Sunday, October 19, 2014

Entropy of Life and Diseases

Entropy of Life and Diseases  


मेरे इंजिनियर दोस्त ने अपनी नयी ऑडी खरीदने की पार्टी में मुझसे पूछा – “यार तू इतने साल से पढ़ रहा है , मगर कुछ नया क्यों नहीं करता मेडिकल साइंस में? लुइस पास्चर 200 साल पहले वैक्सीन बना के मर गया , मगर तुमलोग आजतक बस उसी पे अटके हुए हो. यार गोविन्द तू कुछ कर यार ! कुछ ऐसा कि कोई बीमार ही न पड़े. कहने का मतलब ऐसी कुछ तरकीब बना कि ये दवाओं का, हॉस्पिटल का, तेरी इतनी लम्बी पढाई का, फालतू के टेस्ट्स का लोचा ही ख़त्म हो जाए जिंदगी से. दुनिया डिजीज फ्री हो जाये!”. उसने कहना जारी रखा-“ मैं तो रोज़ एक्सरसाइज करता हूँ, हेल्दी डाइट लेता हूँ, रेगुलर चेक-अप करवाता हूँ, कोई बुरी आदत नहीं है, माँ - बाप भी पूरी तरह स्वस्थ हैं फिर मुझे क्यों हुआ ये अल्सरेटिव कोलाइटिस ? मेरे दोस्त को क्यों नहीं हुआ कैंसर जो इतना धुआं धुआं के जलवे बिखेरता है?कुछ तो प्रोटोकॉल होगा भगवान् के पास कि किसे बीमार करना है, कब करना है, कितना करना है और किसे नहीं करना है??”

उसकी दार्शनिक बातों से प्रभावित सा होता हुआ मैं ख्यालों में खोने लगा. हालाँकि उसकी आगे की बातों में उसके बायोलॉजी के अल्पज्ञता का उन्मुक्त प्रदर्शन हो रहा था और बेमतलब के सवालों की बौछार थी मसलन- “यार मुझे होल बॉडी चेक  करवाना है. मुझे यादाश्त बढाने वाली सुई लगवा दे. कल से मेरी गर्लफ्रेंड को सर दर्द हो रहा है, कहीं कोई ब्रेन ट्यूमर तो नहीं हो गया?..इत्यादि.” इन बातों में उसकी जिज्ञासा कम और उसकी उपलब्धियों और ऐशोआराम का प्रतिशत हर मिनट एकसमान त्वरण से बढ़ता जा रहा था, और व्युत्क्रमानुपाती दर से मेरी अभिरुचि कम होती जा रही थी. मगर मन के अधिकतर हिस्से पे मेरी जिज्ञासाएं और आत्ममंथन प्रक्रिया के प्रोग्राम्स रन करने लगे थे.

मन की स्थिति को समझते हुए मैंने जाकर दामन पकड़ लिया अपनी बाइक का - जो कि  मेरी हर दार्शनिक क्षणों में मेरा सगिर्द रहा है. या यूँ कहें कि अपनी बाइक पे तन्हाई का दामन  थामे जब मैं रांची की जानी-पहचानी गलियों में भटकता हुं तभी सारी जकड़नो  से आज़ाद मेरे मन में खुले विचारो का आना जाना हो पाता है. रानी हॉस्पिटल के बगल से गुजर रहा था कि रोड पे एक मंगोल-इडियट  बच्चा माँ की ऊँगली पकडे गुज़र रहा था. कुछ दूर आगे राज भवन के पास एक रईसजादे की सफारी से टकरा कर इवनिंग वाक पे निकले बाबा की टांग टूट गयी थी. रॉक गार्डन के सामने अल्बिनिस्म से ग्रस्त मगर अपनी जिंदगी में मस्त एक बाबा love-लाइफ की ज्योतिषी झाड रहे थे. और कांके ब्लाक के पास तो......आप समझ ही गए होंगे कि क्या देखा होगा मैंने? इन सब लोगों में एक बात कॉमन थी, वो ये कि इन सब की बिमारियों में इनकी कोई गलती नहीं थी. मन बहलाने वाले तर्कों ,जिन्हें pshychology के शब्दों में ‘डिफेंस मेकेनिस्म’ कहते हैं, का सहारा लिया जाए तो हम इसे पूर्व जनम के कर्मो का फल कह कर बात टाल सकते हैं मगर असलियत तो...?

मेरा मन इस्वर की नाइंसाफी से व्यथित हो रहा था और मुझे ये पंक्ति याद आ रही थी –“आश्चर्य का विषय ये नहीं है कि हम बीमार क्यों पड़े? बल्कि ये बात आश्चर्यचकित कर देने वाली है कि ऐसी दुनिया में हम निरोग कैसे हैं!!!”

सच में असंख्य संभावनाएं हैं कि जन्म लेने की प्रक्रिया में ही हमें कोई न कोई रोग अपना दोस्त बना ले. चाहे क्रोमोजोम में हो जाने वाले एकदम से अनिश्चित म्युटेशन का गिफ्ट  हो या फिर कोख में पड़े पड़े किसी जीवाणु से रिश्तेदारी की सौगात. ज़िन्दगी की पहली सांस लेने की दहलीज़ पे ही लेट हो जाने का सौभाग्य या छठी-मुह्जुठी के अवसर तक स्वादिष्ट व्यंजनों तक पहुँचने की हड़बड़ी का फल. यानि जिंदगी हर कदम पे सांप-सीढ़ी  वाले खेल के जैसी है जिसमे किसी भी चाल पे आप ग्रस्त हो सकते हैं. भले ही लाख सावधानी से भरा कदम आप बढ़ाएं, आपका कोई भी कदम आपको बीमार कर सकता है एकदम ही रैंडम तरीके से.

