Wednesday, August 3, 2016

रिश्तो की फेहरिश्त



जैसे जैसे उम्र बढती है ,
रिश्तो की फेहरिस्त लम्बी होती जाती है ...
और फिर बंट जाते है हमारे 24 घंटे छोटे और छोटे टूकडो मे इन्ही रिश्तो के बीच .
सबको खुद पे बराबर का हक कहां दे पाता है कोई ?
कुछ अनायास ही छूटते हैं और कुछ जान बुझ कर भूलाये जाते हैं और कुछ .... 
मगर लिस्ट लम्बी ही होती जाती है . 
अब इसी 24 घंटे और बंटवारे के दर्मयान जो चीज सबसे पीछे छूट जाती हैं वो हैं खुद से खुद की गुफतगु.
और फिर आखिरी पडाव पे थम जाता है तनहाई का सफर

और दूर दिवार पे सजती रहती हैं ever ग्रोविंग रिश्तो की फेहरिस्त !!!

Thursday, April 28, 2016

क्या मुझे अपना मोबाइल नंबर मरीजों को बाँटना चाहिए?

अभी ३६ घंटे  की लगातार ड्यूटी कर के लौटा था. थके मन ने खाने की जगह सोने को ताबज्जोह दी. बिखरे  पड़े कमरे में सोने के लिए जगह बनाता  लुढका तो होश ही नहीं रहा की मोबाइल तब से साइलेंट मोड में ही पडा हुआ है. कुछ देर बाद जब आँख खोलने के लायक हुआ तो अँधेरे कमरे में जो पहली जरुरत महसूस हुई वो मोबाइल के टोर्च वाली रौशनी की. ओह! 18 मिस्स्काल्ल्स. और 2 मेसेज भी. और ढेर सारे whatsapp के messages और एक फेसबुक का चैट-विंडो.
पहली जिज्ञासा missed calls की थी. मम्मी के दो थे, उन्हें आखिरी में कॉल बैक करूँगा.  4 मेरे दोस्तों के थे जिन्होंने गेट-together  प्लान किया था. सब पहुँच गए थे मगर मैं....खैर अब इन्हें बाद में समझाया जाएगा. 5 - 6  unknown नंबर्स थे. और बाकी मेरे मरीजों के. शुरुआत उन्ही से की. कुछ ठीक थे, कुछ गड़बड़. कुछ को बुलवा लिया कुछ को यथासंभव फ़ोन पे ही सलाह दे दी. हालाँकि मरीजों को मोबाइल  नंबर देना -पता नहीं कितना सही है. कुछ तो आपकी मजबूरी समझते हैं, समय देखकर कॉल करते हैं वो भी बहुत जरुरी हो तो. मगर अधिकतर तो बिना सोचे समझे कभी भी फोन कर देते हैं. जैसे-
"...आज घर में मटन बना था तो पापा को खिला दे क्या? "
"....आज न मेरी बेटी को बुखार जैसा लग रहा है,क्या करें दिखा दे डॉक्टर से या एक दो दिन इंतज़ार कर ले?आप मुझे नहीं पहचाने,मैं अपनी साली को लेकर दिखाने आया था?"
"....अच्छा आज रांची बंद है क्या? कुछ काम से रांची आना था तो आप रांची में थे न तो सोचे की आप से ही पूछ लें?"
".....अच्छा डॉक्टर साहब आप देखे थे मेरे जीजाजी को तो हम सोच रहे थे की एकबार उनको एम्स में दिखा लें, क्या सलाह रहेगा आपका. मान लीजिये कि आप तो देख हि रहे हैं मगर एक संतुष्टि के लिए.?"
"....वो जो मेरी पडोसी थे जिनको कि हमलोग प्राइवेट हॉस्पिटल में ले गए थे दिखाने के लिए,आपके हॉस्पिटल में AC नहीं था न इसलिए, तो वो वाले डॉक्टर साहेब तो विदेश गए हुए हैं, अभी उनको थोडा सा लूज़ मोशन हो गया है तो सोचे की आपही से पुच लेते हैं,आखिर आपको भी तो इतना नॉलेज तो होगा ही न. न हो तो किसी सीनियर डॉक्टर का नाम बताइए न उन्ही से दिखा लेते हैं?...... "
...
...
और भी इसी तरह के कई वाहियात सी बातें. भाई सरकार हमें फ़ोन उठाने का पैसा थोड़े न देती है. और इस सरकारी अस्पताल में हम बिना फीस के मरीज़ देखते हैं, सांस लेने के लिए भी घडी देखते हैं, उसमे ऐसे फ़ोन कॉल्स...और न उठा पाए तो रोबदार नाराज़गी भी.

