर संग्राम नहीं करवा पायेगा।

Monday, February 25, 2013

BEING AN ATTENDENT

BEING AN ATTENDENT----A REAL STORY
Place - RIMS, ranchi
By- dr सत्यम सिन्हा
कृपया खराब अंग्रेज़ी के लिए क्षमा करेंगे.)
An unknown number flashing on my mobile screen! May be any girl; any wrong number girl; any old link or any returning sentiments!.... “Hello!”.... Shit. It is called KLPD. Its not sounding like a female voice.. may be due to network problem, I consoled myself. But really it was a male voice. And the tragedy train just begun to rush into my life from this instant.

Emergency landing by an Auto, time 1:30 PM, Friday. A lady (30 yrs) was injured in road accident and she was brought here. Her husband was known to my father and so he rang me for help. It was a head injury. After primary treatment in emergency ICU, the case was referred to the Neuro indoor. This case was registered with PIR No. as a Police case, although it was not (what a facility!) but who will not wish to save money!

They were well dressed like belonging from an average middle class family. This helpedme because I introduced them to doctors and seniors as my own relatives (Bhabhi?).Bhabhi is appropriate word for her because if a girl comes to visit her, she will be most probably a Sali...and then I can have a chance to score!! Really, sometimes I am a genius!!
A politician type man (new undertraining roadside leader) was accompanying them. He was never in favour of RIMS. Continuously nodding against RIMS, he was forcing to opt for Raj Hospital. But the attendant (husband) was getting a point to suspect him. He may be having some comission for every patient, because in an earlier incidence also he had suggested for Raj hospital. But am I that big a fool? Who says RIMS is full of negligence? And after all, HAMARE MADHUKAR JI TO YAHIN HAIN NA!” He did not even remember my name (Madhaw). I too was interested in attending the patient because of the dream of visiting girls, although only one came and that too she was not beautiful, but however I added her in my list, expecting for some of her friends.

Before the patient was placed in the neuro ward, I went there, got the investigation slipfor CT-Scan from a PG Boss (Because I am a medico, so I can violate rules) and took the patient directly to CT Scan room, boycotting the long queue of waiting people (who were gazing at us with a suspicious look). I was in a hurry of getting the CT Scan done on that very day (Friday) as getting it done on the next day (Saturday) would lead to wastage of 3 days (this is what happens with common/ general patients) – obviously no doc. comes on Sunday. CT-Scan was done 3 times due to lack of experience & knowledge of technicians (contract basis par bahal hue the na!) and the hazard of radiation was always there. But as I was working for RIMS Director’s Souvenir (Pragati Ki Udan – A booklet about RIMS development), I was conditioned to see everything positively, specially any incident related to RIMS. So I explained it to the attendant –he whole 36 pages that I had written for RIMS in the souvenir. Earlier too, I had presented it to 10-12 persons. I was feeling like a Brand“Look! 3 times scanning. In other hospitals, they would have done only once.Hamare Yahan deeply diagnosis ki jati hai....and then a long lecture started about RIMS. I delivered to him t Ambassador of RIMS – Ek karmath nishthawan chhatra.

In the indoor, the politician type man was in a mood of having an argument with me..... .“You are all careless and irresponsible medicos.This RIMS is never trustworthy because of you,your rules and your thoughts. Govt. invests so much money on you and how do you repay?Neither do you want to serve in the village (R.D.) nor you are dutiful here. The only thing you have in your calendar is strike! Strike and again strike!! You will never come to know how important a life is! Poor people come here not because of your facilities and infrastructure but because they cant afford any other place. Unki majboori hi unke ummid ka karan hai.”

“You doctors start playing with dead bodies in 1st year of medical study, continue enjoying it in 2nd year as FMT and thus gradually you get an addiction of death. You lose your emotions. For you, a death is just like a kiss in a hollywood film, it happens here and there and everywhere.”

I was losing my confidence. Is this a debate competition? Then suddenly I woke up as a champ! I began recalling my talent, I was the winner in my school. And then I appeared as a super champ....

“What do you want? Everytime we are compared to God. But is this the way to behave with God? Atleast let us be simple human beings. We are also like you. (Bastiwalon se jhagada hue kuchh din hi beete the). We too have the fear of death when it comes to us...we do have the dreams. We could have gone for engineering or MBA and by this time, we would have been playing in lakhs in a metropolitan.But we are here because we want to serve. We have already burried our young life among the books (But ideally it should be among bo**** censored). And just imagine what we feel when the people for whom we sacrifice so much begin to attack us, even become misers in giving respect. Our self respect is also being snatched in fact... “, and again the same long lecture (36pages) I delivered breathlessly.

That night the patient again called me. Oh shit.. But “Yes, this is a doctor’s life”. I tried to feel proud of the sacrifice of my sleep.

When I was going to see the patient, it was around 1 AM at night. One man was weeping silently. I asked him about the tears, and he narrated the incident.His daughter (14 yrs) was admitted in medicine ward. Doctors had declared that she had Acute Renal failure in advanced stage. Renal transplant was the only option left, if the parents could manage it easily. And for this too, they would have to go to higher centres. Definitely they were unable to afford it, so they decided to stay in RIMS so that atleast she could die in comfort (As they thought). At that moment,the girl was anxious, dyspnoeic, restless. Her father requested the nurse for oxygen.But the nurse who was sleeping, replied arrogantly – “Who are you to decide whether to supplement oxygen or not? When the doctor will come, he will decide if it is required or not. Your patient is dying anyway. It is not wise to spend the Govt. oxygen like this. May be this will be lifesaving for some one else needing it actually.

I went to the bed with her father. But now the girl was at rest, with a calm and smiling face. She didn’t need any more oxygen even for breathing. I was standing still. Pause!! A lot of questions began to explode. Did their purpose get solved? Was the nurses’ logic correct? Or was she irresponsible towards her duty? Can’t we have a hope till the last second for a miracle to occur? Is it superstition.. was she dying with comfort? Could the oxygen supplement be of any help in this case?

In the Neuro ward, the attendant was tense & worried, waiting for me near the gate of C2 ward. As soon as he saw me, he ran to me and said – “Lagata hai yahan aake phans gaye hain kaa?” Actually his patient was vomiting and was restless. Although the condition was not so severe but in neuro ward,where everytime life is in 50-50 probability, his anxiety was obvious. He firstly reported to the doctor in Emergency, but no body came. Again he went to call but the doctor on duty replied – “Jao na ji, aate hain na 5 minute main! Tum aise kar rahe ho jaise tumhi mar rahe ho turant.” And then the doctor preferred to sleep rather than going with him to the ward. Ultimately he called me after losing all hope. I thought it was useless to go to the emergency again. So I preferred to go to PG Hostel. There was a PG Boss, quiet, laborious and caring, known to me.He was very popular among patients because of his dedication.

Saturday night, 1:35 AM. I was going to PG (Boys!!) Hostel 2nd time. My 1st visit came In my mind as a recap of a TV serial. 1st time during Saraswati Puja (then we were the junior most) ‘chanda’ collection. We got a chance to see this completely different form of medico life.At that time, most of us were excited to knock at the gate, because in 1st few rooms we had seen girls 1st time in any boys hostel. Our dirty mind were working fast. There are two types of rooms. First type – like a library, hardly any space to sit. (PG Aspirant and single-unpaired PG Boss), and 2nd type – well decorated with AC, internet, TV,girlfriend or wife. This time, as I had no idea as to which room I should go, I took the help of another Boss of my fibre to whom I had promised to arrange a girl friend. (Because the whole campus knows that I have many girlfriends and I have arranged for many of my batchmates).

In the destined room, as I was expecting, no specific signs and symptoms were present. Boss was busy on phone (probable symptom) and indicated me to sit. While he was talking.I concluded that on the other side of phone was the same ma’am (senior girl) for whom maximum of UG go to library as a routine work.Boss had to finish his talk and came with me to the ward.
Boss : Is this patient your own relative?
Me : Yes Boss (I answered with hesitation).
Boss : You are in 3rd year na?Then also you don’t know the condition and situation of this institute; surprisingly you are a stupid guy. Man! Here only those come who can’t go anywhere else or those who have to get a false medical certificate.
Me : Boss, what is the problem here? Is the staff careless or is the system defective?
Boss : No! Everything is not defective. We have the latest instruments and labs. Some nurses serve better than those in any other hospital. Their dedication is really appreciable.Some doctors are really dutiful and caring.Some senior doctors like are really hard working due to whom this institute is surviving. But some are still here who don’t want to work.The system is also much defective. Afterall its a Govt. hospital na?
He came to the ward and while prescribing medicines, nearby patients also started telling their problems. He had to give a complete round, although he was not on duty. While leaving he gave me a burning suggesting – “From now don’t bring your own relatives here. Not because I had to come here at night, but because of the absence of responsibility in the system”.

I was analysing the truth. Really some are good like him, but many are negligent. And the lives of patients is more important than this statistical analysis. If only one doctor is irresponsible, this means one life is being lost every day. And specially in conditions where the patient doesn’t have any recommendation from ministers or medicos like me.
While returning from medicine shop, near the fountain I saw Putesar of my village.His father (40 yrs) was a labour in Kolkata. There he fell ill but was neglected initially. Later when he consulted the doctor, it was too late. Cancer was diagnosed. He spent all his money there,and when every penny was lost, he decided to return to his village so that he could take his last breath near his four marks and die in front of his family. He was waiting for his death every second.One day it came in Newspaper “Now complete treatment of cancer with RADIOTHERAPHY is available in RIMS (July 09). Patients of Jharkhand now don’t need to go anywhere else.” Some of the villagers collected money and suggested him to go to RIMS, although some were suggesting for TMH or BHU. But he wished to arrange for the marriage of his daughter so that he could see it before dying. But here in RIMS, he could not get Radiotherapy, bcoz it’s not available here.

