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Sunday, November 6, 2016

पटाखे और प्रदुषण :बागोमेंबहारहै?

पटाखे और प्रदुषण : संभव है अगले कुछ दिनों में यह टॉपिक स्कूलों में निबंध का विषय बन जाये. जाहिर सी बात है लोगो के नजरिये अलग अलग होंगे और फिर उनके बच्चो के नजरिये भी उसी तरह के होंगे. कुछ कान्वेंट और मदरसे वाले स्कूलों में टॉपिक जरा बदला सा होगा- 'दिवाली और प्रदुषण'. वहीँ कुछ संघी स्कूलों में 'दिवाली और पटाखे' सरीखे टॉपिक पे वाद-विवाद के आयोजन भी होंगे जिसमे कुछ पक्षधर होंगे तो कुछ रविश कुमार के फोलोवेर्स.
अभी अभी दिल्ली से लौटा हूँ. और इस सच को अच्छी तरह से महसूस कर के आया हूँ कि वाकई दिवाली की रात लोगों ने हवाओं में खूब जहर घोला है. इतना जहर कि उस रात के बाद से दिल्ली की फिजाओं में बस धुआं और अँधेरा बिखरा है. जाने कैसी रौशनी फैला रहे थे लोग. प्रकाश पर्व में कब 'धुआं और ध्वनि' सम्मिलित हो गए यह तो इतिहासकारों के शोध का प्रश्न है- अलग बात है इतिहासकारों की भी आजकल जमात होती है,कुछ कम्मुनिस्ट तो कुछ सेक्युलर और कुछ देशभक्त.
खैर सिर्फ सवाल उठाना मेरा मकसद नहीं है, सिर्फ सवाल करने के लिए तो कई सारे लोग आपके इर्द गिर्द हैं. जिनका काम हर एक सेकंड सिर्फ सवाल करना है. और सवाल न मिले तो यह भी एक सवाल बन जाता है. और फिर आता है- #बागोमेंबहारहै?
आइये न हम इन सवालों के जवाब ढूंढे? हां! अगर आप सच में बागो और बहारो के शौकीन हैं, तो आइये न दो कदम चलते हैं साथ साथ...जवाब तलाशने के लिए.
१.    #पटाखे: हमें इनकी क्या जरुरत है? बेमतलब अचानक से चिल्ला देने वाले, गम हो या ख़ुशी- बस एक ही तरह के आवाज़ निकलने वाले ये क्या हैं? ख़ुशी तो हमारे नज़रिए में होती है. हमारे इतिहासों में तो धमाकों का जिक्र बस युद्ध-कथाओं में मिलता है. ख़ुशी के आयोजनों को मिनी-युद्ध की शक्ल देनेवाले, हादसों को आमंत्रित करने वाले, मेरे जैसे कमजोर-दिल वालों को डरपोक साबित कर हंसी का पात्र बना देने वाले, किसानो के इस देश में पुवालो-खलिहानों में चिंगारी देकर सब बर्बाद कर देने वाले,हवाओं में जहर घोलने वाले, बाल-श्रमिकों के सबसे लम्बी फौज खड़ी  करने वाले, प्रदुषण जैसे शब्द को हज़ार गुना महिमामंडित करने वाले, भारत-पाक क्रिकेट में देशभक्ति और देशद्रोह वाले मोहल्ले का पैमाना बनने वाले, न्यू-इयर में चाइना और लन्दन से तथा क्रिसमस में रोम से आतिशबाजी-कलाबाजी की तरह लाइव होनेवाले ये!!पटाखे क्या हमारे लिए इतना जरुरी हैं?
 क्यों न सरकार और समाज के द्वारा पटाखों और इसी की तरह बेमतलब के शोर करने वालो और ध्वनि-धुआं-ध्यान-और हमारी सोच को प्रदूषित करने वाली हर चीज़ पे बैन लगा दिया जाए. जैसे कि कुछ राज्यों में शराब पे बंदी है, क्यों न पुरे देश में पटाखों पे ही पाबन्दी हो. #पटाखोंपेपाबन्दी
२. #स्मोकिंग: दिवाली और प्रदुषण में फिलोसोफी झाड़ते लोगो को सुना. दिल्ली में ही सुना. चाय पे चर्चा करते देश के होनहारो को भी सुना और उनके  सामाजिक सरोकारों को भी. मगर ये मोदी वाली चाय पे चर्चा नहीं थी. ये थी #चाय सुट्टे पे चर्चा . जितना प्रदुषण ये पटाखे से कम करना चाह रहे थे, इनकी चर्चा लम्बी होती जा रही थी और उतनी ही बढती जा रही थी सुट्टे/सीगेरेट के खपत. यकीं मानिये दस मिनट में माहौल ऐसा कि मुझे मास्क लगाना पड़ गया. और मेरी सवाल पूछने के लिए ही सही मगर आवाज़ निकालने की हिम्मत नहीं हुई. अस्थमा ने भी मौका देखकर अपना अनशन तोड़ लिया था.
३.#ट्रैफिक: वो अमीरी ही क्या जो दुनिया को ना दिखे. दिल्ली में मर्सिडीज़, पोर्स्च, स्कोडा, bmw और भी कई तरह के ब्रांड ....सब रोड में चहलकदमी करते हैं...मगर उनमे सवारी सिर्फ एक. बाकी की सीट खाली. बाइक से ज्यादा कार यही पे दीखते हैं. हमारे रांची में तो यह अनुपात उल्टा है. मतलब सिर्फ शौक और दिखावे के लिए अपने पिछवाड़े से लगातार हवाओं में धुआं छोड़ने वाली ये आदत क्यों? क्या मेट्रो-बस-पब्लिक ट्रांसपोर्ट और साइकिल जैसे option पे विचार नहीं होना  चाहिए. सोचिये?

४. बाकी की सवालों को लिखने का एक ही मतलब है की आप बिना पढ़े उसे या तो like करेंगे या discard. अतः अपने शब्द बर्बाद कर के वैचारिक प्रदुषण फैलाने के मेरा कोई इरादा नहीं है. एक और आग्रह है उनलोगों से जो फेसबुक पे एक बार में 20-25 photo अपलोड करते है, जिनमे एक ही photo के तीन-चार नमूने होते हैं. तो जनाब इन तस्वीरों को कोई नहीं देखता, क्योंकि ना तो किसी के पास बेकार समय है ,ना ही डाटा....यह बल्क-अपलोड भी एक तरह का प्रदुषण ही है.#photopollution, #डाटाpollution.

Thursday, October 13, 2016

RIMSonian's Oath

हर रिम्सोनियन का संकल्प!
मैं एक रिम्सोनियन हूँ.

रिम्स/RMCH से जुड़कर मेरा दूसरा जन्म हुआ है- क्यों कि अपने कर्तव्य को समझ लेना और उसे पूरा करने की क्षमता विकसित कर लेना- यही तो दूसरा जन्म है. रिम्स मेरे माँ-बाप की तरह है.