सवालों की फेहरिश्त लम्बी होती जा रही थी और जवाब खोजने की व्याकुलता भी. क्या बिमारियों से मानवता की यारी अनवरत चलते रहने वाली है? क्या जब से जीवन है इस दुनिया में तब से ही बीमारियों का भी अस्तित्व है? क्या ‘सम्पूर्ण निरोग शारीर’ भी एक misnomer है ‘परफेक्ट पीस ऑफ़ वर्ल्ड’ की तरह? अगर सभ्यता के evolution के साथ रोग-व्याधियों का भी उत्क्रमित विकास जारी रहता है तो फिर भविष्य कैसा होगा हमारा ? और अगर मृत्यु एक चरम सत्य है और बीमारियाँ उस सत्य तक पहुंचाने वाली एक सीढ़ी – तो फिर हम डॉक्टर्स क्यों बाधा उत्पन्न कर रहे हैं ईश्वर के पवित्र कार्य में? मेरे पुराने अधकचरे अध्यात्मिक ज्ञान के कोने से एक तथ्य ने अपना हाथ खड़ा किया- “diseases are the natural way of balancing population and resources” ! मगर मन के दुसरे कोने में पड़े नास्तिक तथ्यों ने तुरंत ego का स्थान लेते हुए जवाब दिया- “what if there is no nature, no गॉड ? “ फिर सुपरईगो  ने दोनों पक्षों में संधि स्थापित करने की अपनी आदत का सहारा लेते हुए तात्कालिक सुझाव दिया-“ विनाश ही कारण बनता है नए निर्माण का. अगर भूकंप न होता तो जापान और गुजरात इतनी तरक्की नहीं करते! अगर हम थकें नहीं तो खायेंगे ही नहीं, सोयेंगे ही नहीं. बस उसी तरह अगर हम बीमार पड़ने के डर  से मुक्त हो जाएँ तो हम कभी ख्याल ही नहीं रखेंगे अपने शरीर का. और तब हम सभी स्वास्थ्य नियमो को ताक  पे रख कर अपनी प्रकृति की घोर अवहेलना करते हुए एक अव्यवस्था को जन्म देंगे जिसमे सब कुछ अव्यवस्थित हो जायेगा. एकदम से रोगी-क्षीण-हीन.”

व्याकुलता के उच्चतम स्टार तक पहुँचते हुए मैं xaviers कॉलेज के पास पहुँच गया था. ओह! इस जगह से कितनी यादें जुडी है मेरी? कितनी ही दफा एकतरफा प्यार हुआ था मुझे यहाँ . उन्ही यादों को सहलाने का कोई भी मौका मैं नहीं गंवाता था. क्यों कि ऐसे क्षणों में आप अपने तात्कालिक माहौल से आज़ाद हो कर दार्शनिकता के उच्चतर स्तर तक चले जाते हैं. It’s like freely floating in your mind-palace where all the facts and memories gently move around you without disturbing your nascent thought process. और तभी एक शब्द ने मुझे छुआ – एन्ट्रापी!

Thermodynamics का ये शब्द मेरी कुछ सवालों का जवाब था. एन्ट्रापी यानि randomness यानि अस्त-व्यस्तता या अव्यवस्था. उर्जा-सिद्धांत के यूनिवर्सल नियम के अनुसार – सृष्टि की टोटल एनर्जी constatnt है , यानि उर्जा बस एक रूप से दुसरे रूप में बदलती रहती है. मगर एन्ट्रापी हमेशा बढती जाती है. बिग-बैंग यानि सृष्टि के आरंभ वाले बड़े धमाके के समय यूनिवर्स की एन्ट्रापी शून्य थी. मगर हमारी हर साँस जो सृष्टि में जरा सी बदलाव लाती है और एन्ट्रापी बढ़ जाती है. और यह अव्यवस्था यानि उठा-पटक भी हमारे शरीर के स्वास्थ्य की तरह है. हर साँस हमारे जिस्म के किसी न किसी सेल की एन्ट्रापी बढ़ा रहा होता है. हम कितनी भी डिसिप्लिन फॉलो करें किसी न किसी डीएनए का  म्यूटेशन  होना ही है, कहीं न कहीं telomere को बूढा होना ही है, किसी न किसी जीन रेगुलेशन का नियंत्रण गड़बड़ होना ही है-भले ही अदृश्य रूप में. तो यह बढती हुई अव्यवस्था हमें कहा ले जा रही है? इसका एक और मतलब ये बनता है कि हम लाख कोशिश कर के भी एन्ट्रापी को घटा नहीं सकते और इसी तरह पूरी दुनिया को डिजीज-फ्री करना भी एक व्यर्थ प्रयास है – निश्चित असम्भवता के सागर में से सुखी हुई रेत निकालने  के जैसा. तो क्या इन सब का समाधान  फिर से एक बिग-बैंग ही है?