Doctors told him to go somewhere else, but he didn’t have any zeal and enthusiasm for it. He had spent his money in early investigations and medicines. Although I didn’t have the strength to face the situation, I had to go with him. The patient was lying in cachexic condition. “No need to worry or fear. You have atleast one year. Who knows the power and will of God. He takes care of everyone. “koun janta hai kab chamatkar ho jaye“– I was trying to console him.But instead he began to smile – ““pandi ji marz ke bare me bhale aap hamse jyada jante hain,par mout ke bare me to mat hi bataiye..–” Definitely medical science may teach me more about disease, but when it came to death, he was a scholar no doubt.

After some days he died in his village but left thousands of questions in my mind. Was it correct to publish it in the newspaper like this? Is false advertisement is more important than the life of common man? Is it a simple death or the death of a common man’s hope regarding RIMS? Was the investment in treatment against his will fruitful.” Would it have been better to arrange for the marriage instead of treatment?The question was not whether treatment is given here but if this false self-appreciation in News Paper hadn’t come, he might have gone to some other institution.

To my patient on Monday, doctor advised for blood transfusion urgently. Blood group AB negative. And coincidently or by foul play, it was not available in RIMS. I tried in other blood banks, but with no success. After a long struggle, we could manage two units from Bokaro. Although it was life saving, but we still needed atleast two more units. That politician type man took me to RIMS Blood Bank and said– “I know blood is available. You are a medical student of this institute. Try to get it.” I was surprised, how did he know? But I tried my best. I got the same reply again – “AB negative is not available, try to consult after 2-3 days. May be we will be able to provide it.” Then the politician took out his mobile and dialed the number of an MLA. While talking on phone, he gave a cunning smile to me. After some time he got the blood.

I was shocked. What was this? Before this I used to think that we medicos are supreme, only we can violate and modify the disciplines (sometimes outside the RIMS also). But in this case MLA is the supreme and we are just like a common man. But still the bigger question was that, Does it happen with every common patient, even in emergency situations?

Any way, next day my patient was advisedsome investigations. But the investigation slip was kept by the nurse. Consequently the investigation could not be done. The relatives called me but as I had my exams on the next day, I explained them my inability to come and promised to visit the next day. Next day in the morning the patient and the relatives were scolded by the doctor for not getting the investigation done. Also this critical case was not handled with specific modification due to nonavailability of investigation eport.When I visited there in the evening, the nurse explained me the reason to me. Actually it was a police case, so only the hospital trolley staff could get the investigation slip and only he could take the patient for investigations. But because no trolley of Neuro ward was vacant and the staff was not interested in bringing a trolley to the 4th floor of Neuro wards, he didn’t take the pain of bringing a trolley for the patient.And thus, no investigation was done.I, taking the advantage of being a medico,got the slip, took the patient for nvestigation,got it done, felt a bit relaxed, and came to my hostel.
Of oh! My mobile started ringing at 2 am.I became so angry, almost willing to break it.But cooled down seeing the patient’s number.I received the call. But alas!! I was shocked. I just couldn’t believe it. An apparently smiling normal (obviously injured) person whom I visited a few hours ago was dead. Reason – delay in investigation – delay in diagnosis – delay in specific treatment. I had no other option left than to repent, as she might have been saved if I had visited her earlier. Although she was not my own relative, but I felt a relation. Several times I had felt joy, when she had told that she was feeling well due to my help. Was it a fixed final destination, which could never be altered?

Its already 2 months since this incident.Now I am busy with my exams. I also forgot about the incident like most of the readers will.But one good news, I got many new girlfriends through the visitor girl. If you need, try to be the attendent or call me on 9709033291. Hey listen, I am getting calls. Remaining in the next story.“Hello.... excuse me! Bye readers!! ... Hello! Oh you are so naughty dear....”
By - सत्यम सिन्हा 

और कितने सवाल -एक नाटक



और कितने सवाल -एक नाटक

                                               -by Dr. Govind Madhaw

१.
नेपथ्य -
ज्वाला दीपक संग संग
बैठे थे थाम के  रंग मंच
गहन विचार और मंथन था
नारी उत्पीडन  का क्रंदन था

ज्वाला- एक कहानी सुनोगे? ना  मत करना. तुम्हारे साथ साथ सब को सुनानी है..
दीपक- सुनाओ ..
ज्वाला-     मन की आँखों से 
महसूस करो हर हलचल को
नारी ह्रदय के कलकल को
समाज रूपी इस दलदल को 

२.
{लेडी डॉक्टर
गर्भवती गंगा
सास}

{"यहाँ भ्रूण का लिंग जांच  नहीं होता है, यह कानूनन अपराध है"}

सास- मैडम चेक अप करवाना है
{डॉक्टर ................रिपोर्ट लेकर आती है
सास के कान में कुछ कहती है
सास आश्चर्य चकित..दुःख...गुस्सा }
डॉक्टर से--आप तैयारी कीजिये मैं गंगा को समझाती हूँ

{गंगा नहीं मानती है,,इनकार करती है}
सास- मैडम, आप ही समझाइये 

डॉक्टर-
तुम्हारे पेट में जो लेटी  है
वो बेटा  नहीं...........बेटी है
ख़तरा...खर्चा ..खामियों की पेटी है..
दूर हटा दो..नाम मिटा दो
५ हज़ार में इसे गिरवा  दो
future के लाखो लाख बचा लो

गंगा --
असमंजस में हूँ...
नौ महीने तक जिसे सींचा है मैंने अपनी कोख में
कभी तो ये नहीं सोचा की ये बेटा है या बेटी
मैं तो बस इतना जानती हूँ की मैं इसकी माँ  हूँ 
अब इसी माँ को.....????///

नेपथ्य..
"ममता ने क्यों  मौत का दामन थाम लिया है
कसमकस में पड़कर माँ ने विषपान किया है
मा के आँचल में स्वार्थ का दाग लगाकर
नारी  ने ही नारी को बदनाम किया है*३ "
{आश्चर्य..संतुष्टि...गुस्सा/...निर्णय }
गुस्से में गंगा उफनती है ,
खुद के मन को झकझोरती है
फैसले को तोडती है
मौत का साथ छोडती है
ममता की और रुख मोडती है

{entry of jwala and deepak, others आउट }
 ज्वाला- मगर कहानी इतने पे ख़त्म नहीं होती
      "जननी की जिंदगी जंग है इस जहाँ में" 
पग पग पर प्रहार 
कदम कदम पर कांटे
सांस सांस पर सजा
बात बात पर बदसलूकी


३.
{गंगा के गोद में नवजात बेटी}

 नेपथ्य -
गंगा  ने घर के फैसले के खिलाफ एक बेटी को जन्म दिया,नाम, जानकी
 शायद एक ममता की जीत हुई
मगर राह  मुश्किल थी
घर वालो का बर्ताव....
समाज के ताने...
* कुलदीपक तो जला नहीं, अब वंश कौन बढ़ाएगा....
* और जमुना का तो जुडवा बेटा  हुआ है, हमारा ही नसीब खराब था
* बेटी हो गयी है...न जाने आगे कौन कौन सी विपति ले कर आएगी ये
मगर गंगा ने जंग ठान रखी थी ...हिम्मत बुलंद थे उसके...

गंगा- जो मेरे साथ हुआ, वो मैं अपनी बेटी के साथ नहीं होने दूंगी

"कुलदीपक नहीं तो क्या हुआ, कुल ज्योति  भी तो होती है 
बेटी भी सब फ़र्ज़ निभाकर सारे  स्वप्न संजोती है"  


नेपथ्य-
क्या विडंबना है इस समाज की
एक तरफ तो दुर्गा काली लक्ष्मी सब की पूजा होती है
और दूसरी तरफ घर में बेटी हो तो.....इतनी नफरत
एक तरफ पूजा अनुष्ठान में कन्यापुजा की जाती है नन्ही सुकुमारियो की
और दूसरी तरफ जन्म् लेते  ही अफीम/नमक का प्रसाद


४.
नेपथ्य-
जानकी बड़ी हो गयी,
मेडिकल की तैयारी कर रही है,
डॉक्टर बनना चाहती है
मगर ये सब इतना आसान नहीं था
घर वाले लड़की की पढ़ाई के सख्त खिलाफ
मगर गंगा कहाँ मानने वाली थी
उसने गंगा की लहरों की तरह मचलते हुए कह दिया

"मेरे गहने बेच दो, पर जानकी को स्कूल भेज दो
जब बेटे को पढ़ाना फ़र्ज़ है..
तो बेटी को पढ़ाने में क्या हर्ज़ है
क्या लड़की समाज का क़र्ज़ है?"


* चुल्हा जलाना न सीखेगी???कलम चलाएगी???कलेक्टर बनेगी का??
* १८ साल की हो गयी हो..शादी नहीं हुआ है...का हुआ कोई छुआ नहीं है का अबतक ...
* इतना पढेगी तो लड़का भी तो ......बहुत दहेज़ लगेगा....
* बेटा नहीं हुआ तो  इसी को बेटा बना लोगी का ??.....लोक-लाज-समाज का कुछ ख्याल ही नहीं है....
* {सीटी बजाके- भोजपुरी में}... अरे ये जिला हिलावेवाली ...बिजली गिरावे कहाँ जात बाड़ी ......इतना वोल्टेज ....अरे बाप रे बाप....करंट मारे लू का....

{फिर से रोते हुए दौडती है जानकी....माँ के आँचल में छुप जाती है ..}

नेपथ्य-
रोज़ कोचिंग के लिए घर से निकलते समय घर वालो के ताने और बाहर में आवारा लडको की फब्तियां .
बाहर  जाती है तो माँ को देखकर झूठी मुस्कान लिए.
मगर लौटती है तो परेशान सी आंसू  लिए.
गंगा आँचल से जानकी के आंसू पोंछती है और .....