मुझे मेरी पहचान रिम्स ने दी है. रिम्स ने ही दिया है मुझे मेरे जीवन का रास्ता. स्कूल से निकलते ही न जाने कितने चौराहे आ गए थे मेरे सामने-मगर मेरा सौभाग्य! फिर मेरे नाम का सबसे प्रतिष्ठित हिस्सा भी यही से मिला मुझे. सच इस उपसर्ग के बिना मैं एक साधारण मनुष्य था- जिंदगी की अबूझ पहेलियों से एकदम अनजान.

रिम्स –मेरा परिवार है. सुख-दुःख, सफलता-विफलता और एकाकी-सामुदायिक हर तरह के पल को साझा किया है मैंने इसके साथ. यहीं मिले मुझे नायब रिश्ते जिनकी खुशबू से मेरे लम्हे महकते हैं. मेरी जिंदगी के सबसे बेशकीमती साल यही पे गुजरे.

नाम,योग्यता,प्रतिष्ठा,पुरस्कार,रिश्ते,यादें,जूनून,आदत,जरुरत और मोहब्बत: सब यही मिले मुझे. ऐसे खजानों से भरा समंदर है ये. इस समंदर ने अपनी बूंदों से न सिर्फ मुझ जैसे सीप में मोती भरा है, बल्कि मुझ जैसे कितने चमकते तारे इस संसार में बिखेरे हैं .इस आकाशगंगा के सितारे अपनी टिमटिमाहट से पूरी दुनिया में स्वास्थ्य की शीतलता बाँट रहे हैं.

झारखण्ड राज्य के निवासियों के स्वस्थ जीवन के लिए लगभग आधी सदी से दिन-रात-गर्मी-बरसात की परवाह किये बिना हमारा रिम्स लगा हुआ है. यह एक ऐसा बरगद है जिसकी छांव ने शीतलता प्रदान की है- राज्य के करोडो रोगियों को, जीवन विज्ञानियों को, सेवा-श्रधा रूपी नर्सों को, चिकित्सा के छात्रो-शिक्षको को और अपने कर्मचारियों को.

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रिम्स से जुड़ा हर व्यक्ति –रिम्स परिवार का हिस्सा है. रिम्स से जुड़कर हम गौरवान्वित होते हैं. रिम्स हमारी प्रतिष्ठा है.

आज हम सभी रिम्सोनियन ये संकल्प लेते हैं कि-

जैसे पूजते माँ-बाप को, रिम्स की आराधना में भी अपने सर को झुकायेंगे.
जब तक हमारी पहचान है, रिम्स के आन-बान-शान में अपनी साँस लुटाएंगे.
इस परिवार से कभी अलग ना होंगे , रिश्तो के तार मजबूत करते जायेंगे.
इस समन्दर की पवित्र-सजीव-विशाल लहरों की गूंज पूरी दुनिया को सुनायेंगे.
इस आकाशगंगा के सितारे हैं हम- पूरी दुनिया में जिंदगी की रौशनी फैलायेंगे.
इस बरगद को सींचते रहेंगे – और मानवता रूपी इसकी जड़ों को धरती के प्रेम-उदारता-निष्ठा-दया रूपी ह्रदय तक पहुंचाएंगे.

Tuesday, September 13, 2016

हिंदी के अवशेष



हिंदी दिवस है. आज हम लोग इसकी समाधि पे फूल चढ़ाएंगे.
फिर भूल जायेंगे.
आओ आओ ! तुमलोग भी आओ.
सब मिल के इसे मुर्दा साबित करने के आयोजन में शामिल हो जाओ.
क्या? इसकी सांस चल रही है!
यह जरुर किसी हिंदी-मीडियम स्कूल से पढ़े डॉक्टर की चाल है....
वो रहा कान्वेंट-स्कूल से निकला डॉक्टर-
"सी ब्रो! सी इज डेड न? इफ नोट देन डू something टू किल हर...फ़ास्ट ...फ़ास्ट.."
**********

हाँ भाई. हिंदी हमारी मातृभाषा है.
कुछ पिछड़े राज्यों की राजभाषा भी है.
मगर राष्ट्रभाषा?
यह कॉलम तो कब से खाली पडा हुआ है हमारे देश के संविधान में.
यकीन नहीं तो google कर के देख लो.
जी हाँ. भारत यानि इंडिया की राष्ट्रभाषा हिंदी नहीं है.
"तो कब तक हमें हमारी राष्ट्रभाषा मिलेगी?"
"जब हिंदी मध्यम स्कूल से पढ़ कर निकलने वाले लोग सिर्फ मजदूर तबके तक ही रह जायेंगे. मध्यम और उच्च वर्ग वाले परिवारों के बच्चे सिर्फ कान्वेंट स्कूल में ही भेजे जायेंगे. अंग्रेजी स्कूल से निकलने वाले छात्रो की संख्या 90 फीसदी हो जायेगी. हिंदी अखबार की जगह अंग्रेजी newspaper घर घर की शान बढ़ाएंगे और बॉलीवुड से भी अंग्रेजी फिल्मे बनने लगेंगी....तब!"
"मतलब अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा बनेगी?"
"आपको लगता है क्या कि बचे-खुचे हिन्दीभाषी भी अंग्रेजी के चमचे नहीं हैं?"
**********