यह आंशिक जवाब फिर से कई नए सवालों को जन्म देने की प्रक्रिया में लगने ही वाला था कि मैंने लौटने का फैसला लिया. वापस रिम्स के वार्ड में, जहाँ सच में बिमारियों से रूबरू होता हूँ हर पल. इस बार नए नज़रिए से देखने की कोशिश की हर एक पहलु को. मगर इंटर्न की तरह किसी भी डायग्नोसिस पे जम्प करने वाली शुरूआती आदत से बचने की कोशिश करते हुए – इस बार मैं बस observe करने वाला था, आंकड़े तलाश रहा था और साथ ही  कोई भी रैपिड कन्क्लुसन नहीं चाह रहा था. HOD सर की बात दिमाग में घूम रही थी-“widen your gaze…..Gather data….then come to a narrow differential… ”

 मैं हर मर्ज़ में मरीज़ की भागीदारी ढूंढ रहा था. आत्महत्या का असफल प्रयास करने वाली सुन्दर सी लड़की, सरकारी मेडिकल कॉलेज की बदहाली पे स्पीच दे रहे फ़ूड poisoning वाले अंकल, कोल्डड्रिंक से अपनी अस्थमा बढाने वाली लड़की , एंडेमिक जोन में आने पे मलेरिया से पीड़ित आर्मी का जवान, blood-relations में शादी के कारण सिकल सेल से ग्रस्त संतान , नाजायज एबॉर्शन के बाद सेप्टिसीमिया –DIC वाली औरत , अनियंत्रित ब्लडप्रेशर के कारन लकवा खाया मंदिर का पुजारी,  हेड इंजरी वाले ड्रग्स और सिगरेट के नए नए शौकीन teenagers के  bikers-गैंग  और इतने ही कई सारे लोग- जिनकी बिमारियों में कहीं न कहीं उनकी खुद की गलती शामिल थी. या फिर इन सारी  बिमारियों को एक व्यवस्थित सामाजिक सिस्टम के सहारे रोका जा सकता था.  हैरान करने वाली बात ये थी कि अस्पताल का लगभग 70 % हिस्सा ऐसी ही बिमारियों से भरा था.

तो क्या जवाब मिल गया है मुझे? अपने इंजिनियर दोस्त को रिप्लाई कर दूँ अब? उधेड़बुन में बाइक का सहारा लिए डैम के किनारे जा बैठा. धुर्वा डैम का साफ़ सुथरा , पत्थर लगाया हुआ किनारा , जहाँ सफ़ेद सफ़ेद डिस्पोजेबल प्लेट्स और गिलास की खेती बस शुरू ही हुई थी –यानि हमारे व्यवस्थित सभ्य इंसानों को वो जगह भी अब अच्छी लगने लगी थी. समंदर पार से हज़ारो मील की दुरी तय कर के आये साइबेरियन पक्षियों का एक दल जल क्रीडा में व्यस्त था. कहते हैं कि बीमार पड़ गए पक्षी को वहीँ पे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, मुसाफिर दल  में शामिल नहीं किया जाता. और अगर कोई रास्ते में कमजोर हो जाये तो उसकी नियति भी मौत ही होती है. क्या? उनमे कोई डॉक्टर नहीं होता? क्या चिकत्सा द्वारा जीवन लम्बा करने की कोई व्यवस्था उनमे नहीं है ? हाथियों के दल के बारे में भी ऐसी ही बात सुनी थी मैंने! तो क्या वे प्रकृति के नियम को निभा रहे है और हम तोड़ रहे हैं? अगर हॉस्पिटल से मिले मेरे जवाब वाले आंकड़े को उनपे भी आजमाया जाये  तो क्या पक्षियों में भी बीमारियों का 70 % हिस्सा वैसे रोगों का होता होगा जिनके पीछे उनकी खुद की गलतियाँ शामिल है, और इसलिए गलती की सजा के रूप में उन्हें मिलती है मौत! पानी की लहर आते जाते मेरे पैरों को छू रही थी और मेरी उलझनों के लहर के साथ फ्रीक्वेंसी मिलाकर रेजोनेंस उत्पन्न करना चाह रही थी. दूर तक फैले समतल जल भण्डार में पैदा होते और बिखर जाते उर्मियों में मेरी नज़र खोने लगी थी. मैं खुद के अन्दर डूबता सा महसूस कर रहा था.