५.
नेपथ्य-
जानकी का मेडिकल में सिलेक्शन हो गया
दिल्ली जाना है पढने
दुविधा फिर से
घर से इतनी दूर अकेली लड़की कैसे रहेगी
आखिर लड़की को इतना पढ़ने की क्या जरुरत है
कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया  दिल्ली में तो
जानकी नहीं जाना चाहती दिल्ली अपनी माँ को छोर कर,
वो नहीं चाहती परिवार को और संकट में डालना
वो समझती है अपने लड़की होने के मायने
मगर गंगा जिद करती है
जिस जंग को कोख से लडती आ रही हो, उस से इतनी जल्दी हार नहीं मानने देगी

जानकी-
तुम्हे छोड़ कर इतनी दूर...कहाँ से लाऊंगी 'माँ का आँचल' दिल्ली में 

गंगा-
 तो क्या हमेशा मेरे पल्लू में ही रहेगी ...{आंसू  और हंसी के साथ}पगली कही की
जानकी- मगर डर लगता है न माँ ,

गंगा- तो क्या मेरी इतने दिनों की मेहनत और लड़ाई यूँ ही बेकार...
क्या इतनी कमजोर है मेरी शेरनी.....
क्या अपने माँ के सपनो को बह जाने देगी गंगा की तरह समंदर में... 
या उफान बनकर टकराएगी चट्टानों से .....

जानकी-अब तुम भी न...

६.
नेपथ्य -
जानकी दिल्ली में
डॉक्टर बनने वाली है...
इंटर्नशिप में है
सुन्दर है बहुत
कई लडको का रिश्ता आता है
मगर उम्र के इस पड़ाव में प्यार हो जाता है उसे
लड़का का नाम है राम
लड़का खुद काफी नेकदिल है
राम गंगा से जानकी का हाथ मांगता है
सब तैयार थे मगर
परेशानी का नया सबब
राम के परिवार वाले
मांग बैठे दहेज़
क्या इतना पढ़कर भी जानकी की शादी दहेज़ बिना रुक जायेगी ??
और राम का प्यार??
राम से पूछ  बैठी जानकी
राम भी अपने परिवार की मजबूरी गिना बैठा


जानकी-तो क्या मेरी पढ़ाई मुफ्त में हुई है...और हमारा प्यार ????प्यार की भी कीमत ....सब बिकाउ है????तुम तो बड़े intelectual बनते थे..बड़ी बड़ी डिंग हांके थे डिबेट में ...आन्दोलन करने वाले थे बदलाव के लिए ..मगर आज तुम भी......?????
राम-वो तो ठीक है जानकी मगर मम्मी पापा को समझा कर हार गया हूँ मैं, अब उन्हें तो नहीं छोड़  सकता न मैं तुम्हारे लिए, बोलो तुम ही..आखिर ... 

जानकी-तूम कुछ करने से रहे..अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा .....

नेपथ्य
तब जानकी ने
राम से छुप कर
अपने प्यार की खातिर
कर्ज लिया बैंक से
दहेज़ देने के लिए...
शादी की तैयारी शुरू...

दृश्य 7
राम और जानकी शोपिंग कर के लौट रहे थे रात 9 बजे
ऑटो में थे
की कुछ गुंडे आ गए
जानकी को घींच कर ले गए

सुबह फटेहाल में जानकी पड़ी हुई मिलती है सड़क पर
राम शादी का रिश्ता तोड़ देता है
जानकी पागल हो जाती है

नेपथ्य
बेवफाई गूंजी ...मानवता सहम गई ....दिन दहाड़े.....भरे बाज़ार में हिजड़ो ने कुत्तो जैसी हरकत की ...वो चीखती रही...जख्म बिखरते रहे .....जिसका दामन थाम के निकल पड़ी थी ...उस ने भी तो अब छोड़ दिया....
शायद जानकी की हंसी और रुदन यही बयां करते होंगे -

"मेरे जख्मो को फिर से सहला गया है कोई
टूटते दिल को भी आज दहला गया है कोई
शागिर्द  बनकर जो चला था साथ हर पल
मेरे सपनो के सीसे पे पत्थर लगा गया है कोई
होश रख कर भी करुँगी क्या अब मैं
मुझे पागली-बस्ती का बाशिंदा बना गया है कोई
मेरे जख्मो को फिर से सहला गया है कोई "

दृश्य 8
नेपथ्य-
6 महीने  बाद
राम अपने क्लिनिक में
एक गरीब आदमी डरा हुआ अपनी घायल बीबी को लेकर आता है
उसका नाम है रावण बीबी का नाम है सीता

डॉ राम- हुआ क्या है इन्हें?
रावन- कुछ गुंडों ने.....प्लीज़ डॉक्टर साहब मेरी बीबी ..इस रावन की सीता को बचा लीजिये...इसकी जान बचा लीजिये ....
डॉ. राम- क्या???कहाँ..कैसे..कब.....
रावण- कितनी बार कहूँ की बलात्कार हुआ है???थाणे में..समाज में....चौक चौराहे पे..कैमरे के सामने..सब को चिल्ला चिल्लाकर कहूँ क्या की मेरी बीबी की इज्ज़त लुटी गयी है...क्या आपको फर्क पड़ता है इस से ...अरे आप इलाज़ कीजिये न....
डॉ राम - तो क्या अब भी तुम इस से....??????
रावण- मतलब क्या है आपका...ये बीबी है मेरी...मैं  रावण हूँ ..कोई सतयुग का राम नहि जो अपनी सीता को छोड दूँ ......

नेपथ्य
रावण को फ़िक्र नहीं घटना की
चिंता है तो बस सीता की
कौन बड़ा--- रावण या राम
कलियुग का रावण या राम

अग्निपरीक्षा देती जानकी
पगली गली गली फिरती जानकी
रावण ने तो फ़र्ज़ निभाया
पति होने का क़र्ज़ चुकाया
मगर  राम?
किस हद तक तुमने ये अन्याय किया है ...बोलो
विकट समय में निकट न रख कर त्याग दिया है ..बोलो
त्रेता से क्या अब तक नारी छलती रहेगी?
स्वार्थ-वासना-लालच में वो जलती रहेगी ?
कब बदलोगे ?
हां हां  कब बदलोगे ?बोलो?
अपने दिल को टटोलो
अंधी रस्सी  खोलो

अबला को न बला बनाओ
जाओ जाओ गले लगाओ
त्रेता से क्या अब तक नारी छलती रहेगी?
स्वार्थ-वासना-लालच में वो जलती रहेगी ?


दृश्य 9
ज्वाला कहती है कहानी ख़त्म
ज्वाला का एम्स में पीजी में चुनाव हुआ है
तभी..
अरे मम्मी आप

अरें नानी माँ भी 
उसके माँ  और कोई नहीं बल्कि जानकी हैं

नेपथ्य...
और न जाने कितनी गंगा समाज रूपी बाँध में दब कर अपना आस्तित्व खो देती है
कितनी ही जानकी दहेज़ रूपी अग्निपरीक्षा में भष्म हो जाती है
कितनी ही ज्वाला वक़्त के थपेड़ो से बूझकर धुंआ सी बिखर जाती है
और रोज होता है हमारी इंसानियत, हमारे आस्तित्व, हमारे सभ्यता का गैंग रेप ...
आखिर और  कितने सवाल पूछने होंगे हमें खुद से
और कितने सवाल....

पडाव


पडाव
"an autobiograohy of traditional waiting room"- by Dr. Govind Madhaw
मैं हूँ ही ऐसा.लोग मुझ तक आते हैं, आकर खुश भी हो जाते हैं,उन्हें खुश देखकर मैं भी खुश होने की कोशिश करता हूँ. थोड़ा गुरुर पालने लग जाता हूँ मन में इस बात का कि लोग मुझ तक आना चाहते हैं, मुझे पाना चाहते है. पर यही तो मेरी भूल है. लोग मुझ तक आना तो जरुर चाहते हैं पर पाना नहीं चाहते. मुझसे होकर वे अपनी मंजिल की और जाना चाहते हैं, और बस इसलिए मुझ तक आना चाहते हैं. क्यों की मैं तो बस पलभर की छांव हूँ.हाँ सबकी ज़िन्दगी का मैं एक पडाव हूँ. पडाव मात्र.

कुछ मुसाफिर आकर, थोड़ा सुस्ताकर मुझे साफ़ कर देते हैं. थोड़ा सजाने की कोशिश करते हैं. शायद ये उनका स्वार्थ निहित काम होता है, पर इसे मैं अपने लिए नेह मान लेता हूँ.क्षणिक थकन मिटाने के लिए वे मुझे दिल से धन्यवाद् देते हैं तो मैं उनसे रिश्ता जोड़ने की कोशिश करता हूँ. पर थकान मिटते ही वे भूल जाते हैं मुझे. मैं उम्मीद करता हूँ कि शायद वे मुझे अपना समझने लग गए हैं और मैं रिश्ते के बीज बोने लग जाता हूँ और बार बार मैं भूल जाता हूँ कि रिश्ते हमेशा दुख ही देते हैं.

कभी कोई मुसाफिर रात गुज़रता है मेरे आगोश में. उसके बेसुध निद्रामग्न शारीर की रातभर जागकर मैं देखभाल करता हूँ. वो कभी मेरी दीवारों पे कील ठोंकता है,जो सीधे मेरे दिल पे लगती है,पर आदतन प्रेम की उम्मीद लिए मैं यह ज़ख्म भी हँसते हँसते सह लेता हूँ. पर उन्हें तो इस  बात की भनक भी नहीं होती.वे बेफिक्र से, बेखबर से अपनी दुनिया में जीते हुए चले जाते हैं. मैं बेचैन सा हो जाता हूँ. एकतरफा ही सही बंधन तो मैं जोड़ चुका होता हूँ. फिर से उनकी एक झलक मिल जाती . काश. फिर दिन रात इंतज़ार और इंतज़ार.
लम्बे इंतज़ार के बाद भी जब वो लौटकर नहीं आते तो मैं निराश हो जाता हूँ. रोना नहीं चाहता, आंसुओं को छुपाने की कोशिश करता हूँ, पर ये भला छुपते हैं कभी. मेरी दीवारें भीग जाती हैं, फिर टूटने लग जाती हैं,  और अब तो कोई आना भी नहीं चाहता मुझ तक. अन्दर ही अन्दर घुटता रहता हूँ, टूटता  रहता हूँ.बस मौत का सहारा ही मुझे उबार सकता है, यही उम्मीद किये जाता हूँ. पर मौत भी इतनी आसान कहाँ.
कभी किसी की दुआ से मुझे नया रंग मिल जाता है मेरी जरुरत पड़ने पे.भले ही वो जरुरत थोड़े पल की हो.मुझे फिर से सजाने की कोशिश की जाती है.सजावट तो कम होती है पर सजाने का आयोजन भव्य होता है. बड़े बड़े लोग आते हैं.बाजे गाजे बजते हैं. दीवारें तो अन्दर से कमजोर ही रहजाती हैं पर बहरी चमक दमक बस बढ़ जाती है. और लोगों के आँखों पे एक पट्टी लग जाती है. एक पट्टी मेरे भी आँखों पे लगती है, जिसपे लिखा होता है..."पुन्रोधार. द्वारा माननीय ......". कुछ पल के लिए मैं भी वहम का शिकार हो जाता हूँ. पर अन्दर से उठती टीस  सारे  भ्रम मिटाकर मुझे वास्तविकता के धरातल पर फेंक देती है.