Wednesday, April 6, 2016

सुसाइड का फैशन

एक कहावत है-"दिन की शुरुआत अच्छी हो तो दिन अच्छा होता है"
मगर दिन की शुरुआत सुसाइड की खबर से हो तो...?
एक गज़ब का फैशन सा बनता जा रहा है- आत्महत्या या फिर  अंग्रेजी वाली सुसाइड करने का .

अगर मीडिया के बिकते-गिरते नज़रिए पे ज़रा सा भी यकीं कर लिया जाए तो हर आत्मघाती/सुसाइड-कर्मी(!!) को एक शहीद की तरह दिखाया जाता है. और फिर बिना सोचे समझे तुरंत ही एक विलेन ढूंढ  लिया जाता है. असली विलेन चाहे जो भी हो, मगर सुर्ख़ियों के माध्यम से कुख्यात-घृणा पात्र वो विलेन बनता है जिसपे ज्यादा  से ज्यादा TRP बटोरी जा सके. इशारा तो आप समझ ही गए होंगे. प्रेमी,यौन शोषक,पूर्व पति,लिव-इन -रिलेशनशिप वाला यार या फिर ऐसा कोई शख्स  जिसके माध्यम से हम उन सारी संभावनाओं पे खुल कर चर्चा कर सकें जो हमारी कुंठित मानसिकता के बोझ तले दबी हुई दहाड़ने को बेताब रहती है.

क्या सच में सुसाइड करने वाला व्यक्ति इतनी sympathy का हक़दार होता है जितना कि हम बिना कुछ सोचे समझे दे देते हैं?

क्या सही में ये sympathy - हमारी उस अंधी-बहरी मगर आधी गूंगी उस मानसिकता का परिचायक है जिसमे मरने के बाद हर व्यक्ति महान बन जाता है- चाहे वो जीते जी हमारे लिए परम-निन्दनीय क्यों न रहा हो. उदाहरण के तौर पे आप अपने महानतम राजनेताओं को ले सकते हैं जो मरते के साथ ही स्मारक चिन्हों में खुदकर अमर होने लग जाते हैं.

और क्या ये क्षणिक-क्षद्म-ओछी sympathy सुसाइडकर्मी को मरने के लिए और प्रेरित नहीं करता? कहीं न कहीं हर आत्मघाती के मन में यही दबी ख्वाइश रहती है कि शायद उसके मरने के बाद उसकी खामियों को भुला दिया जाएगा और उसके महानता की बातें सब जगह परोसी जायेगी. कम से कम कैंडल-मार्च या शोक सभाओं में तो जरुर उसका गुणगान किया जायेगा. और ऐसी शोक-सभाओं के भव्य -गंभीर आयोजनों का बढ़ता फैशन तो और अधिक इनके सुसाइडल tendency को प्रोत्साहित करता है.

सुना है isis के लड़ाके  भी सुसाइड बॉम्बर इसी भुलावे में बनते  हैं कि मरने के बाद जन्नत में उन्हें....और उनके परिवार को......क्या उनके लिए भी हम वही नजरिया रखते हैं?
और फिर राजस्थान की सती-प्रथा के सुसाइडल-legacy को आप किधर रखते हैं?
और क़र्ज़ में डूबे किसानो की आत्महत्या वाले पीपली-लाइव के चरित्र पे होने वाली राजनीति भी एक अलग ही फिलोसोफी दिखाती  है जिंदगी की .