भीगे जज्बातों और अनसुलझे सवालों के साथ मैं उस ऊँची जगह पे पहुँच गया था जहाँ से सारा शहर दिखाई देता है. पहाड़ी मंदिर के छज्जे पे खड़ा होकर पुरे शहर को निहारना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. दूर कहीं एक जाम में फंसी एम्बुलेंस की नीली बत्ती झिलमिल कर रही थी, थके से रिक्शावाले  खजूर के नीचे लम्बी कतार बनाये हँड़िया पी  रहे थे , बगल के कब्रिस्तान में किसी को दफनाया जा रहा था, एक अपार्टमेंट की छत पे छुपकर दो बच्चे सिगरेट पी रहे थे, और मंदिर की सीढियों के किनारे कई सारे विकलांग भीख मांग रहे थे. पीछे मंदिर में एक औरत अपने कैंसर से जूझ रहे बच्चे के लिए दुआ मांग रही थी, और फिटनेस संग पुन्य लाभ के लिए सुबह शाम 200 सीढियाँ चढ़कर ऊपर पूजा करने आने वाले सेठ-मारवाड़ियों का दल नीचे  उतर रहा था. मैं जैसे इनसब को एकदम निष्पक्ष भाव से देख पा रहा था- लेशमात्र भी अटैचमेंट से रहित. जैसे मैं इनमे से एक हूँ ही नहीं. एकदम अलग ,माया-मोह-समाज-नियम से ऊपर उठे हुए दार्शनिक की तरह. और फिर सवालों के जवाब सूझ रहे थे मुझे दूर तक फैले शहर को ढंकते बादलों के बीच में-जिसमे कहीं कहीं मुंडेरो से उड़ते पतंग और धार्मिक झंडे दिख रहे थे. मैं अपने इंजिनियर दोस्त को कह रहा था-
“ दोस्त हमारी जिंदगी दो पहियों पे चलती है, एक पहिया मजे लेने के लिए है तो दूसरा डिसिप्लिन में रखने के लिए. अगर दोनों में संतुलन बना के रखा जाए तो हम अपनी 70 % बीमारियों को दूर भगा सकते हैं. मगर बाकी के 30 % रोग? हम्म! इसके जवाब में शामिल है एन्ट्रापी और अनिश्चितता. और  जहाँ कहीं भी randomness यानि अनिश्चितता है वहीँ पे किस्मत और ईश्वर जैसे शब्द एक्सिस्ट करते हैं.  और फिर जिंदगी इसके आगे सांप –सीढ़ी के खेल के जैसी हो जाती है. हम कब किस बिमारी से ग्रस्त हो जाएँ कोई नहीं जानता. और ऐसा कुछ भी नहीं किया जा सकता जिससे ये दुनिया रोग-मुक्त हो जाये. “



दोस्त को समझाने के क्रम में ही घडी पे नज़र गयी. शाम के 5 बज रहे थे. मेरे सीनियर वार्ड में अकेले मेहनत कर रहे होंगे. और मेरे लौटते ही कह पड़ेंगे-“ ऐसे मौसम में कविता लिखने का शौक पूरा हो गया हो तो कुछ काम कर लिया जाए? दो ब्लड सुगर और तीन ABGकर लो बस! फिर मिलते हैं कॉफ़ी हाउस पे. बहुत काम है,और पढाई  भी तो करनी है”. अधूरे सवालों से नाता तोड़ मैं लौट रहा था उन बीमारियों को समझने और दूर करने की कोशिश में जिन्हें मेरी जरुरत थी. 

  Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, September 14, 2014

डॉ बरमेश्वर प्रसाद की पुण्यतिथि पे श्रद्धांजलि

संक्षिप्त परिचय
नाम - Dr बरमेश्वर प्रसाद
जन्म - 1924 बक्सर,बिहार
पिता- स्व. डॉ ठाकुर प्रसाद 
1947- MBBS (5 विषयों में Hons.)
1947- बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के निजी चिकित्सक के पद पे नियुक्ति
1948- पटना मेडिकल कॉलेज में अध्यापन शुरू
1950- चिकित्सा विज्ञानं की सर्वोच्च डिग्री MRCP लेने के लिए लन्दन चले गए
1962- RMCH(अब रिम्स) की स्थापना के साथ ही मेडिसिन विभाग के संस्थापक, प्रोफेसर  और विभागाध्यक्ष बनाए गए.
अन्य- रांची विश्वविद्यालय के सीनेट के सदस्य , बिहार स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष , IMA -बिहार के अध्यक्ष , बहुत सारे विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियों के द्वारा सम्मानित.
15 सितम्बर 1981- स्वर्गवास