झूठे ही सही पर इस काया कल्प से लोग मुझ तक फिर से आने लगते हैं.मैं फिर से अपनी उपलब्धियों पर गर्व अनुभव करता हूँ.अपनी औकात भूलकर सपने देखने लग जाता हूँ. मेरा पुराना संकल्प टूटता है-"फिर से नया रिश्ता न जोड़ने का". ये जानते हुए भी की मैं किसी के भी दिल में अपनी जगह नहीं बना सकता , अकेलेपन के मेरे साथी हैं तो बस सड़क के आवारा कुत्ते और मेरी तन्हाई. सब समझते हुए भी मैं रिश्ता जोड़ जी लेता हूँ. पल भर के लिए खुश हो जाता हूँ.

तुम ये सब जानकर मुझे मुर्ख कहोगे. मुझे फर्क नहीं पड़ता. मैं मुर्ख ही  बने रहना चाहता हूँ. मुझे मत समझाना निष्काम कर्म और इसी तरह की ज्ञान की बातें. मैं समझदार इंसानों की तरह भावनाशुन्य नहीं बनना चाहता, भले मैं इसी तरह तड़पता, टूटता रहूँ. अगर मुझसे हमदर्दी है तो बस इतना करना कि अगर तुम्हे सफ़र में कोई इंसानी पड़ाव मिले, मुझ ईंट गारे के पडाव को तो छोड़ ही दो,तो उसके रिश्ते को मत ठुकराना.अरे मैं तो अब उपदेश देने लग गया. मैं तो भूल ही गया था की तुम इंसानों को उपदेश से शख्त नफरत है. तुम्हे तो मजा आता  है किसी की दुखभरी कहानी सुनने में. मैं ऐसा नहीं कह रहा की तुम किसी के दुःख को समझना चाहते हो. शायद ऐसा कह कर तुम्हारे सोसाइटी में तुम्हारी बेईज्ज़ती हो जाएगी. तुम्हारे प्रोफेस्नालिज्म पर सवाल खड़े हो जायेंगे. न न इतनी मुसीबत  में नहीं डाल सकता मैं.बल्कि तुम्हे तो मजा आता  है दुःख भरी कहानी बस सुनने भर में. क्यों की ऐसा करना ट्रेजेडी फिल्मो के जैसा मजा देता है.भागते भागते जब तुम भूल जाते हो की इंसान में भावनाएं भी होती है और इन भावनाओं में दुःख भी एक है तो तुम चले आते हो थिएटर. या फिर दुःख भरी कहानियां पढने लग जाते हो या फिर सत्यमेव जयते.ये कहानियां सच्ची हो तो और ज्यादा मजा देती हैं. हाँ भाई. जमाना रियलिटी शो का जमाना है न. भले तुम में से कोई भी, कभी भी कहानी के किरदारों के दर्द दूर करने नहीं जाता. अजीब है न. मजेदार भी है....दूसरों  के दर्द का मजा लेना...sadistic pleasure.
खैर छोड़ो इन बातो को.मैं अपनी कहानी सुनाता हूँ.तुम्हारे पैसे वसूल नहीं होंगे तो मुझे गालियाँ दोगे..
मैं रोता हूँ.और रोता ही रहता हूँ. यही मेरी दास्तान है, मैं गम समेटे हुए, छोटे छोटे टूटते सपनों की छाँव हूँ. मैं एक पडाव हूँ. पडाव मात्र....

कहानी बस इतनी सी है भाई. आखिर औरों ने भी तो टिकेट ख़रीदे है रोने के लिए...
.....आओ भाई...
.......मैं हूँ पडाव....
मैं?
दिल बड़ा कमजोर है. हर बार सहारे के लिए उम्मीद का दामन  पकड़ लेता है. शायद जनता नहीं की "उम्मीदें अक्सर रुलाया करती है."

हर बार पिछले ज़ख्म मिटाकर मैं सोचने लग जाता हूँ कि शायद इस बार कोई अपना समझने वाला होगा....मैं फिर से बाहें पसार देता हूँ...मैं मौत तक हारते ही जाने वाला दांव हूँ...मैं एक पडाव हूँ..पडाव मात्र...


एक देश भक्ति गीत

 once again to tease u on this eve..


हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं.
facebook के आधे से भी ज्यादा id fake हैं...

जन गन मंगल दायक भारत भाग्य विधाता है.
उमर कसाब लादेन सब का RBI में खाता है....

देने वाले जब भी देते, देते छप्पर फाड के.
भले इंडिया गेट को भी लश्कर ले जाए उखाड के....

जहाँ डाल डाल पे सोने की चिड़िया लटकती है.
उस जंगल में नक्सल के डर से तितली भी नहीं भटकती है....

हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा सडती है.
गैया बकरी कटती है, मुनिया बेटी पढ़ती है.....

अन्ना तुम्हारे अन-शन पे response हमारा late है.
क्योकि आधा इंडिया हर रात को सोता खली पेट है.
IPL TICKET का फिर भी बढ़ता जाता रेट है.....

देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गयी भगवान.
मिडिया झूठी,नेता अनपढ़ जज हुए बेईमान......

आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ मिटटी हिन्दुस्तान की.
खून खराबा दंगा कर, है कसम खुदा और राम की.....

राजनीती को गन्दी कह कर देशी दारू चखना है.
दम मारो दम, अपने मन तो बस लन्दन का सपना है.....

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है.
आज का graduate ये न जाने गाँधी को किसने मारा है .....

मेरे देश की धरती कोयला उगले उगले हैजा टीबी
हर जवान के एक ही सपना एक सुन्दर सी बीबी.....

गूंगी बहरी भीड़ को चीर राज होता बलात्कार .
टेंसन नहीं लेने का, लीजिए न पान बहार......

मेरी बात न पचे तो लीजिए हाजमोला है.
बियर बार में टुल्ली होकर आज शिवाजी बोला है......

ए मेरे वतन के लोगों जरा पेट में भर लो पानी
लाल कार्ड के आस में न देखो राजनीती खानदानी......

इन्साफ की डगर पे बेटा तू चलना डर के.
कुत्ते भी न पूछे जो गए वतन पे मर के .....

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी है.
अपने प्यारे इंडिया की बस यही कहानी है..

हिन्दू धर्म ग्रंथों का संक्षिप्त इतिहास

हिन्दू धर्म ग्रंथों का संक्षिप्त इतिहास -डॉ.गोविन्द माधव 

हिन्दू धर्म ग्रंथो का पुराना इतिहास रहा है.
स्वर्णिम भारतीय इतिहास की स्वर्णिम गाथा रूपी हैं ये धर्म ग्रन्थ.सदियों से मानवता के पथ प्रदर्शक.जीवन और समाज को ओजस्वी,सकारात्मक और विकासवादी बनाने को प्रयासरत हमारा वांग्मय.
रचना काल की दृष्टि से देखें तो करीब १० हज़ार साल पुराना हमारा ऋग्वेद ...तत्पश्चात अन्य वेदों की रचना हुई. फिर मनीषियों ने रचा उपनिषद. ये उपनिषद स्मृति भी कहे जाते हैं.इनकी रचना का मुख्या उद्देश्य वेदों के रिचाओं की विस्तृत व्ताख्या करना था.
ऋग्वेद में विराजमान है प्रकृति रूपी इश्वर के विभिन्न रूपों की स्तुति करते मन्त्र. और बहुत ही सौंदर्य के साथ पिरोये गए राजा और प्रजा के कर्तव्यों का वर्णन. सामवेद में इन रिचाओं के सटीक उच्चारण और पाठ का वर्णन है.अथर्ववेद में यज्ञों के नियम और कर्मकांड का वर्णन है, और यजुर्वेद में भी कमोबेश ऐसे ही प्रावधानों का.....यह बताना जरुरी है की आर्यों की सभ्यता में अब तक राम,कृष्णा,रामायण,इत्यादि कथानको का कोई वर्णन नहीं मिलता है, बल्कि प्रकृति को ही सर्वमान्य ब्रह्म की सत्ता के रूप में पूजा गया है.वेदों के अन्य नाम भी प्रचलित है जो कभी कभी दुविधा की स्थिति उत्पन्न करते हैं, जैसे-ब्राह्मण,अरण्यक,वानप्रस्थ,श्रुति,ऋचा इत्यादि.
तत्पश्चात रचे गए उपनिषदों में एक एक ऋचा का सविस्तार वर्णन मिलता है. उपनिषदों को वेदान्त भी कहा गया है.मुक्तोप्निषद में उपनिषदों की संख्या १०८ बताई गयी है. उपनिषदों की वास्तविक संख्या कितनी है यह एक विवाद का प्रश्न है. कई विद्वानों ने लगभग ३६ मुख्य उपनिषदों की उपस्थिति पे एक समुचित विचार बनाया है...इन उपनिषदों के नाम इनके रचनाकार ऋषियों के नाम पे है जैसे-कठोपनिषद, मनुस्मृति, अत्रेयुप्निषद , बृहस्पति उपनिषद, प्रश्न , मंडूक, केन, इश, ऐतरेय, छान्दोग्य..... इत्यादि. सभी उपनिषद एक ही रचना काल के नहीं है, बल्कि अलग अलग समय में लिखे गए है, इसलिए भी इन्हें आर्य सभ्यता के क्रमिक विकास और इतिहास का साक्ष्य माना जा सकता है, उनमे वर्णित राजा के कर्त्तव्य, समाज के विभिन्न वर्गोके स्थिति का वर्णन हमारे उद्दात सनातन सभ्यता के स्वर्णिम इतिहास की दर्शाता है...