और "शंघाई " फिल्म का वो बेचारा छला हुआ सुसाइडकर्मी जिसे आत्मदाह के प्रयास मात्र के लिए पैसे का लालच दिया गया था इस भरोसे के साथ कि  उसे हर हालत में बचा लिया जाएगा, मगर मीडिया और एडवेंचर देखने के पिपासु आँखों के सामने उसे जल कर पकने  के लिए छोड़ दिया जाता है अपनी पोलटिकल लिट्टी के लिए चोखा-भरता  सेंकने के लिए.

Saturday, February 20, 2016

100 kisses of death: episode 2- मौत का भरोसा

हाथ पैर नीला था -एकदम cyanosed. BP एकदम कम- shock में थी वो. dopamine और dexona देने पे जैसे ही होश में आई-" गोविन्द सर कहाँ हैं? गोविन्द सर को बुलाइए ना! वही बचाए थे पिछली बार हमको. सर! आप आ गए ना!...." उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. हाथ अब तक नीले थे और पसीने से तरबतर. मैंने ऑक्सीजन मास्क को हटाने की उसकी कोशिश को नाकाम करते हुए अपनेपन वाली अधिकार भरी डांट लगायी-" एक सेकंड के लिए भी ऑक्सीजन का मास्क निकलना नहीं चाहिए." और फिर जब प्रेशर 70 mm के पार गया तो मैं बाकी मरीजों को देखने लग गया. आज मेरे हॉस्पिटल रिम्स के इमरजेंसी में जबर्दश्त भीड़ थी. सुबह 9 बजे से अब तक 60 मरीज़ भर्ती कर चूका था...जबकि बेड सिर्फ 24 हैं  हमारे पास. उसके पति ने हसरत भरी निगाह से मुझे देखा-" सर ठीक तो हो जाएगी ना. आप ही भगवान् हैं सर, बचा लीजिये. रास्ते भर आपका ही नाम लेते आ रही थी, पिछली बार की तरह इस बार भी....." आँखों में मजबूरी और दर्द की बूंदे जगह बनाने लग गयी थी. खुद को कमजोर होता देख मैंने उसे कुछ जांच की रशीद कटाने  के लिए भेज दिया.

पिछली बार यानि करीब २ महीने पहले - वो एडमिट होकर आई थी मेरे वार्ड में. 35 साल की उम्र थी, दो बेटियों की माँ, मगर अभी भी इंजेक्शन के नाम से भाग खड़ी होती थी. फेफड़े में पानी भर गया था उसके. लोकल डॉक्टर ने TB की दवा स्टार्ट तो करा दिया था मगर प्लयूरल taping यानि फेफड़े से सिरिंज से पानी निकलने का रिस्क नहीं लिया. कुछ दिन तक इस भरोसे रखे रहा की दवाई से ही पानी सुख जाएगा. मगर जब सांस की तकलीफ इतनी अधिक बढ़ गयी कि  दो कदम चलना मुश्किल तो सीधे रेफेर कर दिया. बहुत प्यार से काउंसलिंग करनी पड़ी थी उसकी- तब जाकर पानी निकलवाने के लिए तैयार हुई थी.

"milliary kochs लग रहा है सर! मगर एक महीने हो गए TB की मेडिसिन्स खाते , अब तक जरा सा भी इम्प्रूवमेंट नहीं दिख रहा है? कहीं ये MDR- यानि multi  ड्रग रेसिस्टेंट TB तो नहीं जिसपे सारी दवाइयां बेअसर है. या फिर ये lung malignancy यानि कैंसर भी हो सकता है या कोई फंगल इन्फेक्शन , मगर CT स्कैन, फ्लूइड एनालिसिस,स्पुटम टेस्ट, रिपीट x-ray सब  तो करा लिया है हमने, सब जगह तो TB के ही लक्षण हैं. ...यानि मेरा डिसीजन एकदम सही है न सर? " उस दिन मैंने कई और लोगों से राय ली थी इस केस के बारे में और फिर लगभग निश्चिंत था अपने ट्रीटमेंट प्लान के बारे में. maybe she will respond late...