१५ सितम्बर - पुण्यतिथि उस चमकते सितारे की जिसने अपनी रौशनी से सिर्फ रांची या झारखण्ड-बिहार ही नहीं बल्कि पुरे चिकित्सा विज्ञान को प्रकाशित किया.स्वर्गवास के तीन दशक बाद भी डॉ. बरमेश्वर प्रसाद अपने आदर्श और व्यक्तित्व के साथ चिकित्साविज्ञान से जुड़े हर दिल में जीवित हैं - चाहे वो rmch/रिम्स के उनके छात्र हों, सहकर्मी हों या उनके मरीज़. जन्म से ही अत्यंत प्रतिभाशाली डॉ बी प्रसाद ने 1947 में एम् .बी.एस. की परीक्षा 5 विषयों में ऑनर्स के साथ  उतीर्ण की. उनकी प्रतिभा के कारण ही बिना हाउसमैनशीप  किये ही उनकी नियुक्ति बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के निजी चिकित्सक के रूप में हुई. 1950 में MRCP की डिग्री के लिए लन्दन जाने पर वहीँ बस जाने के लिए कई प्रस्ताव उनके पास आये मगर अपनी देशभक्ति की भावना के कारण वे अपने मिटटी के करीब लौट आये और नवस्थापित RMCH के मेडिसिन विभाग के संस्थापक और विभागाध्यक्ष बने. जिस समय में भारत में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अंकुर भी नहीं फूटे थे उस अन्धकार में भी डॉ. प्रसाद अपने विद्यार्थियों को जेनेटिक्स और ऐसे ही कई एकदम नयी नयी खोज की गयी चीजों के बारे में भाव-विभोर कर देने वाले लेक्चर दिया करते थे.एक बार एक जज साहब जो जर्मनी से अपने ह्रदय रोग का इलाज़ करवा रहे थे  वे डॉ प्रसाद के पास पहुंचे मगर ये देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि यहाँ भी उन्हें वही जर्मनी वाली नयी नयी खोज की गयी दवाई  लिखी गयी जो  अब तक भारत के किसी कोने में यहाँ तक कि एम्स में भी शुरू नहीं की गयी थी. उनके  ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी. ये कहने में जरा सा भी हर्ज़ नहीं होगा की बिहार ही नहीं पुरे बिहार-बंगाल-उड़ीसा-झारखण्ड इत्यादि क्षेत्र में चिक्त्साविज्ञान  के पौधे को अपने खून-पसीने और प्रतिभा से सींचा है उन्होंने.
कहते हैं कि उस समय rmch में आने वाले मरीजों में आधे से भी ज्यादा हिस्सा डॉ. बी प्रसाद से इलाज़ कराने के लिए आने वालों का होता था. रांची का ऐसा कौन सा घर नहीं होगा जिस घर के किसी व्यक्ति का इलाज़ उनसे नहीं कराया गया होगा. क्या मंत्री, क्या व्यवसायी, क्या ऑफिसर या कोई भी साधारण सा आदमी- सबकी एक ही कतार होती थी उनके क्लिनिक में. अपने आदर्शों के पक्के आप एक कुशल चिकित्सक के साथ साथ एक समाज सेवक, विचारक और सच्चे देशभक्त भी थे. अपनी सभ्यता और संस्कृति से उनके लगाव के बारे में बताते हुए उनके पुत्र डॉ. उमेश प्रसाद बताते हैं- "बाबूजी कभी भी हमसे अंग्रेजी में बात नहीं करते थे.उस समय रांची में अच्छे अच्छे इंग्लिश-माध्यम  स्कूल थे मगर बाबूजी ने हमारी पढाई हिंदी माध्यम के विद्यालयों में ही करवाई. उनका कहना था कि अंग्रेजी को बस भाषा के तौर पर ही पढ़ा जाना चाहिए और वो भी पुरे मेहनत के साथ मगर अपनी मातृभाषा की अवहेलना करके कदापि नहीं."उनकी लोकप्रियता के बारे में बताते हुए वे कहते हैं-" कई बार ऐसा होता था कि बाबूजी हमें फिल्म दिखाने सिनेमाघर ले जाते थे मगर बीच फिल्म में ही सिनेमाघर की बत्ती जल जाती थी, मालूम चलता था कि कुछ लोग उनकी गाडी को पहचान कर उन्हें ढूंढते हुए सिनेमाघर के अन्दर तक आ गए हैं . फिर उन्हें बीच में ही उठकर जाना पड़ता था.....".जब उनकी शवयात्रा निकली थी तो डॉक्टर्स कॉलोनी-बरियातू से  लेकर हरमू स्थित शमशान तक सड़क के दोनों तरफ हजारो-लाखों की संख्या में उनके चाहनेवाले अपनी श्रधान्जली लिए घंटो खड़े रहे थे.
मरीजों को डॉ. बी प्रसाद पे इतना भरोसा था कि कैंसर के रोगी भी जो दिल्ली-मुंबई में इलाज़ करवा के हार गए होते थे वे घंटो इनके क्लिनिक के बाहर बस इस इंतज़ार में बैठे रहते थे कि अगर एक बार वे उन्हें छू भर लें तो शायद उनकी तकलीफ ख़त्म हो जाएगी.
उनकी जिज्ञाषा की कोई सीमा नहीं थी. मेडिकल साइंस तो अपनी जगह थी ही मगर साथ साथ ही विज्ञान की अन्य शाखाओं जैसे प्लाज्मा फिजिक्स ,नुक्लियर केमिस्ट्री  एवं भूगोल , इतिहास , खेल-कूद, देश की विदेशनीति -राजनीति, अध्यात्म इत्यादि  यानी जानने लायक हर बात पे उनकी अभिरुचि हमेशा उतनी ही सजीव और संवर्धित बनी रहती थी. वे हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, भोजपुरी, बंगला, उड़िया, मैथिलि  इत्यादि तो जानते ही थे मगर बाद में उन्होंने रेडिओ की मदद से मलयालम और तेलुगु भाषा भी सीखना शुरू किया था.
एक डॉक्टर के सामाजिक सरोकार और जिम्मेदारियों को वे बखूबी समझते थे. उनके अपने दर्शन और सिद्धांत आज भी हर डॉक्टर के लिए मार्गदर्शक के रूप में उपयोगी है. वे डॉक्टर और मरीज़ के बीच  के रिश्ते को सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक तीनो स्तर  पर स्थापित करना चाहते थे, न की सिर्फ व्यावसायिक स्तर पर. यह रिश्ता पूरी तरह मरीज़ के कल्याण को समर्पित ‘समजिविता’ का होना चाहिए. मगर मरीज़ को भी अपने दायित्व का  वहन उसी जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए. वरना यह ‘समजिविता’ का सम्बन्ध बहुत जल्दी ही ‘परजीविता’ में बदल जाता  है जहाँ दोनों पक्षों में से किसी एक का आर्थिक-मानसिक-सामाजिक शोषण शुरू हो जाता है. सचमुच असाधारण प्रतिभा, विलक्षण सोच वाले विचारक, एक सच्चे देशभक्त, अद्वितीय शिक्षक ,अमूल्य  वैज्ञानिक और बिहार के लिए रत्न - डॉ बरमेश्वर प्रसाद जो जीते जागते किंवदन्ती से कम नहीं थे हमेशा हमेशा के लिए हम सबके प्रेरणाश्रोत बने रहेंगे.