कालांतर में आमजनों की धार्मिक आकाँक्षाओं की परिपूर्ति हेतु कई पुरानो की रचना हुई.
ये १८ पुराण मूलतः कथा संकलन है, इनमे कथा के माध्यम से जीवन मूल्यों का ज्ञान आम जनता को दिया गया है.....एक मत यह भी है की ये पुराण एक देव इष्ट को सर्वश्रेष्ट मानकर लिखे गए हैं....या फिर एक इष्ट को मानने वाले समुदाय ने अपने इष्ट के गुणगान वाले कथाओं के संकलन को प्राथमिकता दे दी....ध्यान रहे अबतक लिपि का प्रयोग नहीं था....सब कुछ बस श्रुति और स्मृति के रूप में ही एक पीढ़ी से दुसरे पीढ़ी में प्रदान किया गया है .अतः अशुद्धि की संभावना या फिर मूल रूप से बदलाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. भारतवर्ष के विभिन्न भागों में एक ही ग्रन्थ के अलग अलग संकलन , अलग अलग श्लोक विन्यासों का मिलना इसी बात का समर्थन करता है. ये पुराण हैं... विष्णु, गरुड़, मत्स्य, मार्कंडेय, वराह, वामन, शिव, स्कन्द, लिंग, अग्नि, ब्रह्माण्ड, भविष्य, भागवत,कुर्म आदि.
कहीं कहीं १८ उप पुराण के नाम भी मिलते हैं.मगर महाभारत को महापुराण का दर्ज़ा प्राप्त है. और इसे पंचम वेद भी कहा गया है. यह भी वर्णित है की"जो महाभारत में नहीं है, वो पुरे भारत में नहीं है"

बीच का काल कई व्याकरण सूत्रों, पाणिनि,पतंजलि इत्यादि ग्रंथो का रहा है.
प्रथम महाकाव्य होने का श्रेय आदि काव्य वाल्मीकि रचित रामायण को जाता है.
भगवान् राम के कृत्यों का बखान करते मर्यादा पुरुषोतम की छवि जनमानस में स्थापित करने में यह काव्य अत्यंत सफल रहा.और राम भक्ति की गंगा तदनंतर लगातार प्रवाहित होती रही.

रामायण के लिखे जाने के करीब १५०० साल बाद महाभारत का रचना काल माना जाता है.यह बात ध्यान देने की है कि- ग्रंथों के रचना काल से इनमे वर्णित घटनाओं के रचनाकाल का अंदाज़ा लगाना एक भयानक त्रुटी होगी. क्योकि लगभग सभी घटनाओं का वर्णन पूर्व रचित पुरानो में पहले से ही वर्णित है. रामायण और महाभारत तो बाद में लिखे गए महाकाव्य हैं.जिनमे कवी के विद्वता और भक्ति का पूट मिलता है.

ततपश्चात संस्कृत भाषा का लोप होने लगता है. भारतीय जनमानस की लोक व्यवहार की भाषा के रूप में पाली और फिर प्राकृत भाषा का स्थान आ जाता है.पाली में जैन धर्माव्लाबियों के ग्रन्थ लिखे गए हैं और प्राकृत में बौद्ध धर्म ग्रन्थ. हाँ संस्कृत काव्य जैसे कालिदास और भात्र्हरी आदि के मनमोहक संस्कृत महाकाव्य इस दौर में भी लिखे गए मगर राजदरबारो के संरक्षण में.अतएव इनमे राजाओं के चरित्र चित्रण आधिक हैं.

फिर अपभ्रंश भाषा के बाद अवधि और व्रज भाषा ने साहित्य को जिन्दा रखा. और फिर तुलसी के मानस, सूरदास के सूरसागर और रहीम कबीर के दोहे......

इतने लम्बे इतिहास में असंख्य ग्रंथों की रचना हुई, मगर तीन ही ग्रन्थ उपजीव्य काव्य के अंतर्गत रखे गए हैं. रामायण,भागवत और महाभारत. इनमे रचनाकारों ने चरित्रों के जीवन शैली और घटनाओं का जो सजीव और अद्भुत वर्णन कर दिया-वह हज़ारो सालो तक बुद्धिजीवियों के बीच नयी रचना का प्रेरणा श्रोत बना रहा...और आज भी रोज़ ही न जाने कितने ही काव्य,आलेख,निबंध इन्ही तीनो में से किसी दृश्य,घटना या विचार को मूल मानकर लिखे जा रहे हैं. शायद इसका श्रेय कहीं न कहीं इन सब में सामान रूप से व्याप्त कुछ विवादित अंशो को जाता है. जैसे केवट प्रसंग हो या अशोकवाटिका प्रसंग, सीता की अग्नि परीक्षा हो या,राम का वनवास,कैकेयी का चरित्र हो या भरत का राज्त्याग,उर्मिला का चरित्र हो या जानकी का. इसी प्रकार व्रज की गोपियों का परित्याग कृष्ण के द्वारा हो या फिर द्रौपदी का चीर हरण या कृष्णा का छल का वर्णन महाभारत में, या फिर अहल्या इत्यादि....न जाने कितने प्रसंग ऐसे है जो सदियों से बुद्धिजीवियों के मानस पटल पे अनेको आकर प्रकार ग्रहण करते हैं ,नए प्रश्नों को गढ़ते हैं,संवेदनाओं को झकझोरते रहे हैं.
शायद ये अंश जानबूझ कर इन ग्रंथों में समाहित किये गए हैं ताकि समय समय पर जनमानस को उद्वेलित किया जाता रहे, उनकी संवेदनाओं को मरने से बचाया जा सके, उनके ह्रदय के मर्मिक् स्थलों को प्रोत्साहन मिलता रहे. इस बात का प्रमाण इस से भी मिलता है की स्वयं तुलसीदास ने भी वनवास और अग्निपरीक्षा में सीता माता का पक्ष लेते हुए राम की नींदा की और कहा कि
- "हे आराध्य.आप ने कोमलांगी पूजनीय सीता माता को इन कष्टों के भंवर में भेज दिया है, जानता हूँ की आपने यह कदम अपने मर्यादा के रस्सी में जकड़े होने के कारण किया है, मगर मेरा कवी मन जानकी के कष्टों को नहीं देख पा रहा है, अतः हे राम अगर इस दृश्य के वर्णन क्रम में अगर मैं आप की अवहेलना भी कर बैठूं तो आप क्षमा करना. हे पुरुषोतम मुझे तो लगता है की आपने यह प्रसंग शायद इसलिए रचा ताकि समय समय पर समाज के अग्रणी मस्तिष्क वाले नारी के कष्टों के सागर में गोते लगाते हुए अन्याय और अधर्म के विरुद्ध जाने की हिम्मत कर पाएं और धर्मान्धता में ही भले पर जननी के मर्यादा पर उठने वाली कलुषित दृष्टी का नाश कर सकें. जय सिया राम."

आज भी न जाने कई पंथ और कई संप्रदाय रोज पनप रहे हैं.मगर सब के मूल में हमारे सनातन वांग्मय का ही प्रभाव दिख जाता है.

फ़रार


कभी अपनी कुची में समेटता दुनिया
कभी जुमले में ही ओढ़ता था जहाँ
मनचला,पागल, गैर जिम्मेदाराना
अपनी हरकतों से मजा करता था हरदम
पर मांग बैठा जो खुशियों का हिसाब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।।


लफ्ज भी तो दगा करते थे कभी
अन्दर से सिहरन भी उठ जाया करती थी
इस सिहरन को एक बीमारी समझा उसने
'काम' और 'वक़्त' की दवा दे डाली
शायद घर की मांगो का था ये जवाब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।


घुप्प अँधेरे में दाल दी रूह अपनी
बस मशीनी दिमाग बन सा गया
भूल गया वो कभी इस जहाँ में भी था
अब तो 'जरुरत' ही सांसो की वजह थी उसकी
कई दिनों से नहीं देखा उसने अफताब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।।


जब वो लौटेगा अपनी कागज़ी दुनिया में
घरवाले उसे फिरसे फ़रार समझेंगे
ये जो दोनों जहाँ में फासले से हैं
क्या पता सिमटेंगे कभी या कि नहीं
बना गया है इन दूरियों को बेहिसाब कोई।
फरार था वो दिनों से महीनो से।।


आज फिर कागज से दोस्ती की उसने
अपने अरमां वो कोरे पे लिखता जायेगा
शायद फिर से फरार होना पड़े
या फिर नज़रबंद कर दे ज़मानेवाले
या वो खुद ही लगा ले नया हिजाब कोई।
फ़रार है वो दिनों से महीनो से।।


this gazal is about the inner conflict of an artist.

he has to choose between his art and work

between his interest and responsibility

between his own choice and of family....

एक प्रेम कहानी - a very simple love story


एक प्रेम कहानी - a very simple love story.