रात के डेढ़ बजे जब मैं वार्ड से राउंड लेकर लौट रहा था तो लगभग निश्चिंत था- वो ICU में शिफ्ट हो गयी थी मेरे सामने. ऑक्सीजन लेवल मेन्टेन हो रहा था, BP भी इम्प्रोविंग ट्रेंड में था. तभी उसका पति बेतहाशा दौड़ा आया मेरे पास- "सर चलिए न, वो कैसे तो हो रही है? बहुत सीरियस है सर!"
वो फिर से गास्प कर रही थी यानि आखिरी वक़्त वाली उलटी लम्बी सांसे. गले से घरघराहट की आवाज़. शायद aspirate कर गयी थी. जब तक atropine, deriphyllin जैसे लाइफ सेविंग ड्रग्स लाता, उसकी सांसे रुक चुकी थी. उसके पति ने भीगे-घिसटते आवाज़ में कहना जारी रखा- " सर! तीन दिन से ऐसे ही साँस ले रही थी. मगर हम आज ही लेकर आये क्यों कि आपकी इमरजेंसी शनिवार को ही रहती है, और मुझे या इसे किसी और डॉक्टर पे भरोसा ही नहीं था. इसे किसी और वार्ड में  एडमिट नहीं होना था स...र......"

मैं अपने आप को सम्हाल नहीं पा रहा हूँ. क्यों किया था उसने मेरे ऊपर इतना भरोसा? और क्या दिया मैंने उसे इस भरोसे के बदले? दो दिन पहले आ जाती तो क्या हो जाता? किसी भी दुसरे डॉक्टर से दिखा लेती तो क्या हो जाता? कहीं सच में उसे कुछ और बिमारी तो नहीं थी जो मेरी नादानी के कारण बढती चली गयी और....कितना गलत है कम नॉलेज के साथ मरीज़ का इलाज़ करना...मगर मेडिकल साइंस में तो हर दिन कुछ न कुछ बदल जाता है और नए तथ्यों के आते ही पुराने तथ्य बेवकूफी लगने लगते है....मगर फिर भी क्या जरुरत थी मुझे उसका भरोसा जीतने  की? मुझे चुपचाप से अपना काम करना चाहिए था...ना मैं कोई रिश्ता बनाता, जैसा की मैं अपने हर मरीज़ से बना लेता हूँ, और ना ही वो मेरे भरोसे मौत की और खिसकती .... और अब मैं किस नज़र से उसके पति को बताऊंगा कि वो मर गयी है....वो बेचारा तो इतनी रात को nebulisation की रेस्पुल लेने भागा फिर रहा है बिना चप्पल के ही-क्योकि मैंने कहा था!


Monday, November 23, 2015

100 kisses of death: episode01- "आधे लाश की मुक्ति"