  • नहीं नहीं आप बताइए कि अंग्रेजी जाने बिना आप क्या क्या कर सकते हैं?
  • कल को गए अगर आपको विदेश जाना पड़ा तो कैसे होगा
  • विदेश छोडिये , इंडिया के ही दुसरे राज्य में जाना पड़ा तो कैसे होगा?
  • अगर आपको साइंस पढना है तो जनाब हिंदी में तो किताबे ही उपलब्ध नहीं?
  • अगर आप मेडिकल या इंजीनियरिंग में दाखिला लेंगे तो viva-प्रेजेंटेशन-नोट्स इनमे कही भी हिंदी के शब्द देखते ही आपको फेल कर दिया जाएगा.
  • किसी भी डॉक्टर की पर्ची  हिंदी में लिखी हुई मिली है आपको?
  • एयरफोर्स हो या बैंकिंग की परीक्षा- बिना अंग्रेजी के कोई पास हुआ है आजतक?
  • कचहरी के कुच्छ -कुच्छ -तुच्छ काम  तो फिर भी हिंदी में होने लगे हैं. मगर किसी भी एअरपोर्ट या फाइव स्टार होटल के वेटर को  हिंदी में comfortable होते देखा है आपने
  • फाइव स्टार होटल का मालिक से लेकर वेटर और यहाँ तक ग्राहक भी हिन्दीभाषी ही होते हैं, मगर न जाने क्या हो जाता है होटल में घुसते ही; कि सब अपने अंग्रेजी ज्ञान पे इतराते और हिंदी को 'गरीबो की भाषा' की नज़र से धिक्कारते नज़र आते हैं. अब आप अंग्रेजी नहीं जानियेगा तो ऐसे में अपनी बेईज्ज़ती ही न करवाईयेगा. बोलिए!
  • "माना कि मुश्किल से 5% लोग ही विदेश जा पाते हैं. और वो भी जरुरी नहीं कि अंग्रेजी बोले जाने वाले देश में ही जाएँ. जेर्मनी , रूस , फ्रांस, चीन इत्यादि देशो की भाषा क्यों नहीं सीखते आप. सिर्फ अंग्रेजी ही क्यों? क्योकि हम अंग्रेजो के गुलाम थे?" -ऐसे तर्क सिर्फ आपके सेल्फ-डिफेंस के कुतर्क मात्र हैं. मैं नहीं मानता. आपके कहने से थोड़े न होता है. मेरे कान्वेंट स्कूल की मैडम ने तो हमें ये नहीं पढाया था! अच्छा रुकिए पूछ के बताते हैं...
  • किसी भी हॉस्पिटल में चले जाइए, जितनी भी दवाएं हैं सब के नाम अंग्रेजी में. भले उनकी फैक्ट्री हिमाचल प्रदेश के किसी गाँव में हो. और जितने भी लैब-रिपोर्ट हैं सब के सब.....खैर.
  • जब भी दो बंगाली मिलते हैं, बंगला में ही बात करेंगे. चाहे वे एअरपोर्ट पे हो या लन्दन में. यही बात अन्य दक्षिण-भारतीय लोगो में भी मिलती है. मगर हिंदी वाले? भाई हमारी सोच ही ऐसी है. वेटर से या डॉक्टर से, कभी कभी तो बस के कंडक्टर से भी अंग्रेजी में बात करके हमारे आत्मसम्मान की वृद्धि होती है. और  सामनेवाला भी तो फिर हमें इज्ज़त भरी निगाह से देखने लगता है. तो अंग्रेजी के चार शब्द ही आपको इतनी इज्ज़त दिला देते हैं जितना कि  आपकी लाखो की संपति ना दिला पाए. अब बोलिए?
**********

  • क्या आपने कभी सुना है कि चाइना में स्कूल में बच्चो को चाइनीज़ बोलने पे फाइन लगा हो? मगर अपने यहाँ लगता है. हिंदी बोलने पे. 
  • क्या आपने कभी गौर किया है  कि -उर्दू में अगर कोई शब्द नहीं मिले तो लोग हिंदी से शब्द उधार लेने की बजाय अंग्रेजी से शब्द भीख मांग लेते हैं. यकीं नहीं! कोई भी उर्दू समाचार सुन लीजिये- रेडिओ या टीवी पर. 
  • क्या हर धर्म की अपनी भाषा भी होती है? मतलब भगवान् को सिर्फ एक-दो भाषाओं का ज्ञान होता है? तो फिर धर्म-परिवर्तित होते ही लोग नाम क्यों बदल लेते हैं? जैसे इस्लाम कुबूल करते ही लोग इस्माइल या वकार....क्रिस्चियन बनते ही विलियम या जॉर्ज ....नाम और भाषा धर्म मार्ग से स्वर्ग जाने के लिए पासपोर्ट जैसा है क्या ?
**********

हिंदी को मुर्दा साबित करने के आन्दोलन तेज़ होते जा रहे हैं.
कुछ अवशेष बचे हैं, जल्द ही उनका श्राद्ध किया जायेगा.
14सितम्बर को पुण्यतिथि मनायी जायेगी.
बड़ी जीवट और मजबूत है- साली मरती ही नहीं!
अच्छा अगले साल तक तो पक्का. 
वैसे मिशन 2020 तो है ही.
तब तक के लिए.....
ABCD वाले हिंदी फिल्मो के हिंदी-रहित अंग्रेजी रैप वाले गानों का मज़ा लीजिये.
subtitle के साथ!
अर्थी तैयार है.लीजिये दो फूल आप भी चढाते हुए फेंक आइये....


Saturday, September 3, 2016

100 kisses of death: episode 3- सेल्फोस

# आखिरी पैराग्राफ ने तो धड़कन को ही रोक लिया था- हिमांशु, hyderabaad
# बहुत दिनों के बाद हिंदी में किसी ने ऐसा कुछ लिखा है- प्रकाश,delhi

# हिंदी को अब ऐसे ही शब्दों वाली कहानियो की जरुरत है जिसे समझने के लिए आज के युवाओं को शब्दकोष की जरुरत नहीं पड़े, बात जो बोलचाल की हो, बात जो सीधे जेहन में उतर जाए, और रीडर के मन में कहानी चलती रहे आखिरी पंक्ति के बाद भी- प्रवाही, Ranchi

100 kisses of death: episode 3- सेल्फोस 

[A work of fiction,Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events is purely coincidental.]




बहुत खुबसूरत थी वो. गुलाबी गालों के बीच से उभरती मासूम सी मुस्कराहट और उसके नजरो में ना जाने कैसी खामोश गहराइयां थी जिनमे  तैरने की अनचाही कोशिशों के बावजूद वह डॉक्टर खुद को डूबने से रोक ना पाया था. अपने मरीजों से हो जानेवाले सामान्य लगाव को इसबार बह जाने दिया था उसने प्रेम के समंदर तक.

सेल्फोस या सल्फास “- मरने की गारंटी वरना दुगने पैसे वापस! जी हाँ इसी तरह के दावे के साथ इसे बाज़ार में बेचा जाता है. यूँ तो अनाजों की बोरियों में इसे रखा जाता है कीड़े-मकोडो से बचाने के लिए. मगर ख़ुदकुशी की अचूक दवाई के रूप में  इसने ज्यादा नाम कमाया है. डॉक्टर को उसके प्रोफेसर ने पढाया भी था- “अगर सल्फास खाने वाला जिन्दा बच गया तो इसका एक ही मतलब है कि वो ज़हर सल्फास नहीं था....”. 

सौतन का तलाक रूपी थप्पड़ और फिर से एक अधेड़ से शादी की तैयारी में जुटे चाचा-चाची. सच्चा प्यार तो जीते जी नसीब नहीं हुआ, तो मौत से ही इश्क लड़ाने के इरादे से इस लड़की ने सल्फास की चार गोलियों को निगल लिया था – एकदम हरे हरे साबुन की तरह दिखने वाली. मरीजों से खचाखच भरे सरकारी अस्पताल की फर्श पर लाकर फेंक दिए जाने के बाद  सब उसके आखिरी सांस का इंतज़ार कर रहे थे. खुद वह भी तो!