[a work of complete fiction, any resemblance is mere a coincident]

         - Dr. Govind Madhaw

आज बारिश के बाद मौसम ने अजब रुख लिया है। सर्दियों में होनेवाली ये बेमौसमी बारिश और दिल में यादों की दहकती आग।

       शाम से बेचैनी महसूस हो रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेचैनी की वजह क्या है। मगर जब रांची से मेरे दोस्त गोविन्द ने फोन कर उसका जिक्र किया तो समझ में आया। अवचेतन मन उसकी कमी की टीस महसूस कर रहा था। मगर बाहरी मन उसे जबरदस्ती दरकिनार कर आस-पास के वातावरण में अपनी बेचैनी का कोई और कारण  खोज रहा था।


"वो" - चली गयी। मजबूरन। रुक जाती तो क्या अच्छा न होता। कितना अच्छा होता कि हम साथ फिर बैठकर बालकनी में बारिश का मजा लेते। चाय की चुश्कियो के साथ। वो हर बूँद पे कोई न कोई नयी बात कह जाती- मगर मैं तो उसके चेहरे के बदलते भाव को ही पढता रह जाता।वो न जाने किस बात पे हंस रही होती, मुझे खबर कहाँ। मैं तो बस उसकी हंसी को ही निहारता रह जाता। और फिर  जब वो टोक देती मुझे -"कहाँ खो गए इंजिनियर साहब? मैं तो यहीं हूँ?" तो मैं जान बूझ कर कोई बहाना बना देता -झूठा ही, वो भी आसानी से पकड़ा जा सकने वाला।वो समझ कर भी अनजान बनती और फिर खिलखिलाती  हंसी ......अचानक बिजली कडकती  और डर कर वो मेरा हाथ पकड़ लेती ... और अजब सी बिजली मेरे ज़ेहन में भी कड़कती। ओह ...ये ख्वाब भी न ....मैंने अपने महत्वाकांक्षी ख्यालों को झटकते हुए किचेन  का रुख किया।


शाम 7 बजने को है। office से आकर तो ऐसे ही  ख्यालों में गुम  रहा। अब खाने पीने का भी कुछ इंतज़ाम किया जाए। क्या करू, पहले चाय बना लूं क्या? चाय - ओह इस चाय से भी तो मुई कई यादें जुड़ी  हुई हैं उसकी  .....किस किस से पीछा छुड़ाउंगा। उसने चाय  पे बुलाया था मुझे अपने घर। उसके परिवार वाले सब जानते थे मुझे। मैं उस  hydroelectric project का इंजिनियर था। और उसके पापा वहीँ मेरे नीचे काम करते थे। पूरी कोलोनी में मेरा नाम जाना पहचाना था, हालाँकि मेरी उम्र कम होने के कारण  रुतबा थोडा कम था मेरा। घर साधारण था उसका। मगर उसका कमरा सलीके से सजाया हुआ था जहाँ मुझे चाय के बाद ले जाया गया। खिड़की के ऊपर टंगा हुआ था photo-frame और उसके बचपन की तस्वीर लगी थी उसमे। इस तस्वीर पे कई बार हंस चुके थे हम दोनों। और इसके एक कोने पे पेंसिल से चित्रकारी कर दी थी मैंने। उसने इस छेड़खानी  को भी संजोकर रखा था। मेज पर उसीका बनाया गया table cloth लगा हुआ था, बिलकुल वैसा ही जैसा की उसने मुझे gift किया था। हाय  रे उसका भोला मन। और दरवाजे के पीछे देखकर तो मैं दंग  ही रह गया। मेरी दी हुई पहली greeting card. उसमे मैंने किसी का नाम नहीं लिखा था। उस समय मैं इस रिश्ते को लेकर ज्यादा serious नहीं था, इसलिए बस लिख दिया था -" to my friend ". उसने "special" खुद ही जोड़ दिया था। "धत पागल" - मैं मन ही मन सोच उठा। हाँ यही तो अदा थी उसकी। हर बात पे शर्माते हुए कह पड़ती थी - "धत पागल". 


पहली बार उसने अपनी भतीजी के हाथों एक गुलाब भेजा था। करीब 3-4 साल की होगी उसकी भतीजी। मैं अचरज में पड़  गया था, आखिर कौन है जिसने मेरे लिए गुलाब भेजा है। क्योकि मुझे लगता था कि पढने -लिखने के बाद मुझे नौकरी तो मिल गयी है पर प्यार-इश्क ये सब मेरे बस की बात नहीं। ऐसा नहीं है कि लडकियों के सपने मैं नहीं देखता था- पर अपनी below average look और  co-curricular activity zero  होने ले कारण  inferiority complex आते थे मन में। सबसे ज्यादा बुरा तो तब लगा था जब रांची में पढ़ते समय सामने वाले घर की एक लड़की , जो मुझे थोड़ी अच्छी लगती थी, मेरे दोस्त से हंस-हंस कर बात करने लग गयी थी। धीरे-धीरे phone no. exchange हुए, और  एक दिन दोनों पहाड़ी मंदिर जाने का प्लान बना रहे थे मेरे सामने ही।  मैं मन ही मन कुंठित होता था ये सोचकर कि आखिर इतनी कमी क्यों दी भगवान ने मेरे में, कि जिस लड़की के छत पे आने का मैं घंटो इंतज़ार करता था अपना tuition छोड़कर, उसने मुझे आज तक ढंग से देखा तक नहीं। खैर एक वो दिन था और आज ... एक लड़की ने गुलाब भेजा है मेरे लिए। फिर ख्याल आया कि शायद किसी दोस्त की साजिश हो। इस से पहले भी कई दोस्त मेरे excess sensitive nature का मजाक उड़ा चुके थे। कई बार तो नए मोबाइल से प्यार भरा sms कर के उकसाते थे मुझे, और बाद में पोल खुलने पे ...हलाकि सब दोस्त ही थे मेरे।


ओह। हाथ जल गया , दूध उबाल लेने लग गया था. मैं तो यादों में ही खोया रह गया। हाथ पे पट्टी लगा कर चाय ख़त्म की किसी तरह से। फिर देखा राशन का सामान नहीं है। कई दिनों से खुद से बहाना कर कर के टाल रहा था, मगर आज सारे resource ख़त्म थे, समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है। list बनाकर चल पड़ा दूकान की ओर। दरअसल दूकान जाने के लिए उसके घर से होकर गुजरना पड़ता था। और अब उस खाली घर को देखने की हिम्मत नहीं है मुझमें। उसका घर वीरान पड़ा है। घर के बाहर रंगोली बनाई  थी उसने इस दिवाली। ढेर सारे डिजाइनों में से एक चुनना पड़ा था मुझे- आज बड़ा फीका लग रहा है रंगोली का रंग। सिवाय उसके एक फूल के जिसमे उसने अपने नाम का पहला अक्षर लिखा था - "P" यानि पायल। सच पायल की ही तरह खनकती रहती थी वो हरदम। जब वो यहाँ थी-दिनभर में कई बार दूकान के बहाने उधर से गुजरता था मैं और वो घर के बाहर के चबूतरे पर बैठी रहती थी मुझे देखने के लिए।


उस दिन भी तो वो अपनी सहेली के साथ घर के बाहर बैठी थी जब उसकी भतीजी ने गुलाब दिया था मुझे । मैंने एकदम से नहीं पहचाना था उसे। मुझे लगता था कि उसकी सहेली ने गुलाब भेजा है। फिर एक दिन छोटी  लड़की गुलाब के साथ एक कागज भी लेकर आई थी जिसपर लिखा था-" अगर गुलाब पसंद हो तो इस कागज के पीछे अपना मोबाइल नंबर लिख देने की गलती करेंगे क्या? मेरे गुलाब भेजने की गलती के बदले में?" और न जाने मुझे क्या हुआ मैंने अपना दोनों नंबर  लिख दिया बिना कुछ सोचे समझे । और फिर रात में मेरे मोबाइल का दिल गाने लगा- मंगल भवन अमंगल .......मेरे जैसे धार्मिक लोगो का पसंदिदा रिंग टोन। 


"कौन बोल रहा है?"


"रहा नहीं, बोल रही है।"


" हाँ हाँ, कौन बोल रही है?"


" भूतनी। भूतनी ही तो इतनी रात में फोन करेगी। क्यों डर नहीं लग रहा?"


"हाँ। डर तो लग रहा है, पर सोच रहा हूँ इस भूतनी को गुलाब भेजने की क्या जरूरत पड़  गयी?"


" क्यों? भूतनियो का सिर्फ शरीर मरता है इंजिनियर साहब, दिल नहीं।"  

            - और फिर खनकती हंसी के साथ फोन कट गया था। return call किया तो  miss भूतनी  का नंबर  switch off. वाह रे। न नाम , न जान पहचान . मैंने उसका नाम भी 'miss भूतनी' ही  save कर दिया मेरे  mobile में। बाद में जब उसे पता चला था तो खूब हंसी थी। आज भी उसका वही नाम है मेरे मोबाइल में, बस एक फर्क है- उसने खुद बदलाव किया था -" आपकी भूतनी".

और फिर तो हर रात मुझे अपनी इस भूतनी के फोन का इंतज़ार रहता था। रोज ऑफिस से जल्दी आना - जल्दी खाना पीना - और फिर इंतज़ार। वो अब धीमी आवाज़ में बात करती थी क्योकि परिवार के साथ रहती थी न। हम अपने प्रेमालाप को 'फुसफुसी' कहते थे।


रात रात भर फोन पे बात करता तो ऑफिस में नींद तो आती ही। मेरे साथ वाले पूछ भी देते -"residential  quarter  ठीक नहीं है क्या जो रात में नींद पूरी नहीं हो रही है? बोलो तो बदलवा दूं।" मेरा दिल जोर से धड़क उठा था उस अनजाने डर से। मैंने उनकी बात काट दी। और फिर तब से ऑफिस में ही चुप-छुप कर झपकियाँ लेता था। बाकी लोगों  की फुसफुसाहट  मेरे कानो में पड़ती तो मुझे अपनी फुसफुसी की याद आ जाती और उस झपकी में ही मैं सपने देखने लग जाता उस गुलाब भेजने वाली लड़की के। मगर सपने में उसका चेहरा नहीं दीखता था सिर्फ आवाज़ गूंजती थी।क्योंकि अबतक मैंने उसे देखा नहीं था। रोज उसके घर के सामने से गुजरता था मगर घर के बाहर चबूतरे पे छोटी लड़की के अलावा 3-4 लड़कियां और रहती थी।अब इनमे से मेरी भूतनी कौन है ये जानने में मुझे तीन-चार महीने लग गए- जब वो badminton खेल रही थी बाहर में, और उसने फोन कर पर पूछा कि  -" मैं कैसा खेल रही थी?" मैं जान कर खुश था। अब सपने में उसका चेहरा भी आने लगा था। night-talk  की duration बढ़ने लगी। रोज रेकोर्ड टूटते - आज 2 बजे तक, आज 4 बजे तक, आज सारी रात। हालाँकि अगर कोई पूछे कि बात क्या हुई इतने देर तो मैं कुछ भी ना बता सकता। सच में नहीं पता कि हम रात भर बात क्या करते थे- मगर जो भी हो- बात करना अच्छा लगता था।


दूकान पे दुकानदार ने पुछा -"क्या बात है अमित बाबु? बहुत दिनों के बाद आये सामान लेने? लाइए झोला। सामान डाल देते हैं। अरे। ये तो मेहता जी का झोला है। आपको बहुत मानते थे न,शायद इसलिए आपको देकर चले गए ....पूरा कोलोनी उदास  है उनके जाने से। मगर retirement के बाद तो हर कोई अपनी माटी-अपने देश के मोह में बांध ही जाता है। हालाँकि शराबी थे वो मगर फिर भी मिलनसार आदमी थे। उनकी बच्चिया पायल- वो भी बड़ा नटखट थी-....बचपन से ही नाना नाना कहती थी। उसे बड़ा पसंद था ये 'आम कूट  चूरन '....."