अजीब तमाशा है यहाँ ? सुबह से हम परेशान खुद  से ट्राली खींचते घूम रहे हैं, कभी ENT वार्ड, कभी ओर्थो  तो कभी न्यूरो वार्ड! अरे कम से कम एडमिट तो कर लिया जाता हमारे पापा को. इनके साथ साथ घूमते तो हम खुद ही मर जायेंगे. क्या इंसानियत मर गयी है सब की? कुछ इलाज़ तो स्टार्ट  हो जाता फिर जांच वांच  करा के फैसला होते रहता कि किस विभाग में भरती करा के इलाज़ होना है, किस टाइप की बिमारी है?”
गुस्से से मिक्स्ड विवशता का बोझ उठाये उस बेटे के चेहरे को देख कर मुझसे रहा नहीं गया.
ओर्थो ने एडमिट करने से मना कर दिया...जबकि ट्रॉमेटिक पराप्लेजिया का केस था - यानि चोट के कारन नाभी  के नीचे  का हिस्सा बेजान. २६ अक्टूबर को रोड एक्सीडेंट हुआ था इनका. तब से सदर में एडमिट थे . ठीक ठाक ही तो बात कर रहे थे अभी तीन दिन पहले तक. फिर अचानक बात करना बंद कर के लम्बी लम्बी सांसे लेने लगे. वहां के डॉक्टर तो हमें ही ही डांट कर भगा देते थे, जब भी हम थोडा पानी सेलाइन वगैरह चढा देने की बात करते थे तो.वह साथ आये चाचा से बतिया रहा था,जब तक कि मैं उसके एडमिशन पेपर बना रहा था.
रिम्स में मेडिसिन वार्ड में भर्ती कराने के साथ ही उनके चेहरे पे असीम संतुष्टि के भाव मचलने लगे थे. और उसके  बाद सुबह शाम हाजिरी बनाने आते थे उसके घरवाले. जैसे कोई रोस्टर बन गया हो...आज का दिन फुवा का, आज बहु का, आज पोते का तो हर दुसरे दिन इसी बेटे का. बाकी टाइम सिरहाने रखी दवाई की पोटली से ही मरीज़ का हाल चल पूछ लिया करता था मैं राउंड देने के वक़्त.
और उस दिन की बारी थी शराबी किरायेदार की. ryles tube ब्लाक हो गयी थी शायद. भूखे आत्मा को लम्बी सांसे लेता देख उससे रहा नहीं गया और मुंह से मौत का निवाला पिला  दिया.
मौत के बाद बेटा  और बहु लगभग निश्चिंत थे. मगर समाज की रश्म अदायगी के लिए मौत का कारण ढूंढने  डॉक्टर के पास हमलावार लफ्ज लेकर पहुंचे. ठीक इलाज़ नहीं किया आपने ....
डॉक्टर ने अपनी जान छुडाने के लिए ब्लड रिपोर्ट में से किडनी फेलियर की बात जैसे ही निकाली, उन्हें मानो नया हथियार मिल गया हो-अब फुवा की औकात जो इलज़ाम लगाए कि  हमने इलाज़ नहीं करवाया. धन्यवाद डॉक्टर साहब! आपने बहुत मदद की हमारी...अब तो जैसे हमलवार लफ्ज अपनी  दिशा पलट कर फुवा की तरफ बढ़ने लगे थे.
अपने करतूत से अनजान शराबी किरायेदार कफ़न के इंतज़ाम में लगा हुआ कहता जा रहा था- हमारे ही हाथों से पानी पीकर बाबा ने अपनी आखिरी सांस ली, शायद मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे. नसीब में बेटे के हाथ का पानी भी नहीं था.

मरी हुई आत्मा जाते जाते जैसे लाश के चेहरे पे अनंत शान्ति का भाव छोड़ गयी थी.सच में मुक्ति मिल गयी थी शायद, वरना आधे मरे शारीर का बोझ उनकी आत्मा के लिए ढो पाना तो ..........


खैर ये था मेरे डेथ रजिस्टर का पहला पन्ना. 

Sunday, October 19, 2014

Entropy of Life and Diseases

Entropy of Life and Diseases  


मेरे इंजिनियर दोस्त ने अपनी नयी ऑडी खरीदने की पार्टी में मुझसे पूछा – “यार तू इतने साल से पढ़ रहा है , मगर कुछ नया क्यों नहीं करता मेडिकल साइंस में? लुइस पास्चर 200 साल पहले वैक्सीन बना के मर गया , मगर तुमलोग आजतक बस उसी पे अटके हुए हो. यार गोविन्द तू कुछ कर यार ! कुछ ऐसा कि कोई बीमार ही न पड़े. कहने का मतलब ऐसी कुछ तरकीब बना कि ये दवाओं का, हॉस्पिटल का, तेरी इतनी लम्बी पढाई का, फालतू के टेस्ट्स का लोचा ही ख़त्म हो जाए जिंदगी से. दुनिया डिजीज फ्री हो जाये!”. उसने कहना जारी रखा-“ मैं तो रोज़ एक्सरसाइज करता हूँ, हेल्दी डाइट लेता हूँ, रेगुलर चेक-अप करवाता हूँ, कोई बुरी आदत नहीं है, माँ - बाप भी पूरी तरह स्वस्थ हैं फिर मुझे क्यों हुआ ये अल्सरेटिव कोलाइटिस ? मेरे दोस्त को क्यों नहीं हुआ कैंसर जो इतना धुआं धुआं के जलवे बिखेरता है?कुछ तो प्रोटोकॉल होगा भगवान् के पास कि किसे बीमार करना है, कब करना है, कितना करना है और किसे नहीं करना है??”