डॉ बरमेश्वर प्रसाद की पुण्यतिथि पे श्रद्धांजलि 
डॉ बरमेश्वर बाबू 

Friday, June 20, 2014

इज़्ज़त

DISSECTION  हॉल में  लाश को नंगा देख
अपनी रुमाल से उसकी इज़्ज़त ढंकी,
फिर स्काल्पेल से incision देते हुए वो फुसफुसाई -
" मुर्दे भी डॉक्टर्स से इतनी सी  उम्मीद तो रखते ही हैं , भले.……!!"


Tuesday, October 29, 2013

और हिंदी दिवस गुज़र गया

और हिंदी दिवस गुज़र गया 
गुज़र गया एक बोझ जैसे 
गुजर गयी दकियानूसी खयालो की रश्म अदायगी 
कल से फिर वही फैशन परस्ती में किलबिलाते से अधखिले लफ्ज़ 
और अगले साल तक के लिए

Wednesday, April 3, 2013

रग रग में बसी मेरी रांची- An anthem for ranchi


रग रग में बसी मेरी रांची- An anthem for ranchi

(रांची मेरे सपनो का शहर है, मेरा अपना शहर है। ये गीत मैंने अपने शहर के हर एक जुडाव के  लिए लिखा है।एक गीत जो इस शहर के हरेक पहलु को समाहित करता है। अपने  भावनात्मक जुडाव को अतिशयोक्ति से बचाते हुए मगर मेरे दिल के करीब रखते हुए काफी मेहनत  से ये गीत बन पड़ा। मैं चाहता हूँ की हर एक रांची वासी तक ये गीत पहुंचे। अगर कोई इसे धुन पे पिरोना चाहे, आवाज़ के साथ साज-ले-ताल देना चाहे तो हमेशा खुला आमंत्रण है। कुछ शब्द जो परिभाषा की अपेक्षा रखते है अंत में लिख दिए गए हैं। एक कवी की दृष्टि से मेरी अपेक्षा आप सब से क्या होगी ये आप गीत पढ़ कर और गुनगुनाकर मुझे सूचित करें।----डॉ गोविन्द माधव )



फिरता हूँ सपने तलाशते 
घाघ-बाग़ महुआ पलाश के। 
हर मोड़ मुझे बाँहों में भर ले 
कैद करे यादों के पाश से।।

मैं अपने शहर से कह दूँ 

कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।
सांसो से सगी मेरी रांची।। 

खुले आसमान में सबसे कहूँ

ये मुझ में बहे, मैं इसमें रहूँ 
रग रग में बसी मेरी रांची। 
सांसो से सगी मेरी रांची।। ......

इन गलियों में गुजरा बचपन 

गूंजी किलकारी मांदर संग 
कोहबर में लिपटी दीवारें 
डोमकच , छऊ  करता हर आँगन।

सरहुल,करमा या बजरंगी 

कांके-हटिया सब एकरंगी 
बिरसा-टाना के प्राण यहाँ 
जिसे देख कम्पते थे फिरंगी।

कुडुख, सादरी, हो, कुरमाली 

खड़िया, मुंडा या संथाली 
धोनी और जयपाल के किस्से 
सुगना गाती है हर डाली।

लोहा-चांदी -सोना- हीरा

माटी से दिन-रात पनपता 
प्यार-मोहब्बत चैन-अमन 
आसमान से रोज़ बरसता।

झरनों के इस शहर को देखा 

सिंग-बोंगा के असर को देखा 
माथे पर शिव मंदिर ऊँचा 
है हाथों में सोने की रेखा

माँ  की गोद यहाँ की मिटटी 

और आसमान   है माँ  का आँचल
बूंद-धुल में लहू मिलाकर 
बरसा दूँ खुशियों के बादल। 


मैं अपने शहर से कह दूँ 
कह दूँ मैं अपने शहर से .....
रग रग में बसी मेरी रांची।


शब्द परिभाषा
घाघ= झरने
मांदर = झारखण्ड का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र 
कोहबर = लोक चित्रकारी की एक शैली 
डोम कच / छऊ = लोक नृत्य की शैली 
सरहुल / करमा  = आदिवासी पर्व 
बजरंगी = रामनवमी का प्रतिक शब्द 
कांके/हटिया = स्थान 
बिरसा/टाना = स्वतंत्रता सेनानी 
कुडुख/ सादरी .......= आदिवासी जनजातीय भाषा 
धोनी/जयपाल = रांची के खेल हस्ती 
झरनों का शहर = city of waterfall, Wikipedia
सिंग-बोंगा = आदिवासी देवता 
शिव मंदिर= पहाड़ी मंदिर 
सोने की रेखा = स्वर्णरेखा नदी  
  

Friday, March 8, 2013

पुरुष ट्रेक्टर तो महिला कंप्यूटर

पुरुष ट्रेक्टर तो महिला कंप्यूटर-महिला दिवस पर 




सुनने में थोडा अजीब भले लगे, मगर सोचिये जरा सा तो इस बात की असली गहराई समझ में आयेगी।
आज समाज में नारी उत्थान, महिला ससक्तिकरण,स्त्री विमर्श इत्यादि नारों के साथ न जाने क्या क्या लिखा जा रहा है। आन्दोलन, कानून, विधेयक,नैतिकता और न जाने क्या क्या। मगर मैंने जब एक साधारण बूढ़े से दुकानदार की ये बात सुनी तो मुझे अजीब सी ख़ुशी मिली। लगा जैसे मेरे कई सवालों के जवाब मिल गए हो।