मगर गज़ब की हिम्मत थी उस डॉक्टर में. शनिवार रात 2बजे जब वह इस आखिरी मरीज़ के पास राउंड लेते हुए पहुंचा तब – नब्ज़ कमजोर, सांसे ढीली, धड़कन सुस्त और  हाथ-पैर एकदम से ठंढे. मगर उसके चेहरे पे अपने आशिक से मिलने जैसी ख़ुशी के भाव! एक पल के लिए डॉक्टर झिझका. मगर अभी घर जाकर भी क्या करता वो? वही रोज़ रोज़ के झगडे और बीबी के बेतरतीब सवाल-जवाब –फटकार-उलाहने, जिनसे वह अब तंग आ चूका था. बीबी से वैसी लड़ाई से तो कहीं बेहतर थी इस लड़की की मौत से आज रात भर की लड़ाई. वो लड़ाई जिसमे सबलोग हारना ही चाहते थे- लड़की के घरवाले, लड़की की जिंदगी और खुद लड़की भी. मगर दो लोग थे जो जीतने की ख्वाइश लिए थे- एक तो ये डॉक्टर और दूसरी खुद मौत!

अभी अभी ICU में एक बूढ़े ने अपने सांसो की गिनती पूरी कर ली थी. बेड जैसे ही खाली हुआ, डॉक्टर उस लड़की को अपने गोद में ही उठाकर ले भागा ICU की तरफ. ट्राली ढूंढने में जरा सा भी वक़्त बर्बाद किये बिना. आनन् फानन में ऑक्सीजन, डोपामिन , एड्रेनैलिन, एट्रोपिन और ना जाने क्या क्या. लगभग 5 मिनट के अन्दर लड़की के चारो तरफ 6 -7 सेलाइन के बोतल उलटे लटक रहे थे. बोतलों से निकलती रस्सीनुमा आई.वी सेट्स और vitals-मॉनिटर के वायर्स- सब इस तरह बेड के चारो तरफ सजे हुए थे जैसे सुहागरात की सेज पर लटकते फूलो के झालर.

खराब पड़े पंखे के नीचे खड़े डॉक्टर के माथे से पसीने की बूंदें और लगभग उसी रफ़्तार से टपक रही थी उलटे लटके बोतलों वाली फ्लूइड और दवाईयों की बूंदें. दोनो ही तरह की बूंदों ने इंधन की तरह अपना असर दिखाना शुरू किया. मॉनिटर पर धड़कन की ट्रेन रफ़्तार पकड़ने लगी थी. सांसो ने लम्बे और गहरे आलाप की जगह जिंदगी के नगमे को गुनगुनाना शुरू कर दिया था. डॉक्टर ने दोनों तरह के बूंदों की रफ़्तार को कम कर दिया था अब. रविवार की पहली किरण ने मौत के अँधेरे को पीछे धकेल दिया था. घरवाले अभी भी ICU के बरामदे में सो रहे थे.

घर जाने का जरा सा भी दिल नहीं कर रहा आज तो. होगा क्या? मुझे फिर से नीचा दिखाने की कोशिश, मेरे ससुराल के दौलत और शानो-शौकत में दहाड़ते घमंड भरे लफ्ज़ , मेरे मिडिल क्लास माँ-बाप का फिर से मज़ाक उड़ाया जाना और.....” इन 4- 5 सालों में इन सबका अभ्यस्त हो चूका डॉक्टर सोच रहा था.

पढ़ी-लिखी, अच्छे-ऊँचे खानदान की, खुबसूरत बीवी – डाक्टरी के 10 सालो की पढाई का इनाम. दोस्त भी जलने लगे थे उससे. दहेज़ में मिले फ्लैट में जल्द ही शिफ्ट हो गए थे वे सब. माँ-बाप तो बिना छत-आंगन-अपनापन के घर में घुटने लगे थे और गाँव-खेत की देखभाल का बहाना कर के लौट गए थे. महीना भर तो खरीदारी और पार्टियों में बीता मगर ढीली पड़ती जेब ने मैडम के सतही प्यार को भी ढीला कर दिया और फिर.....पहले तो डॉक्टर सब कुछ अनसुना कर देता था. उसने अनुमान लगाया कि अपने माँ-बाप से बिछड़ने के कारण बीवी का मन कड़वा हो जाता होगा; हलाकि वो भी तो दूर ही हो गया था अपने माँ-बाप से. कुछ दिन तक समझाने की कोशिश भी की. मगर जल्द ही उसे एहसास हो गया था कि वे दोनों एक दुसरे से एकदम अलग थे- एक बर्फ तो दूसरा आग. शायद यही था उसका भाग्य! अगले कुछ महीने उसके लिए ज्यादा ही मुश्किल भरे थे. ड्राइंग रूम में लगे उसके गाँव वाले लैंडस्केप की जगह मॉडर्न आर्ट की आड़ी-तिरछी न्यूड लकीरों ने ले ली. उसके पसंदीदा 80s के गीतों को पान दूकान वाले की पसंद कह कर लगभग बैन ही कर दिया गया. हिंदी अखबार और उपन्यासों को ‘अंग्रेजी नहीं समझ सकने वाले अनपढ़ो की पसंद’ कह कर हटा दिया गया. शराब नहीं पीने के कारण मैडम की पार्टियों में उसका मजाक बनाया जाता और फिर धीरे धीरे उसकी बीवी उसके बिना ही पार्टियों में जाने लगी. ये बात एक तरह से डॉक्टर के लिए अच्छी ही थी.

ओह! क्या इन नेगेटिव बातो में दिमाग ख़राब करना..”अपने बैग से टूथ ब्रश ढूंढता डॉक्टर अपने चैम्बर से लगे बाथरूम में घुस गया. सुबह के 7 बजे थे. फ्रेश होकर उसने अपने चैम्बर के बुकशेल्फ से एक मोटी सी किताब निकाली और पढने बैठ गया. किताब पढने से पहले उसने मेज़ पे आये कागजों को निपटाया. ये उस लड़की के खून जांच के कुछ रिपोर्ट्स थे. रोज़  1-2 घंटे पढने की उसकी आदत थी. मरीज़ की बिमारी को सही सही खोज निकालना किसी जासूसी केस को सुलझाने जैसा ही होता है. हर मरीज़ एक अलग पहेली- हर दिन एक नया चैलेंज- और डॉक्टर भी तो खुद को मेडिकल फील्ड का शर्लाक होल्म्स ही समझता था. केस के अन्दर तक घुसना, मरीज़ की हर एक तकलीफ की तह तक जाना, उसकी जिंदगी के सारे पहलुओं-आदतों-रिश्तो की तहकीकात करना, उसे बीमारी से जोड़ कर देखना और फिर किताब में पन्ने दर पन्ने भटक कर सही डायग्नोसिस करना. एक बात और थी- उसे लोगो की जिंदगी को नजदीक से समझने –जानने में मजा भी बहुत आता था. अपनी बर्बाद होती घरेलु जिंदगी से मन हटाने के लिए शायद. 