उसकी दार्शनिक बातों से प्रभावित सा होता हुआ मैं ख्यालों में खोने लगा. हालाँकि उसकी आगे की बातों में उसके बायोलॉजी के अल्पज्ञता का उन्मुक्त प्रदर्शन हो रहा था और बेमतलब के सवालों की बौछार थी मसलन- “यार मुझे होल बॉडी चेक  करवाना है. मुझे यादाश्त बढाने वाली सुई लगवा दे. कल से मेरी गर्लफ्रेंड को सर दर्द हो रहा है, कहीं कोई ब्रेन ट्यूमर तो नहीं हो गया?..इत्यादि.” इन बातों में उसकी जिज्ञासा कम और उसकी उपलब्धियों और ऐशोआराम का प्रतिशत हर मिनट एकसमान त्वरण से बढ़ता जा रहा था, और व्युत्क्रमानुपाती दर से मेरी अभिरुचि कम होती जा रही थी. मगर मन के अधिकतर हिस्से पे मेरी जिज्ञासाएं और आत्ममंथन प्रक्रिया के प्रोग्राम्स रन करने लगे थे.

मन की स्थिति को समझते हुए मैंने जाकर दामन पकड़ लिया अपनी बाइक का - जो कि  मेरी हर दार्शनिक क्षणों में मेरा सगिर्द रहा है. या यूँ कहें कि अपनी बाइक पे तन्हाई का दामन  थामे जब मैं रांची की जानी-पहचानी गलियों में भटकता हुं तभी सारी जकड़नो  से आज़ाद मेरे मन में खुले विचारो का आना जाना हो पाता है. रानी हॉस्पिटल के बगल से गुजर रहा था कि रोड पे एक मंगोल-इडियट  बच्चा माँ की ऊँगली पकडे गुज़र रहा था. कुछ दूर आगे राज भवन के पास एक रईसजादे की सफारी से टकरा कर इवनिंग वाक पे निकले बाबा की टांग टूट गयी थी. रॉक गार्डन के सामने अल्बिनिस्म से ग्रस्त मगर अपनी जिंदगी में मस्त एक बाबा love-लाइफ की ज्योतिषी झाड रहे थे. और कांके ब्लाक के पास तो......आप समझ ही गए होंगे कि क्या देखा होगा मैंने? इन सब लोगों में एक बात कॉमन थी, वो ये कि इन सब की बिमारियों में इनकी कोई गलती नहीं थी. मन बहलाने वाले तर्कों ,जिन्हें pshychology के शब्दों में ‘डिफेंस मेकेनिस्म’ कहते हैं, का सहारा लिया जाए तो हम इसे पूर्व जनम के कर्मो का फल कह कर बात टाल सकते हैं मगर असलियत तो...?

मेरा मन इस्वर की नाइंसाफी से व्यथित हो रहा था और मुझे ये पंक्ति याद आ रही थी –“आश्चर्य का विषय ये नहीं है कि हम बीमार क्यों पड़े? बल्कि ये बात आश्चर्यचकित कर देने वाली है कि ऐसी दुनिया में हम निरोग कैसे हैं!!!”

सच में असंख्य संभावनाएं हैं कि जन्म लेने की प्रक्रिया में ही हमें कोई न कोई रोग अपना दोस्त बना ले. चाहे क्रोमोजोम में हो जाने वाले एकदम से अनिश्चित म्युटेशन का गिफ्ट  हो या फिर कोख में पड़े पड़े किसी जीवाणु से रिश्तेदारी की सौगात. ज़िन्दगी की पहली सांस लेने की दहलीज़ पे ही लेट हो जाने का सौभाग्य या छठी-मुह्जुठी के अवसर तक स्वादिष्ट व्यंजनों तक पहुँचने की हड़बड़ी का फल. यानि जिंदगी हर कदम पे सांप-सीढ़ी  वाले खेल के जैसी है जिसमे किसी भी चाल पे आप ग्रस्त हो सकते हैं. भले ही लाख सावधानी से भरा कदम आप बढ़ाएं, आपका कोई भी कदम आपको बीमार कर सकता है एकदम ही रैंडम तरीके से.