समाज में फैली लिंग विषमता और नारी उत्पीडन के बारे में बचपन से ही पढता,सुनता, देखता और महसूस करता आ रहा हूँ। कई तरह के सवाल मन में रोज़ पनपते थे। पहला सवाल  तो ये कि क्या सच में नारी के साथ अत्याचार होता है? क्यों कि अपने घर में मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। माँ को घर की गृहस्थी पे पूरा अधिकार प्राप्त था।बुआ दीदी सब को बराबर की स्कूली  शिक्षा मिली थी।हाँ उन्हें ऑफिस में नौकरी के लिए भले नहीं भेजा गया था।क्यों कि उन्हें पैसे कमाने से भी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी दी गयी थी -हम बच्चो को पढ़ाने की।परिवार सम्हालने की। अब ये काम या फिर जिम्मेदारी किस तरह उनके आजादी में बाधक थी, या फिर किस तरह उनके अरमानो का गला घोंटा गया था ...ऐसी कोई बात मुझे अपने बचपन में नहीं समझ आ रही थी।
ज़माना बदला। घर छोड़कर बाहर निकला तो कुछ अहसास हुआ। मेरे घर में भले नहीं मगर कई जगहों पे विषमता है।मुझे समझ में आ गया कि - कई घर ऐसे हैं जो भले पढ़े लिखे हों मगर वास्तविक शिक्षा से कोसो दूर की मानसिकता लिए बैठे थे। दहेज़, स्त्री भ्रूण हत्या,समाज में गिरता स्त्री-पुरुष अनुपात,बलात्कार,शिक्षा से वंचित आधी आबादी, कुपोषण से ग्रसित ग्रिह्शोभाएं,चिकत्सा रोग बिमारी में भी दोहरा मानदंड,नशबंदी में भी महिला को दी जाने वाली जबरन जिम्मेदारी,कम उम्र में शादी, घर से बाहर निकलने में पाबंदी,मन के मुताबिक़ जीवन साथी या पेशा  न चुन पाने का दर्द…. मन सच में डर गया। आखिर इंसान इंसान में ये भेद भाव क्यों? आखिर किसने दे दी है पुरुषों को शासन करने की इज़ाज़त? किसने ये हक दे दिया कि पुरुष ही भाग्य विधाता बन जाए आधी आबादी की? आखिर इसका उपाय क्या है? तो क्या मानवता के नाते अब नारी को शासन की बागडोर सौंप दिया जाना चाहिए ? तो क्या कानून बना कर नारी को पुरुष से श्रेष्ठ घोषित कर दिया जाना चाहिए?

मन फिर से उद्विग्न हो रहा था। मैं एक शाम शहर की लाइब्रेरी के पास वाली चाय दूकान में बैठा बसंत ऋतू की वास्तविक सुन्दरता को भीड़ से भरे इस शहर की रफ़्तार में महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि सामने से एक रैली गुजरी। कई सारे स्कूलों की लड़कियां, फिर महिला क्लब के मेंबर्स, और सुरक्षा के लिए महिला पुलिस .....नारे लग रहे थे। महिला ससक्तिकरण का जूनून दिख रहा था। कुछ मौकापरस्त अधेड़ पुरुष भी अपनी आँख सेंकने के लिए ही सही इस आन्दोलन में बैनर थामे साथ हो लिए थे।कुछ लड़कियों के आशिक भी अपने दोस्त को साथ लिए मोटरसाइकिल में भीड़ के पीछे पीछे चल रहे थे। बीच बीच में चिल्ला भी रहे थे और अपनी मोबाइल से अपने निशाने पे फ़्लैश भी चमका रहे थे। कुछ पत्रकार भी "मिशन ब्यूटी हंट" की तरह खुबसूरत चेहरों को खोज कर कैमरे में कैद करने की लगातार कोशिश कर रहे थे। उन्हें  मालूम था की इन चेहरों को वो पुरे साल तक "फाइल चित्र" बनाकर नारी ससक्तिकरण  के नाम पर अपनी बिक्री बढाने के प्रयोग में लाते रहेंगे।शाम ढलने लगी थी तो कुछ लड़कियों के घरवाले भी पहुंचे हुए थे सुरक्षा की चिन्ता से। कुछ अतिउत्साही महिलाएं पुरुष विहीन समाज की कल्पना को जोर दे रही थी। एक महिला ने तो अपने पति को तलाक की धमकी दे डाली थी - ऐसा उसने आगे मैदान में होने वाले नारी संग्राम सभा में भाषण में कहा। संग्राम, लड़ाई, आन्दोलन, उर्जा युक्त नारे और ढेर सारी कहानियाँ। एक महिला ने कहा- "मैं क्यों खाना बनाऊं? किसने कहा की बच्चो के देखभाल की जिम्मेवारी पुरुष की नहीं है? मैं भी अपने पैर पे खड़े होना चाहती हूँ, नौकरी करना चाहती हूँ, मेरे पति को मजबूरन नौकरी छोड़कर घर में बैठना पड़ा और घर का काम अब वो ही करता है". सम्मलेन में तालियों की गूंज हुई। करतल ध्वनि के साथ उत्साह का महासागर उमड़ उठा। एक महिला ने जो पुरुस्हीं की तरह के परिधान में यानी कोट -पैंट -टाई में थी उसने कई सारे उदाहरण गिना दिए, व्यवसाय में महिलाओं द्वारा जड़े  गए कीर्तिमान,खेल कूद में जीते गए पदक, विज्ञान और शोध में नए आयाम,सेना,फैशन,क्रिकेट, wwf fighting तक में महिलाओं की भागीदारी और प्रशाशन में भी उनका योगदान या भागीदारी। सच में प्रेरणा दायक। फिर से जोश।मन को सुकून का अहसास तो हुआ। मगर फिर से सवालों के खेप के खेप उतरने लगे मन के आंगन में।