इतने सारे मरीज़ भर्ती हुए थे इस खंडहरनुमा सरकारी अस्पताल में. कहने को तो यह जिला का सबसे बड़ा अस्पताल था- सदर अस्पताल. जहाँ सारी सुविधायें जैसे चौबीसों घंटे बिजली, पानी, सुरक्षा गार्ड, पर्याप्त नर्सेज एवं थर्ड और फोर्थ ग्रेड कर्मचारी, मुफ्त में सारी दवाएं, आधुनिक ऑपरेशन थिएटर और न जाने क्या क्या सब कुछ उपलब्ध थे- मगर सिर्फ कागज पे! सच्चाई तो ये थी कि तीन-चार डॉक्टर्स और 8-10 नर्सों के सहारे ही सैकड़ो मरीजों का काम चल रहा था. कई बार तो अपने चैम्बर और वार्ड में झाड़ू-पर्दा-साफ़-सफाई भी डॉक्टर ने खुद से किया था. कई दवा-उपकरण वो खुद के पैसों से खरीदता. इसकी मेहनत से धीरे-धीरे अस्पताल की सेहत भी सुधर रही थी. नतीजे मिले जुले थे- मरीजों की भीड़ और बढती जा रही थी. अगल बगल के दुसरे जिले से भी लोग आने लगे थे. स्वास्थ्य विभाग के अन्य कर्मचारियों को अब ज्यादा काम करना पड़ रहा था. प्राइवेट हॉस्पिटल के मालिक इस डॉक्टर को वापस सुदूर PHC में भगाने के लिए जाल बिछाने लगे थे. और सदर में कम मगर अपने पति के नर्सिंग होम में ज्यादा समय बिताने वाली लेडिज डॉक्टर(gynaecologist), जो कि इस अस्पताल की इनचार्ज भी थी, इस डॉक्टर की शिकायत ऊपर के अधिकारियो तक पहुंचाने का कोई भी मौका छोडती नहीं थी. प्रसिद्धि अपने साथ साथ बदनामी और दुश्मनी भी तो लेकर आती है. सुदूर PHC यानि प्राइमरी हेल्थ सेंटर - जहाँ डॉक्टर का काम सिर्फ मुर्गी-बकरी-भैंस की गिनती करना, दस्त से ग्रस्त बच्चो के नाम और वजन इकठ्ठा करना और इन आंकड़ो को कागजो पे रंग कर ऊपर फेंक देना था. मतलब टोटल किरानी वाला काम- डाक्टरी जैसा तो एकदम नहीं. अरे भाई! बरगद पेड़ के नीचे आप चार ग्रामीण बच्चो को पढ़ा भले सकते हैं, खिचड़ी भी खिला सकते हैं. मगर बिना नर्स-दवा-उपकरण के तो सिर्फ मरीज़ की गंभीर स्थिति का अंदाज़ लगाया जा सकता है, इलाज़ तो ...??

उसी दिन यानि रविवार सुबह के 10 बजने वाले थे.
कैसी हो?” ICU में उस लड़की का BP चेक करते हुए डॉक्टर ने पूछा.
लड़की को कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. आई वी लाइन्स और वायर्स के जाल में लिपटी और छत को घूरती हुई लड़की के होठ हिले-
जिंदगी ने फिर से कैद कर लिया है
डॉक्टर को ऐसे उलझे जवाब की उम्मीद नहीं थी! बिना उतार-चढ़ाव के, बिना किसी भाव के, सीधे सपाट से लफ्ज़....लड़की के व्यक्तित्व का अंदाजा लगाने की डॉक्टर की कोशिश मुश्किल होती जा रही थी. अमूमन दो-चार पंक्तियों की बातचीत में ही वो मरीज़ की मानसिकता पढ़ लेता था, उसके अनकहे तकलीफों को भी समझ जाता था और बीमारी के साथ-साथ अन्य परेशानियों का भी उपाय ढूंढने की कोशिश जरुर करता था. मगर इस बार तो? रहस्य से बड़ा कोई आकर्षण नहीं होता. उलझी जुल्फे हो या लफ्ज़, रास्ते हों या नब्ज़- बुद्धिजीविओं को बहुत आकर्षित करते हैं.
डॉक्टर लड़की के चाची से बातें निकलवाने लगा था. जितना वो जानता गया उसकी बेचैनी बढती गयी और जुडती गयी लगाव की कड़ी.

रविवार 12 बजे दिन:
अब तक डॉक्टर ने लड़की के बारे में काफी कुछ जान लिया था. दोनों की जिंदगी के रास्ते कुछ एक जैसे मोड़ो से गुजरते थे. आज डॉक्टर की ऑफिसियल ड्यूटी नहीं थी.  घर से गायब रहने का बहाना वो सोच ही रहा था कि उसकी बीवी का फोन आया-“ आज मेरे फ्रेंड् के घर पार्टी है, कॉकटेल. मैं रात में लौट नहीं पाऊँगी...” डॉक्टर ने भगवान् का शुक्रिया अदा किया. बोझ थोड़ी देर के लिए टल गया था. घर से गायब रहने और गिल्टी फील करने का डर- जिससे बचने के लिए वो घर जाने की ड्यूटी निभाता था- उससे छुट्टी मिल गयी थी आज के लिए.  और सही मायने में छुट्टी का मतलब भी तो यही होता है- बिना इंटरेस्ट वाले काम की जगह अपने मन का काम करने की आजादी.

अब तक लड़की के दिखावटी परिजन/शुभचिंतक जा चुके थे. बूढी चाची उसके बेड के बगल में चटाई बिछा सो रही थी. कुछेक अभी भी आ-जा रहे थे; और फुर्सत में बैठे डॉक्टर को देख लगे हाथ अपने खुद के तकलीफ के बारे में पूछने लग जाते थे. नाई को देखते ही हजामत और हकीम को देखते ही सेहत याद आने वाली कहावत हो जैसे.
लड़की के सिरहाने जैसे फलो की दूकान लग गयी हो. उसकी तरफ इशारा करते हुए डॉक्टर ने लड़की के लिए एक पतली सी मुस्कराहट सरका दीया. जवाब में लड़की ने पलके गिराकर उस मुस्कराहट को रिसीव किया. लगभग शांत से पड़े ICU के इस हिस्से में बस मॉनिटर की बीप की यूनिफार्म रिदम थी. दोनों ने लफ्जों की जरुरत को महसूस नहीं किया. निगाहें अपनी भाषा में बातें करती रहीं.

नजरो में बात करने की कितनी क्षमता होती है? हया में नजरो का गिरना, आश्चर्य में नजरो का उठाना,  ख़ुशी के आंसुओं को छुपाने की कोशिश में मुस्कुराती नज़र, बेचैनी में इधर उधर घूमती नज़र, तन्हाई में डूबती सी नज़र, साथी पा जाने पे संतुष्टि के अहसास में आह्लादित नज़र,......डॉक्टर ने आज जाकर समझा था नजरो की काबिलियत को. नफरत जताने के लिए भले लफ़्ज़ों की जरुरत पड़ जाये मगर प्रेम प्रदर्शन के लिए जैसे शब्दों की कोई आवश्यकता ही नहीं. वो पल भर के लिए पशुओ और नवजात शिशुओ के मूक वार्तालाप की परिकल्पना में खोने लग गया था.
नजरो की जुबान में लड़की बाँट रही थी अपने सुनहरे बचपन की यादो को. जवानी के दहलीज़ पे लफ्जों-शेरो-नगमो की आशिकी से होते हुए कॉलेज में हो गयी कमजोर मोहब्बत के बारे में. और बताया उसने अचानक एक दिन यतीम हो जाने के हादसे के बारे में . उर्दू के प्रोफेसर बनने के उसके ख्वाब का क़त्ल कर चुकी दगाबाज़ निकाह का भी जिक्र किया था उसने.