सवालों की फेहरिश्त लम्बी होती जा रही थी और जवाब खोजने की व्याकुलता भी. क्या बिमारियों से मानवता की यारी अनवरत चलते रहने वाली है? क्या जब से जीवन है इस दुनिया में तब से ही बीमारियों का भी अस्तित्व है? क्या ‘सम्पूर्ण निरोग शारीर’ भी एक misnomer है ‘परफेक्ट पीस ऑफ़ वर्ल्ड’ की तरह? अगर सभ्यता के evolution के साथ रोग-व्याधियों का भी उत्क्रमित विकास जारी रहता है तो फिर भविष्य कैसा होगा हमारा ? और अगर मृत्यु एक चरम सत्य है और बीमारियाँ उस सत्य तक पहुंचाने वाली एक सीढ़ी – तो फिर हम डॉक्टर्स क्यों बाधा उत्पन्न कर रहे हैं ईश्वर के पवित्र कार्य में? मेरे पुराने अधकचरे अध्यात्मिक ज्ञान के कोने से एक तथ्य ने अपना हाथ खड़ा किया- “diseases are the natural way of balancing population and resources” ! मगर मन के दुसरे कोने में पड़े नास्तिक तथ्यों ने तुरंत ego का स्थान लेते हुए जवाब दिया- “what if there is no nature, no गॉड ? “ फिर सुपरईगो  ने दोनों पक्षों में संधि स्थापित करने की अपनी आदत का सहारा लेते हुए तात्कालिक सुझाव दिया-“ विनाश ही कारण बनता है नए निर्माण का. अगर भूकंप न होता तो जापान और गुजरात इतनी तरक्की नहीं करते! अगर हम थकें नहीं तो खायेंगे ही नहीं, सोयेंगे ही नहीं. बस उसी तरह अगर हम बीमार पड़ने के डर  से मुक्त हो जाएँ तो हम कभी ख्याल ही नहीं रखेंगे अपने शरीर का. और तब हम सभी स्वास्थ्य नियमो को ताक  पे रख कर अपनी प्रकृति की घोर अवहेलना करते हुए एक अव्यवस्था को जन्म देंगे जिसमे सब कुछ अव्यवस्थित हो जायेगा. एकदम से रोगी-क्षीण-हीन.”

व्याकुलता के उच्चतम स्टार तक पहुँचते हुए मैं xaviers कॉलेज के पास पहुँच गया था. ओह! इस जगह से कितनी यादें जुडी है मेरी? कितनी ही दफा एकतरफा प्यार हुआ था मुझे यहाँ . उन्ही यादों को सहलाने का कोई भी मौका मैं नहीं गंवाता था. क्यों कि ऐसे क्षणों में आप अपने तात्कालिक माहौल से आज़ाद हो कर दार्शनिकता के उच्चतर स्तर तक चले जाते हैं. It’s like freely floating in your mind-palace where all the facts and memories gently move around you without disturbing your nascent thought process. और तभी एक शब्द ने मुझे छुआ – एन्ट्रापी!

Thermodynamics का ये शब्द मेरी कुछ सवालों का जवाब था. एन्ट्रापी यानि randomness यानि अस्त-व्यस्तता या अव्यवस्था. उर्जा-सिद्धांत के यूनिवर्सल नियम के अनुसार – सृष्टि की टोटल एनर्जी constatnt है , यानि उर्जा बस एक रूप से दुसरे रूप में बदलती रहती है. मगर एन्ट्रापी हमेशा बढती जाती है. बिग-बैंग यानि सृष्टि के आरंभ वाले बड़े धमाके के समय यूनिवर्स की एन्ट्रापी शून्य थी. मगर हमारी हर साँस जो सृष्टि में जरा सी बदलाव लाती है और एन्ट्रापी बढ़ जाती है. और यह अव्यवस्था यानि उठा-पटक भी हमारे शरीर के स्वास्थ्य की तरह है. हर साँस हमारे जिस्म के किसी न किसी सेल की एन्ट्रापी बढ़ा रहा होता है. हम कितनी भी डिसिप्लिन फॉलो करें किसी न किसी डीएनए का  म्यूटेशन  होना ही है, कहीं न कहीं telomere को बूढा होना ही है, किसी न किसी जीन रेगुलेशन का नियंत्रण गड़बड़ होना ही है-भले ही अदृश्य रूप में. तो यह बढती हुई अव्यवस्था हमें कहा ले जा रही है? इसका एक और मतलब ये बनता है कि हम लाख कोशिश कर के भी एन्ट्रापी को घटा नहीं सकते और इसी तरह पूरी दुनिया को डिजीज-फ्री करना भी एक व्यर्थ प्रयास है – निश्चित असम्भवता के सागर में से सुखी हुई रेत निकालने  के जैसा. तो क्या इन सब का समाधान  फिर से एक बिग-बैंग ही है?

