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Monday, May 21, 2018

मौसम

मई की तपिश में ये हसीन बारिश.
सलाखें तोड़ती आवारगी की ख्वाहिश.

ताज़ा अजनबी दर्द मुस्कान में लिपट रहा.
फुर्सत भी नमी ओढ़े मुझ में सिमट रहा.

आशिकी के बादल बरसने को बेताब हैं .
मगर माशूका कौन? ये किसका शबाब है?

आह!
ये तन्हाई में खुद से इश्क करने का मौसम है.
खुद में डूबने - तैरने - भटकने का मौसम है.

© गोविंद माधव

Saturday, February 25, 2017

माँ शारदे

बुद्धि दे विवेक दे
ज्ञान मान तेज़ दे।
तमस को प्रकाश दे
स्वप्न को आकाश दे।
विचार को उत्थान दे
संकल्प एक महान दे।
अहंकार को उतार दे
कीर्ति को प्रसार दे।
माँ शारदे! माँ शारदे!


(बसंत पंचमी 2017 )

Wednesday, April 3, 2013

रग रग में बसी मेरी रांची- An anthem for ranchi


रग रग में बसी मेरी रांची- An anthem for ranchi

(रांची मेरे सपनो का शहर है, मेरा अपना शहर है। ये गीत मैंने अपने शहर के हर एक जुडाव के  लिए लिखा है।एक गीत जो इस शहर के हरेक पहलु को समाहित करता है। अपने  भावनात्मक जुडाव को अतिशयोक्ति से बचाते हुए मगर मेरे दिल के करीब रखते हुए काफी मेहनत  से ये गीत बन पड़ा। मैं चाहता हूँ की हर एक रांची वासी तक ये गीत पहुंचे। अगर कोई इसे धुन पे पिरोना चाहे, आवाज़ के साथ साज-ले-ताल देना चाहे तो हमेशा खुला आमंत्रण है। कुछ शब्द जो परिभाषा की अपेक्षा रखते है अंत में लिख दिए गए हैं। एक कवी की दृष्टि से मेरी अपेक्षा आप सब से क्या होगी ये आप गीत पढ़ कर और गुनगुनाकर मुझे सूचित करें।----डॉ गोविन्द माधव )



फिरता हूँ सपने तलाशते 
घाघ-बाग़ महुआ पलाश के। 
हर मोड़ मुझे बाँहों में भर ले 
कैद करे यादों के पाश से।।

मैं अपने शहर से कह दूँ 

कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।। 

खुले आसमान में सबसे कहूँ

ये मुझ में बहे, मैं इसमें रहूँ 
रग रग में बसी मेरी रांची। 
सांसो से सगी मेरी रांची।। ......

इन गलियों में गुजरा बचपन 

गूंजी किलकारी मांदर संग 
कोहबर में लिपटी दीवारें 
डोमकच , छऊ  करता हर आँगन।

सरहुल,करमा या बजरंगी 

कांके-हटिया सब एकरंगी 
बिरसा-टाना के प्राण यहाँ 
जिसे देख कम्पते थे फिरंगी।

कुडुख, सादरी, हो, कुरमाली 

खड़िया, मुंडा या संथाली 
धोनी और जयपाल के किस्से 
सुगना गाती है हर डाली।

लोहा-चांदी -सोना- हीरा

माटी से दिन-रात पनपता 
प्यार-मोहब्बत चैन-अमन 
आसमान से रोज़ बरसता।

झरनों के इस शहर को देखा 

सिंग-बोंगा के असर को देखा 
माथे पर शिव मंदिर ऊँचा 
है हाथों में सोने की रेखा

माँ  की गोद यहाँ की मिटटी 

और आसमान   है माँ  का आँचल
बूंद-धुल में लहू मिलाकर 
बरसा दूँ खुशियों के बादल। 


मैं अपने शहर से कह दूँ 
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।


शब्द परिभाषा
घाघ= झरने
मांदर = झारखण्ड का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र 
कोहबर = लोक चित्रकारी की एक शैली 
डोम कच / छऊ = लोक नृत्य की शैली 
सरहुल / करमा  = आदिवासी पर्व 
बजरंगी = रामनवमी का प्रतिक शब्द 
कांके/हटिया = स्थान 
बिरसा/टाना = स्वतंत्रता सेनानी 
कुडुख/ सादरी .......= आदिवासी जनजातीय भाषा 
धोनी/जयपाल = रांची के खेल हस्ती 
झरनों का शहर = city of waterfall, Wikipedia
सिंग-बोंगा = आदिवासी देवता 
शिव मंदिर= पहाड़ी मंदिर 
सोने की रेखा = स्वर्णरेखा नदी  
  

Monday, February 25, 2013

एक देश भक्ति गीत

 once again to tease u on this eve..


हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं.
facebook के आधे से भी ज्यादा id fake हैं...

जन गन मंगल दायक भारत भाग्य विधाता है.
उमर कसाब लादेन सब का RBI में खाता है....

देने वाले जब भी देते, देते छप्पर फाड के.
भले इंडिया गेट को भी लश्कर ले जाए उखाड के....

जहाँ डाल डाल पे सोने की चिड़िया लटकती है.
उस जंगल में नक्सल के डर से तितली भी नहीं भटकती है....

हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा सडती है.
गैया बकरी कटती है, मुनिया बेटी पढ़ती है.....

अन्ना तुम्हारे अन-शन पे response हमारा late है.
क्योकि आधा इंडिया हर रात को सोता खली पेट है.
IPL TICKET का फिर भी बढ़ता जाता रेट है.....

देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गयी भगवान.
मिडिया झूठी,नेता अनपढ़ जज हुए बेईमान......

आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ मिटटी हिन्दुस्तान की.
खून खराबा दंगा कर, है कसम खुदा और राम की.....

राजनीती को गन्दी कह कर देशी दारू चखना है.
दम मारो दम, अपने मन तो बस लन्दन का सपना है.....

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है.
आज का graduate ये न जाने गाँधी को किसने मारा है .....

मेरे देश की धरती कोयला उगले उगले हैजा टीबी
हर जवान के एक ही सपना एक सुन्दर सी बीबी.....

गूंगी बहरी भीड़ को चीर राज होता बलात्कार .
टेंसन नहीं लेने का, लीजिए न पान बहार......

मेरी बात न पचे तो लीजिए हाजमोला है.
बियर बार में टुल्ली होकर आज शिवाजी बोला है......

ए मेरे वतन के लोगों जरा पेट में भर लो पानी
लाल कार्ड के आस में न देखो राजनीती खानदानी......

इन्साफ की डगर पे बेटा तू चलना डर के.
कुत्ते भी न पूछे जो गए वतन पे मर के .....

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी है.
अपने प्यारे इंडिया की बस यही कहानी है..

फ़रार


कभी अपनी कुची में समेटता दुनिया
कभी जुमले में ही ओढ़ता था जहाँ
मनचला,पागल, गैर जिम्मेदाराना
अपनी हरकतों से मजा करता था हरदम
पर मांग बैठा जो खुशियों का हिसाब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।।


लफ्ज भी तो दगा करते थे कभी
अन्दर से सिहरन भी उठ जाया करती थी
इस सिहरन को एक बीमारी समझा उसने
'काम' और 'वक़्त' की दवा दे डाली
शायद घर की मांगो का था ये जवाब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।


घुप्प अँधेरे में दाल दी रूह अपनी
बस मशीनी दिमाग बन सा गया
भूल गया वो कभी इस जहाँ में भी था
अब तो 'जरुरत' ही सांसो की वजह थी उसकी
कई दिनों से नहीं देखा उसने अफताब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।।


जब वो लौटेगा अपनी कागज़ी दुनिया में
घरवाले उसे फिरसे फ़रार समझेंगे
ये जो दोनों जहाँ में फासले से हैं
क्या पता सिमटेंगे कभी या कि नहीं
बना गया है इन दूरियों को बेहिसाब कोई।
फरार था वो दिनों से महीनो से।।


आज फिर कागज से दोस्ती की उसने
अपने अरमां वो कोरे पे लिखता जायेगा
शायद फिर से फरार होना पड़े
या फिर नज़रबंद कर दे ज़मानेवाले
या वो खुद ही लगा ले नया हिजाब कोई।
फ़रार है वो दिनों से महीनो से।।


this gazal is about the inner conflict of an artist.

he has to choose between his art and work

between his interest and responsibility

between his own choice and of family....