दोपहर 2.30 बजे:
डॉक्टर एक एक कर बहुत सारी लटकी बोतलों को हटा रहा था. अचानक मॉनिटर पर बीप की रफ़्तार तेज़ होकर शांत हो गयी. जिंदगी की उतार चढ़ाव वाली सड़क एकाएक सीधी सपाट दिखने लगी. नब्ज़ की गति शून्य थी. यह क्या हो गया? डॉक्टर का कलेजा बैठने लगा. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था. उसमे इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वो लड़की की नब्ज़ भी टटोले. वह वहीँ  रखे स्टूल पर धम से बैठ गया, हाथो के बीच सर झुका कर आँखे बंद किये...तभी लड़की ने उसके चेहरे को छुआ और मुस्कुराने लगी. चिहुंक कर डॉक्टर ने लड़की की तरफ देखा! फिर से मॉनिटर को देखने पर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. नजरो ने फिर से गुफ्तगू की. माजरा अब साफ़ हुआ – दरअसल लड़की ने शरारत करते हुए मॉनिटर की वायर को अपने कलेजे से अलग कर दिया था. अब मशीन तो मशीन. सिग्नल नहीं मिलने का उसे तो बस एक ही कारण समझ आता है- धड़कन का थम जाना. मगर डॉक्टर तो यह बात अच्छी तरह जानता था कि मशीने जीवन में मददगार मात्र हैं, जीवन का पैमाना नहीं. फिर वह कैसे इसे सच मानकर बेसुध होने लगा था. शायद वो इस लड़की के बेहद करीब चला आया था. और ये ज़रूरी तो नहीं कि जो नज़ारा दूरबीन से बेहतर नज़र आये वो माइक्रोस्कोप से भी उतना ही साफ़ साफ़ दिखे.

डॉक्टर भी अब मुस्कुरा रहा था. जल्द ही उसे अपनी बेवकूफी और लड़की के शरारत
का आभास हुआ.इस शरारत में छुपे अधिकार को भी महसूस किया उसने. प्रेम अभिव्यक्ति का मोहताज़ नहीं होता मगर प्रेम अधिकार चाहता है. उसने अनजाने में ही इस लड़की को खुद पर एक अनकहा सा अधिकार दे दिया था अब तक तो.
लड़की के साथ कोई नहीं था. उसकी चाची कुछ सामान खरीदने बाहर गयी थी. बेड के बगल में बैठे बैठे डॉक्टर ने लड़की के सर पे हाथ फेरा. लड़की ने महसूस किया कि यह स्पर्श ‘अमूमन बुखार या मरीज़ का हाल परखने वाले- डाक्टरी स्पर्श’ से कुछ अलग था. लड़की ने इस अहसास को आंखे बंद कर आत्मा में उतरने दिया. धड़कन ने थोड़ी उछल-कूद की. फिर से कनेक्ट किये जा चुके मॉनिटर ने बीप से इसे सूचित किया. डॉक्टर ने सजग होकर अपनी गरिमा का ध्यान रखने की कोशिश की. हालाँकि ICU के इस हिस्से में आस-पास कोई भी तो नहीं था.

अब तक उन दोनों की मुलाकात के 20 घंटे हो चुके थे. डॉक्टर थकी निगाहों से सपने देखने लग गया था-
उसके सपने में पहले दुखद पल आये, फिर उसने खुद को एक सुन्दर आलिशान पार्क में घुसते हुए देखा. मगर अन्दर जाते ही उसके पैरो में सुन्दर मगर नुकीले कांटे चुभने लगे. कुछ पल में ही वहां एक जलता रेगिस्तान था. वो गर्म रेत में डूबने लगा था; कि तभी एक शीतल बयार बहने लगी. उसने शीतलता के स्रोत को ढूंढने की कोशिश की. उसने कुछ दूर पर एक कोंपल को फूटते हुए देखा. अरे ये तो उसी पौधे की शक्ल ले रहा है जिसे वह रोज़ सींचता था. और फिर एक कतार में ऐसे कई पौधे उगने लगे थे- उन सब को वह पहचानता था जैसे. पौधों की कतार जल्द ही एक ठंढी छांव वाली पगडण्डी में बदल गयी थी.  आगे बढ़ते बढ़ते उसका मन साफ़ हो रहा था, उसका शरीर ज्यादा जवान होता जा रहा था.  एक नदी ने उसका स्वागत किया. नदी पहाड़ से गिरते एक झरने में से निकल रही थी. गिरते झरने की आकृति एक लड़की जैसी लग रही थी. उसने चेहरे को पहचानने की कोशिश की तो एक मुस्कुराहट ने उसके चेहरे को भीगा दिया. अरे!.....इसे तो पहचानता है वह ....तो क्या.....!  
  
 इधर बेड में सोयी लड़की ने भी पलकों को समेटकर ख्वाबो की दुनिया में तैरना शुरू कर दिया था-
एक जंगल जहाँ खतरनाक खूंखार जानवर उसे नोचना-खसोटना चाह रहे थे. वह तो
अभी एक छोटी सी बच्ची थी-डरी सहमी हुई. तभी एक सुन्दर सा नदी का किनारा आया. वह इसे देखकर मंत्र्मुग्द्ध हो ही रही थी कि डर ने आश्चर्य को पीछे धकेल दिया. अचानक किनारे की जमीन सरकने लगी. उसे लगा कि वो जमीन के अन्दर धंस कर मर जायेगी. उसने जीने की उम्मीद छोड़ दी और मरने के लिए नदी में छलांग लगा दीया. नदी में डूबती-तैरती वह  जवान लड़की बन गयी थी. नदी बहती हुई एक ऊँचे पहाड़ से नीचे गिरने वाली थी. यानि मौत अब बस दो कदम दूर थी. एकदम किनारे पे पहुँच कर उसने जब उंचाई से नीचे झाँका तो उसे जिंदगी का अहसास होने लगा. उसने तैरते हुए धारा में बहना और जीना सीख लिया था. नीचे जिंदगी उसका इंतज़ार कर रही थी. उसका जिस्म अब झरने की शक्ल में पिघलने लगा था. 