 और जैसे कोई मेरे नसों को झकझोर गया हो। मैंने भी एक 'आम कूट चूरन' ली , झोला उठा कर वापस आने लगा। सच में कितनी नटखट थी वो, बच्ची ही  थी या शायद बड़ी होकर भी अपने बचपन को सहेजकर रही हुई थी। मगर दूकानदार ने मेहताजी का जिक्र क्यों किया? कहीं इसे भी हमारे रिश्ते की भनक तो नहीं थी ..और शायद इसलिए मेरी थाह लेना चाह रहा हो? नहीं नहीं। मैंने खुद को ढाढस बंधाया .... शायद झोले को पहचानता होगा- यह झोला पायल का बनाया हुआ था जिसपे बड़ी  खुबसूरत  नक्काशी की थी उसने। दो जोड़ी बनायीं थी।एक मुझे भी दिया था। आज पहली बार झोले को निकला था। हालाँकि मुझे  अपनी इस छोटी गलती पे पछतावा हुआ। पर दुकानदार ने पायल के बचपन के जो किस्से सुनाये - मन के एक कोने  में सुकून का अहसास हुआ। वो नहीं है पर उसकी यादे जुडी हुई है कोलोनी के चप्पे चप्पे से।

"बड़े अजीब आदमी हो आप? मेरा बर्थडे है आज ,और आपने न तो कोई गिफ्ट दिया, न ही हैप्पी बर्थडे बोला और न ही मिलने का कोई प्लान बनाया, कम से कम मिलना तो चाहिए न हमें।"

उस दिन मैं झेप गया था। सच में गलती तो मेरी थी। पर तभी याद आया कि उसने आजतक कभी अपना बर्थडे तो बताया ही नहीं मुझे? तो भला मैं कैसे ...

"वाह जी। इतना भी नहीं पता कर सकते ?"


"करना पड़ेगा। मुझे नहीं पता कैसे? पर करना पड़ेगा। और हाँ आज मेरा बर्थडे नहीं है, ये तो ऐसे ही वार्निंग थी। और हाँ, गिफ्ट के साथ मिलना भी पड़ेगा। कब -कहाँ -कैसे- मैं नहीं जानती। समझे कि नहीं?"


बड़ी मुश्किल आन पड़ी थी। क्या करूँ? क्या जुगत लगाऊं?काफी जद्दोजहद के बाद एक आईडिया आया-उसने बताया था कि उसकी एक सहेली भी engaged है , i mean committed है। हाँ,पायल से बात करते करते कोलोनी के लगभग सभी लड़कियों के  affairs की जानकारी वो भी विस्तारपुर्वक मिल जाती थी मुझे। इतना ही नहीं, औरतों के नाजायज रिश्तो की खबर और पुख्ता सबूत तक मेरे पास थे। कसम से ऐसी बातें तो एक बार सुनकर ही याद हो जाती है भले ही पढ़ी हुई बात न याद रहे। आखिर में उसकी सहेली जो की मेरे गार्ड के बेटे के साथ फंसी हुई थी , को भरोसे में लेकर उसका बर्थडे  पता करना पड़ा।

डेट का तो इंतज़ाम हो गया था, अब बारी गिफ्ट की थी। पहली बार गिफ्ट खरीदना मुश्किल काम लग रहा था मुझे। इसके पहले तो बस दूकान में जाना होता था और-" भैया कोई सा गिफ्ट दे दीजिये, इतनी उम्र के ....के लिए, इतने दाम का,....." और बस बिना देखे ही पैक हो जाता था।लेबल लगा और काम ख़त्म।मगर इस बार परेशानी महसूस कर रहा था मैं। क्या ख़रीदा जाए? एक शो-पीस पर नज़र पड़ी- एक कपल आलिंगनबाद्ध  था। देखकर मन रोमांचित हो उठा था। मगर फिर ख्याल आया की किसी ने देख लिया तो/ दर गया था मैं। कभी कभी रिश्तों को छुपाना भी adventurous काम की तरह मजा देता है। फिर नजर पड़ी एक टेडी-बियर पे। हाँ यही सही है। वह रोज इसे सीने से लगा कर रखेगी। रूमानियत नस नस पे हावी हो रहा था मेरे।मगर वहीँ एक और लड़का जब टेडी-बियर खरीदने लगा तो मुझे अपना ख्याल बदलनापड़ा था। क्यों की मैं औरो से हटकर कुछ अलग करना चाहता था। परेशानी बढती जा रही थी। इस छोटे शहर में भी आशिकों की भरमार है, वाह । प्यार  हर ज़गह मौजूद होता है। और आखिर में फोटो-फ्रेम ....वही जो उसकी दीवार पे लगा था। हालाँकि मैंने सोचा था की बाद में हम दोनों की साथ वाली तस्वीर लगेगी इसमें। लगी भी थी। उसने दिखाया था।उस बचपन वाली तस्वीर के पीछे। मगर फ्रेम में तस्वीर के पीछे छुपकर हमारी तस्वीर लगाने का क्या फंडा था मुझे आज तक नहीं समझ में आया  ......

अब टेंशन था तो मिलने की जगह decide करना। 'डाल्टनगंज ' जैसा छोटा शहर। न रॉक गार्डेन , न नक्षत्र वन , न ही पहाड़ी मंदिर। अब क्या किया जाये।marketing complex भी काफी भीड़ वाले थे। restaurant के नाम पर 'किनारा' और 'मधुवन', मगर लड़की के साथ जाना अभीतक यहाँ के  कल्चर में शामिल नहीं था। लोग अजीब तरीके से घूरते थे। और फिर जान-पहचान वालो के भी मिल जाने का दर रहता था। और आखिर में वही फ़िल्मी आईडिया काम आया था। फिल्म देखने का। 'नवकेतन' में एक पुरानी सी फिल्म लगी थी। बस सेफ प्लेस था। और हम पहली बार इस तरह मिले। 

फिर सरस्वती पूजा का समय आया था। चंदा लेने वालो में कुछ वो लड़के भी थे जो "छैला इंजिनियर " और "परदेशी प्रतियोगी प्रेमी " समझकर मुझे पीटने में शामिल थे। मौके को भांपते हुए मैंने 5001/- रुपये का चंदा दिया। सब अकचका कर रह गए थे। फिर तो मैं बेफिक्र होकर पूजा में भाग ले रहा था। काफी ताबज्जोह दे रहे थे सब लड़के। पैसे की माया का लाइव -डेमो देखकर दुनिया की सच्चाई समझने में मदद मिली थी। कोलोनी में पूजा का आयोजन हुआ था। वो भी आई थी।पूजा में बैठकर भी मैं अन्दर से गुदगुदी महसूस कर रहा था। सॉरी सरस्वती मदर .......


मूर्ति विसर्जन के दिन तो हद हो गयी थी। बैंड बाजे के साथ लड़के नाच रहे थे। मोहल्ले की छतो से लड़कियां देख रही थी। लड़के भी इम्प्रेस करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाह रहे थे। कोई नागिन के स्टेप पे मस्त था तो कोई अपना बॉडी दिखने में। कुछ शराफत का ढोंग रचे साइड में खड़े होकर,दूसरों की बचकानी हरकतों पे मुस्कुराते हुए खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश में लगे थे। और कुछ ज़बरदस्ती ही सामाजिक होकर प्रसाद वितरण कर रहे थे। और मैं? मन ही मन खुश था। " आज रात इन सब की बेवकूफी की बातें होंगी हमारे बीच फोन पे।" मुझे लग रहा था-" मैं तो बिना दौड़े ही रेस  जीत चूका हूँ, ये बेचारे बेकार मेहनत  कर रहे हैं।" दया मिश्रित व्यंग वाली मुस्कराहट छुपाये नहीं छुप रही थी मेरे चेहरे से।



   और फिर होली थी। मैं अपने गाँव में था। उससे दूर। गाँव में माहोल जमा हुआ था। हर रात किसी न किसी के घर होली गाने का कार्यक्रम होता। लोग जमा होते थे। उम्र से भले न सही पर नौकरी के कारन अब मैं भी अपने गाँव का सम्माननिय व्यक्ति बन चूका था- सो लगभग हर रात किसी न किसी घर से निमंत्रण मिलना ही था। होली गाने वालों में एक 'महादेव बाबा' सबसे आगे रहते थे। उम्र करीब 55 साल की होगी, उनकी पत्नी का स्वर्गवास 10 साल पहले हुआ था। और उनका पसंदीदा गाना था-' मोरे बलमा गए परदेश की फगुआ कैसे कटे ......". बार बार बच्चे उन्हें ललकारते थे-" बाबा। उ  वाला गावल जाये न। ओकर बिना तो होली के मजे नइखे .....।" पहले मैं भी लुत्फ़ लिया करता था इन शैतानियों का। मगर इस बार उनकी आवाज़ में दर्द मह्सुस कर रहा था मैं। न जाने क्यों उनकी आँखों में विरह-वेदना साफ़ दिख रही थी। हालाँकि बाकि लोग इस बार भी खुश थे। जैसा की पहले हम सन रहते थे। ये परिवर्तन उन की आवाज़ में था या मेरी सोच में ......शायद मुझ में ही। आखिर मैं खुद के विरह-दर्द को हर जगह मौजूद होता देख प् रहा था। सच में अपने दर्द की अभिव्यक्ति का ऐसा साधन कही और नसीब न था। सब खुश थे- मैं भी मजा ले रहा था -अपने दर्द का और महादेव बाबा भी। प्रेम से कोई भी अछूता नहीं।