आखिर ये लड़ाई क्यों? बेहतर कौन? क्या सच में दोनों एक सामान हैं? ये संग्राम कहीं  अलगाववाद तो नहीं?कम्पटीसन की तैयारी कर रहे एक बेरोजगार ग्रेजुएट ने दुःख भरे व्यंग के साथ कहा-"सोचिये न एक तरफ तो ये सब समानता की बात करती हैं, और दूसरी तरफ आरक्षण भी मांगती है? अगर बराबर ही है तो फिर आरक्षण कैसा??"मैं इसका जवाब सोच ही रहा था कि तभी उस बूढ़े चाय वाले ने कहा-" क्या बाबू?आप लोग तो मेडिकल के विद्यार्थी हैं?आप ही बताइये कि क्या सच में भगवान् ने उन्हें इस तरह संग्राम करने के लिए बनाया है? आखिर इनमे से बेहतर कौन है? क्या शारीरिक ताकत ज्यादा होने से ही पुरुष शासन का अधिकारी हो जाता है? अगर सिर्फ महिलाओं को सारे अधिकार दे दिए जाएँ तो ये पुरुषों का क्या करेगी? क्या अपना अलग थलग समाज या दुनिया बसाएगी या फिर पुरुषों को गुलाम बना लेगी? तो फिर क्या पुरुष ही बच्चे पैदा करेंगे? "
मैं अपना पक्ष निर्धारित नहीं कर पा रहा था। आखिर सच क्या है? आखिर सही कौन है? आखिर आदर्श समाधान क्या है? मैंने अपने असमंजस के भाव को अपने चेहरे से ही स्पष्ट हो जाने दिया।तब उस बूढ़े आदमी ने कहा-" मुझे तो बस इतना पता है कि पुरुष अगर ट्रेक्टर है तो स्त्री कंप्यूटर है। शारीरिक ताकत ज्यादा होने पर ट्रेक्टर खेत तो जोत सकता है, भारी भरकम काम कर सकता है, अपनी विशालता का प्रदर्शन कर सकते  है,मगर कंप्यूटर की तरह जटिल काम नहीं कर सकता। मस्तिष्क ज्यादा विकसित है कंप्यूटर का। कंप्यूटर भी चाहे तो अपनी क्षमता पर इठलाये, घमंड करे, मगर वो भी ट्रेक्टर वाले काम नहीं कर सकता ना। अब कंप्यूटर बनाने के लिए भी ट्रेक्टर से कल पुर्जे आते हैं, और ट्रेक्टर बनाने के लिए कंप्यूटर की जरुरत पड़ती है। तो एक दूजे के बिना तो दोनों का अस्तित्व खतरे में है। अब फैसला इन्हें करना है कि ये इस तरह संग्राम कर के अलग अलग रहना और ख़त्म हो जाना पसंद करेंगे, या फिर एक दुसरे के महत्व को स्वीकारते हुए बिना किसी रेस लगाए सहस्तित्व को अपनाते हुए दुनिया को आगे बढाते हैं।"

मैंने भी अपने बायोलॉजी के ज्ञान को  खंगालना शुरू किया तो उस बूढ़े आदमी का उदाहरण एकदम सटीक बैठ गया।  Biologically ये एकदम परफेक्ट उदहारण है. अगर मुझसे कोई पूछ दे कि लीवर और किडनी में कौन बड़ा है तो मैं क्या जवाब दूंगा? और अगर कोई मुझसे पूछे की दोनों बराबर हैं क्या? तो भी मैं निरुत्तर ही रहूँगा।दरअसल भगवान् ने नारी और पुरुष दोनों को अलग अलग ही बनाया  है। और  इसके पीछे भी कई प्रयोजन हैं। स्त्री शारीरिक रूप से कोमल है, कमजोर कहना सही नहीं है, मगर जटिल भी है। भावनात्मक रूप से ज्यादा उन्नत है,किसी भी भाव के अभिव्यक्ति कर सकने में ज्यादा सक्षम है। और इसलिए उसे रचनात्मकता में सर्वोतम यानि जीवन की रचना करने की क्षमता और जिम्मेदारी है। पुरुष मांशपेशियों की ताकत से युक्त है,मगर ह्रदय से कठोर।इसलिए रक्षा,शारीरिक परिश्रम या पसीने बहाने वाले कार्य इसके अनुरूप हैं।

और इन दोनों प्राणियों के बीच संतुलन ही मानवता की पहचान रही है। अगर राजनीति,मौकापरस्ती,शक्तियों का दुरूपयोग,स्वार्थ और अंधी दुस्पराम्पराओं को मिटा दें तो फिर शायद महिला दिवस की आवश्यकता न रहे। फिर कोई कुटिल चाल नहीं चली जायेगी। फिर कोई आजादी के नाम पर अलगाववाद की आग नहीं फैलाएगा। फिर कोई बड़ा और बेहतर कौन या समानता जैसे काल्पनिक मुद्दों पे बांटकर संग्राम नहीं करवा पायेगा।