दोनों की निगाहें खुलीं और एक दुसरे से टकराई. हैप्पी-एंडिंग वाले सिनेमा के क्लाइमेक्स ख़त्म होते ही चेहरे पे जो भाव उपजते हैं- अभी इन दोनों के चेहरों पर सज रहे थे. पलकों की कतारों को प्रेम की बूंदे सींचे जा रही थी. लड़की ने नज़र  बंद कर के फिर से झरने की तरफ रुख किया. डॉक्टर ने भावनाओं को व्यक्त होता देख खुद को असहज महसूस  किया और बाहर चला आया.

शाम अपनी परछाई पसार रही थी. अस्पताल से लगा हुआ एक छोटा सा मंदिर- यहाँ अलग अलग गाँव से आये लोग या तो अपने मरीज़ के सलामती के लिए दुआ मांगते थे या मनोरंजन के लिए लोकगीतों की महफ़िल जमाते थे. अभी व्यास यानि मुख्य गायक की गद्दी पे बैठे युवक ने तान छेड़ा था  –
कैसे जिऊंगा तुम बन सिया ....काहे मेरे संग वनवास लिया...”

गर्भ के आखिरी महीने में अधिक खून बह जाने के कारण मरणासन्न पत्नी को लेकर आया था वह इस अस्पताल में. स्त्री रोग विभाग का लेबर रूम- जहाँ पुरुषो का प्रवेश निषेध था- वह अपनी पत्नी को देख भी नहीं पा रहा था. आवाज़ में दर्द इस तरह पिघल रहा था कि अगल-बगल के चाय और दवा दुकान वाले भी वहां जमा हो गये थे. डॉक्टर भी चाय का कप हाथ में लिए सुनने वालो की भीड़ में जा लगा था. सब लोग गीत की अपने हिसाब से व्याख्या कर रहे थे, अपनी परिस्थिति को जोड़कर पंक्तियों के साथ जुड़ते जा रहे थे. शायद यही काव्य की शक्ति है.

लेबर रूम से डॉक्टर को बुलाया गया. इस युवक की पत्नी ने एक लड़की को जन्म दिया था मगर खुद वह अपनी सांसे नहीं खिंच पा रही थी. डॉक्टर ने एक भी सेकंड की देरी किये बिना 15 सेकंड के अन्दर औरत के गले से फेफड़े तक E.T. tube डाल कर उसे गुब्बारे की तरह दिखने वाले अम्बु बैग से जोड़ दिया. अब गुब्बारे नुमा बैग को हर चार सेकंड में एक बार दबाया जायेगा तो बाहरी बल से ऑक्सीजन और हवा औरत के फेफड़े में धकेली जाएगी। औरत को अब साँस लेने के लिए तो ताकत लगाने की जरुरत नहीं होगी। चूँकि डिलीवरी हो गयी थी, तो औरत को स्त्रीरोग विभाग से हटाया जा सकता था. डॉक्टर ने कुछ सोचकर औरत को ICU में ट्रान्सफर कर लिया. ठीक लड़की के बगल वाले बेड पे. उसका पति अब उसके साथ तो था, हर चार सेकंड पे अम्बु बैग को दबाते हुए. औरत की हर साँस उसके पति की दी हुई थी अब.
ICU की घडी ने शाम के 8 बजने का ऐलान किया था. नर्सें अपने शिफ्ट की ड्यूटी चेंज कर के जा रही थीं. पति बिना रुके अम्बु बैग दबाये जा रहा था पिछले डेढ़ घंटे से. पति ने डिलीवरी से ठीक पहले एक यूनिट ब्लड डोनेट किया था अपनी पत्नी के लिए. उसी बोतल ने औरत के नीले पड़ गए शरीर पर लाल रंग को चढ़ाना शुरू कर दिया था. डॉक्टर लड़की के ही इर्द गिर्द रहने की कोशिश कर रहा था. लड़की ने औरत और उसके पति को देखा. कुछ लोग जिन्दा रहने के लिए कितनी कोशिश करते हैं और कुछ लोग कितनी आसानी से जिंदगी की कैद से आज़ाद हो जाना चाहते हैं. मगर अब उसे जीने का मकसद मिल गया था. ICU के इस हिस्से में चार लोग जिंदगी को अपने नज़रिए से देख रहे थे.

रात के 1 बज रहे होंगे. लड़की आँखे बंद किये कभी नींद तो कभी जागती आँखों वाले सपने देख रही थी. बीच बीच में वो पास बैठे डॉक्टर का हाथ थाम लेती. औरत का पति इस गतिविधि को देखकर भी अनदेखा सा कर रहा था. औरत अभी भी अपने सांसो से उलझ रही थी और डॉक्टर अपने ख्यालों से. तभी फ़ोन की घंटी ने डॉक्टर का ध्यान भग्न किया. उसकी बीवी का फ़ोन था. पता नहीं क्यों मगर वह लड़की के सामने अपनी बीवी से बात नहीं करना चाहता था. फ़ोन लेकर वो बाहर चला आया. नशे में धुत बीवी फ़ोन पे अपनी भड़ास निकल रही थी, डॉक्टर चुपचाप सड़क किनारे टहलता हुआ सुनता जा रहा था. बोलने की न तो उसकी इच्छा थी ना ही इसका कोई मतलब था.

औरत का पति काफी थक गया था. उसके हाथ कांप जाते थे. लड़की से देखा नहीं गया. अपने जिस्म से लगे बाकी के दो चार तारो को हटाकर वो औरत के पास चली गयी. उसने अम्बु बैग को अपने हाथो में ले लिया और अपने सांसो की रफ़्तार से बैग दबाने लगी. ऐसा कर के उसकी आत्मग्लानी थोड़ी कम हो रही थी शायद?

कौन लेकर आया इस औरत को यहाँ? किसके परमिसन से ऐसा हुआ? ..” स्त्रीरोग विभाग से खबर मिलने पे अस्पताल की इन-चार्ज गुस्से में दांत पिसते वहाँ पहुँच गयी थी. “ और खुद कहाँ गायब हो गया वो डॉक्टर? यहाँ किसके भरोसे छोड़ गया है इतने सीरियस मरीज़ को? आज तो उसकी ड्यूटी भी नहीं थी फिर उसे ऐसा करने की इज़ाज़त किसने दे दी? कल इसे कुछ हो गया तो मीडिया वालों को कौन जवाब देगा? बड़ा मसीहा बनता फिरता है और अपने मन की करते रहता है. नियम-अनुशासन की धज्जियां उड़ा दी है इसने, हमारी नाक में दम कर के रख दिया है....?” कुछ देर तक ऐसे ही गोले दागने के बाद डॉक्टर को मजा चखाने की धमकी देती वह जा रही थी; मगर उसकी इन बातो को कोई भी अच्छे मन से नहीं सुन रहा था. नर्सें जानती थी कि ये बोल डॉक्टर से उसकी जलन और दुश्मनी के थे. डॉक्टर ने कुछ भी गलत नहीं किया था. लड़की मन ही मन डॉक्टर की तरफदारी करती हुई सोच रही थी कि- ‘आखिर नियम-कानून समाज की भलाई के लिए बनते हैं या समाज को नियमो में उलझाकर दम घोंटने के लिए. चलो अच्छा था कि डॉक्टर इस वक़्त यहाँ नहीं था वरना बेकार ही उसे ऐसे कड़वे बोल सुनने पड़ते.’ इस बात ने लड़की को आंशिक संतुष्टि का एहसास कराया. उसे क्या पता था कि इस वक़्त डॉक्टर इससे भी कडवे घूंट जबरन पिए जा रहा था. औरत का पति खुद को औरत के इलाज़ का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बनाकर काफी हद तक अपनी बेचैनी को कम कर पा रहा था, वह अभी लड़की द्वारा दिए जा रहे अम्बु बैग के रिदम पे फिर से गुनगुना रहा था- “अब कैसे जियूँगा तुम बिन सिया.....काहे मेरे संग वनवास लिया...जीवन त्यागा जहर पिया...अब कैसे जियूँगा तुम बिन सिया...”. वो भी मन ही मन डॉक्टर की काफी इज्ज़त करने लग गया था.