घर में रहते हुए बार बार फोन लेकर बहार जाना- कमजोर नेटवर्क का बहाना कर के, मोबाइल की बैटरी ख़त्म होने पे कुछ ज्यादा ही चिंतित होना, रात में अकेले कमरे में सोना, किसी को भी अपना मोबाइल न देना, सब से बाते करते करते कहीं खो जाना ....इत्यादि।ये सब परिवर्तन एकदम नए थे। और अचानक भी। भलेही मैं समझ रहा था कि कोई नोटिस नहीं कर रहा है मगर मुझे छोड़कर सब समझ रहे थे। सब को किस्म किस्म की चिंता हो रही थी। आखिर दीदी पूछ  ही बैठी- क्या बात है? उनके पूछने का तरीका इतना  Supportive था की मैं खुद को रोक न सका।और प्रेमियों को तो मौका चाहिए ....कई दिनों की सीने में बंद हसरत ....की चिल्ला चिल्ला कर सब को बता दूं ....की मुझे प्यार हो गे है ....उस दिन पूरी हो गयी।मगर ये अच्छा नहीं हुआ था। घर में सब को पता चल गया था।, मगर किसी ने कुछ भी नहीं पुछा , सिवाय माँ के जिसने लौटते वक़्त कहा था -"पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन्ने का मतलब ये नहीं होता की आदमी परिवार की इज्ज़त का भी ख्याल न करे। वैसे मुझे पूरा यकीं है तुम पर।" ये इशारो में क्या क्या न कह दिया था उसने। ये OVER-TRUST  दिखावा था/ सच था/ या चाल थी  ......मैं सोचते रह गया था कई दिनों तक।ये एकदम वैसा ही था जैसा पायल ने घर आते वक़्त कहा था-" घर जाकर मुझे भूल मत जाइएगा, बदल मत जाइएगा। वैसे मुझे पूरा भरोसा है आप पर।"


दुविधा ....असमंजस ....PUZZLE .....समस्या ...ऐसे ही नकारात्मक शब्द नाचने लगे थे मेरी आँखों पे।रश्ते  भर, ऑटो में, बस में, ट्रेन में ....पैदल  सामान उठाकर चलते समय ...तब तक, जब तक मैंने उसे दुबारा नहीं देख लिया था। वो इंतज़ार कर रही थी कोलोनी जाने के राश्ते पे ही, अपनी भतीजी के साथ।उसे स्कूल से लेकर आना तो एक बहाना था, ये समझते मुझे देर नहीं लगी थी। उसे देखते ही मेरी परेशानियाँ ख़त्म।कैसा चमत्कार है ...कोई जादू ही है ये प्यार भी।


और फिर उसके घर में भी पता चल गया था। कोलोनी के जलनखोर लड़कों ने उसके पापा यानि मेहता जी को शराब पिला कर सबकुछ बता दिया था। मगर आश्चर्यजनक रूप से वे सब खुश थे। और मेरी दुविधा बढती जा रही थी। मेहता जी ने एक दिन कहा था-" पायल का बी ए का एक्जाम है। अगर शाम में या कभी भी आपके पास टाइम है तो उसे थोडा अंग्रेजी पढ़ा दीजियेगा क्या? .."..मुझे समझ में नहीं आया कि मैं खुश हो जाऊं या डरूं। पायल से मिलने की समस्या का इस से अच्छा उपाय कुछ भी नहीं हो सकता था। मगर मेरे मन में शक के बीज पड़ गए थे। कहीं मेहता जी ने ही तो पायल को नहीं उकसाया था मुझे प्यार में फंसा कर शादी करने के लिए। क्योकि ऐसे किस्से मैं अपने दोस्तों से सुन चूका था।



अब तो सप्ताह के दो तीन शामें  पायल के ही घर में कटती । प्यारी इतनी लगने लगी थी की 'शक' गायब हो जाता मेरे मन से। हमारी बातों के विषय पास-पड़ोस से निकल कर फ्यूचर प्लानिंग तक पहुँच चुके थे। पर अचानक उसने टोक दिया था -"मुझे पता है आप एक दिन छोड़ दोगे मुझे। मैं आपके लायक नहीं हूँ न। उम्र में भी कम हूँ, जात में भी कम हूँ, औकात में भी कम हूँ। आप मान भी गए तो क्या आपके घर वाले राज़ी होंगे? मेरी तरफ से निश्चिंत रहिये। मैं तो घरवालों को मन चुकी हूँ। बड़ी दीदी की शादी में सारी ज़मीन बेचनी पड़ी थी, तो मेरे लिए दहेज़ देना तो पापा के बस की बात नहीं। और इसलिए मैं जिससे मन उससे शादी कर सकती हूँ .....लेकिन समय रहते ....वरना फिर वो जिससे चाहें , बिना न नुकुर किये मुझे बंधना पड़ेगा।"


"तो क्या इसलिए मुझे अपने चक्कर  में फंसाया है तुमने?"


"मुझे पता है कि आप यही सोचेंगे। वैसे भी मेरी बात आपको साजिश लगती है।मगर आप ही बताइए की अगर माँ बाप प्यार का साथ दे दें , तो प्यार झूठा हो गया क्या? अगर मेरे माँ बाप विरोध नहीं कर रहे तो इसका मतलब ये  नहीं की मेरा प्यार झूठा या फरेब है। उनका विरोध नहीं करना उनकी खुली मानसिकता नहीं बल्कि मजबूरी है मिस्टर। .......वैसे एक बात और है कि  कौन  माँ बाप नहीं चाहेगा की उसकी बेटी संपन्न परिवार में जाए?....आप मन भी कर देंगे तो मैं आप पर कोई दबाव नहीं डालूंगी .....मगर याद रखियेगा, मैं किसी और के साथ खुश नहीं रह पाऊँगी ...."


हालाँकि उसकी दलीलों से मैं कमजोर पड़  गया था और आंसुओं को रोकना मुश्किल था ....ढेर सारे वादे मुह से निकलने लगे थे जो भले स्थायी न थे मगर तत्काल दिल  को ठंढक पहुंचाने के लिए काफी थे। कभी कभी झूठी बातें भी खुशनूमा एफ्फेक्ट डालती है और तर्कसंगत भी। भले उसके प्यार पे शक हो गया  था मुझे मगर फिर भी "उसका किसी और के साथ जाना" मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। मैं प्यार करूँ या न करूँ, वो मुझे प्यार करे या न करे, मैं उसे किसी और के साथ नहीं देख सकता। ये over-possessiveness ... . . ....अजीब छ टपटी और बेचैनी .....


"बस और दो महीने। फिर पापा की नौकरी ख़त्म। हम चले जायेंगे अपने गाँव।फिर आपको सताने वाला कोई नहीं होगा। वैसे भी बहूत परेशां करते हैं न हम। आपका बहूत समय बर्बाद किया है मैंने। .....मगर एक request है ....क्या ये आखिरी दो महीने हम पहले की तरह प्यार से बिता सकते हैं? बिना आपके शक के? future  में क्या होगा मुझे नहीं पता मगर present  में खुश रहकर future के लिए मीठी यादों को तो बटोर जा सकता है ना? क्या ये मुश्किल है .....?"



फिर मुझे एक चिट्ठी मिली।

"छोडिये ना। बेकार में tension ले रहे हैं आप। वक़्त है ज़ख्म को भर देता है, समय के थपेड़े यादों को धुंधला कर ही देते हैं। जिस फैसले पर बाद में आपको पछतावा हो उसकी वजह मैं नहीं बनना चाहती। और फिर प्यार का अंतिम aim शादी ही तो नहीं है ना। जरा सोचिये -अगर शादी के बाद भी आपके मन से शक न गया तो क्या हम खुश रह पाएंगे? अगर आपको अपने परिवार से अलग होना पड़े तो क्या मुझे अच्छा लगेगा? फिर तो आप मुझसे भी नफरत करने  लगेंगे, जो मैं कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाउंगी। .....और फिर ठीक ही तो कहा गया है ......

'वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन


  उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
''
"

               .......................



वो चली गयी। मैं कमजोर पड़ गया था। परम्पराओं और जातिवादी बन्धनों के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं कर सका। उसका प्यार झूठा नहीं था। मेरा शक बेवजह था। मैं खुद को कोस रहा था। अब हमारी बात नहीं हो पाती ....उसके गाँव में मोबाइल का नेटवर्क नहीं है। STD बूथ से ज्यादा बात करना संभव नहीं है। खुद को दिलासा देने के लिए कई तर्क सोचता हूँ।" चलो परिवार की उम्मीद तो नहीं टूटी।"


आज बारिश ने जैसे यादों के अंगारों को हवा दे दी है। उसकी आखिरी चिट्ठी मेरे आंसुओं से भीग गयी है। मोबाइल में कैद उसकी ढेर साड़ी तस्वीरों को बार बार चूमने का मन कर रहा है। बारिश तेज है, खिड़की से झोंके  अन्दर तक आ रहे हैं- और मैं भीगता हुआ उसके खाली घर की तरफ देख रहा हूँ। आंसू बारिश में एकाकार हो रहा है। काश की वो होती यहीं कहीं। काश  की मैं माफ़ी मांग सकता अपने शक के लिए।


बिजली कड़क रही है. और उसकी यादों को और मजबूत करते हुए बार बार बस यही सवाल पूछ रही है ---


" सारे लड़कों को सुन्दर लड़की से ही प्यार होता है। लड़का एक लड़की की सुन्दरता की तारीफ में क्या क्या नहीं करता। तो अगर एक लड़की ने ठीक उसी तरह एक पैसे वाले लड़के  से प्यार कर ही लिया तो इसमें क्या बुराई है।"


मगर मर्दों की सोच, पुरुष प्रधान समाज, जाती वादी पुराणी सोच, परिवार, ............न जाने क्या क्या ...?????????????????????????????????????????????????????????