करीब 25 मिनट हो गए थे. लड़की ने अम्बु बैग दबाना जारी रखते हुए औरत के पति की तरफ देखा. उसने समझने में जरा भी देरी नहीं की और डॉक्टर को बुलाने बाहर चला आया. 
मगर जब वे दोनों वापस लौटे तो अन्दर का नज़ारा कुछ और ही था! ऐसे डरावने नज़ारे की उम्मीद न तो डॉक्टर ने की थी ना ही औरत के पति ने.
लड़की की बूढी चाची कांपते हाथो से आधे नींद में अम्बु बैग दबाने की कोशिश कर रही थी. नाईट ड्यूटी वाली दोनों नर्सें किसी तरह लड़की को उठाकर उसके बेड पर ले जा रही थी.

पता चला लड़की की धड़कन काफी तेज़ और अनियमित/इर्रेगुलर रिदम में चल रही थी. दरअसल सल्फास जैसे जहर का असर अब तक गया नहीं था. इतना परिश्रम लड़की का कमजोर दिल बर्दाश्त नहीं कर पाया. दोनों मर्दों के पैर जम से  गए थे!
भोर के चार बज रहे थे. औरत का पति अम्बु बैग छोड़कर हिलना भी नहीं चाहता था. अब तो उसे किस्मत पे भी भरोसा नहीं रहा था. लड़की पसीने से तर-बतर एकदम ठंढी पड़ने लगी थी. हार्ट फेलियर- यानि ह्रदय अब पुरे शरीर को खून भेजने में सक्षम नहीं रहा था. यह सल्फास के देर से आनेवाले मगर सबसे खतरनाक प्रभाव में से एक था. साँसे भारी होती जा रही थी. खून नहीं मिलने के कारण शरीर के सारे अंग एक एक कर के सुस्त पड़ते जा रहे थे. मॉनिटर बीप के ऐसे शोर मचा रहा था मनो बीच चौक पे कोई बड़ा हादसा हो गया हो और गाड़ियाँ बेतरतीब इधर उधर हॉर्न बजाती भाग रही हो. लड़की की नजर डॉक्टर को ढूंढ रही थी. उसे अब मौत से डर लग रहा था. वो फिर से जिंदगी की कैद में आने को तड़प रही थी. आँखों के सामने धीरे धीरे अँधेरा छाने लगा था. वह फिर से नदी की लहरों में हिचकोले खाने लगी थी. पहाड़ का झरना जिससे निकलकर उसे जीवन की धारा से मिलना था- अब और दूर होता जा रहा था. मगर डॉक्टर?

उसने लड़की के बेड पे फिर से कई सारे बोतल लटका दिए थे. लड़की के हाथो-पैरो की नसों से लगातार दवाएं इंजेक्ट की जा रही थी. हर 10 मिनट पर ऑक्सीजन का लेवल और ब्लड प्रेशर चेक करता जा रहा था वो. कभी इस मशीन से तो कभी दूसरे से, कही मशीन ने फिर से गलत बताया तो! वो अब गुस्साने लगा था. नर्सों पे चिल्लाने लगा था- “सिस्टर! जल्दी से एड्रेनैलिन लाइए....क्या? नहीं है! क्या मजाक है? भागिए यहाँ से ...कही से भी ला.. ”.  वो खुद भी बेतहाशा भाग रहा था यहाँ वहां. कहीं कहीं से दवाएं खोज कर ला रहा था. जल्दबाजी में दवा की सील तोड़ने में अपनी अंगुली भी काट ली थी उसने. अचानक दौड़कर कोई किताब उठाकर लाता और फर्श पर ही बैठकर पन्ने पलटने लग जाता-फड़फड़ फड़फड़; तीन-चार पंक्तियों पे निशान लगाता; और दौड़कर नयी दवाई को बोतल या सिरिंज में भरकर चढाने लग जाता. काफी देर तक ऐसा ही चलता रहा. वह पागल की तरह भाग रहा था, चीख रहा था, चिल्ला रहा था, बीच में आने वाले से धक्का मुक्की कर रहा था, सामान पटक रहा था.
तभी नर्स ने कहा- “सर! अब ECG कर के देख लेना चाहिए...”
क्यों?” डॉक्टर ने गुस्से में पूछा. तभी उसे महसूस हुआ कि भागदौड में पिछले 15 मिनट में उसने मॉनिटर की तरफ देखा ही नहीं था. वह बस लड़की के चेहरे को देखता और भागता रहा था. मॉनिटर ने शोर करना बंद कर दिया था.

ECG की सीधी रेखा ने सांसो के थम जाने की घोषणा कर दी थी. सामने की बड़ी खिड़की से सुबह की रौशनी ने ICU में झांकते हुए प्रवेश किया. पहली किरण   लड़की के शांत मगर हमेशा के लिए सो गए चेहरे को छूकर आगे बढ़ गयी. आगे बढ़कर सूरज की किरण ने पति के अनवरत मेहनत के कारण अब तक जीवित औरत की आँखों को खुलने पे मजबूर किया. डॉक्टर दूर क्षितिज में सिमटते अँधेरे और बिखरते उजाले के मिलन को देख रहा था. लड़की के चारो तरफ लटकी दवाइयों के झालर उसके अंतिम यात्रा के सजावट की तरह लग रहे थे. तभी चपरासी ने डॉक्टर को एक चिट्ठी पकडाया- “सर! ये आपके लिए है.”. यह था डॉक्टर को फिर से सुदूर PHC भेजने का ट्रान्सफर आर्डर!!  


By:डॉ गोविन्द माधव (dr.madhaw@gmail.com)



#Uff!!! Mesmerising and spellbound Govind boss!!!! Lajawaab..!!-Divit Jain 
#Awesome piece of writing... very gripping... perfect description of emotions..-Moumita
No words , just had a smile after reading this- Bharti


  Ⓒ Govind Madhaw