यह आंशिक जवाब फिर से कई नए सवालों को जन्म देने की प्रक्रिया में लगने ही वाला था कि मैंने लौटने का फैसला लिया. वापस रिम्स के वार्ड में, जहाँ सच में बिमारियों से रूबरू होता हूँ हर पल. इस बार नए नज़रिए से देखने की कोशिश की हर एक पहलु को. मगर इंटर्न की तरह किसी भी डायग्नोसिस पे जम्प करने वाली शुरूआती आदत से बचने की कोशिश करते हुए – इस बार मैं बस observe करने वाला था, आंकड़े तलाश रहा था और साथ ही  कोई भी रैपिड कन्क्लुसन नहीं चाह रहा था. HOD सर की बात दिमाग में घूम रही थी-“widen your gaze…..Gather data….then come to a narrow differential… ”

 मैं हर मर्ज़ में मरीज़ की भागीदारी ढूंढ रहा था. आत्महत्या का असफल प्रयास करने वाली सुन्दर सी लड़की, सरकारी मेडिकल कॉलेज की बदहाली पे स्पीच दे रहे फ़ूड poisoning वाले अंकल, कोल्डड्रिंक से अपनी अस्थमा बढाने वाली लड़की , एंडेमिक जोन में आने पे मलेरिया से पीड़ित आर्मी का जवान, blood-relations में शादी के कारण सिकल सेल से ग्रस्त संतान , नाजायज एबॉर्शन के बाद सेप्टिसीमिया –DIC वाली औरत , अनियंत्रित ब्लडप्रेशर के कारन लकवा खाया मंदिर का पुजारी,  हेड इंजरी वाले ड्रग्स और सिगरेट के नए नए शौकीन teenagers के  bikers-गैंग  और इतने ही कई सारे लोग- जिनकी बिमारियों में कहीं न कहीं उनकी खुद की गलती शामिल थी. या फिर इन सारी  बिमारियों को एक व्यवस्थित सामाजिक सिस्टम के सहारे रोका जा सकता था.  हैरान करने वाली बात ये थी कि अस्पताल का लगभग 70 % हिस्सा ऐसी ही बिमारियों से भरा था.

तो क्या जवाब मिल गया है मुझे? अपने इंजिनियर दोस्त को रिप्लाई कर दूँ अब? उधेड़बुन में बाइक का सहारा लिए डैम के किनारे जा बैठा. धुर्वा डैम का साफ़ सुथरा , पत्थर लगाया हुआ किनारा , जहाँ सफ़ेद सफ़ेद डिस्पोजेबल प्लेट्स और गिलास की खेती बस शुरू ही हुई थी –यानि हमारे व्यवस्थित सभ्य इंसानों को वो जगह भी अब अच्छी लगने लगी थी. समंदर पार से हज़ारो मील की दुरी तय कर के आये साइबेरियन पक्षियों का एक दल जल क्रीडा में व्यस्त था. कहते हैं कि बीमार पड़ गए पक्षी को वहीँ पे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, मुसाफिर दल  में शामिल नहीं किया जाता. और अगर कोई रास्ते में कमजोर हो जाये तो उसकी नियति भी मौत ही होती है. क्या? उनमे कोई डॉक्टर नहीं होता? क्या चिकत्सा द्वारा जीवन लम्बा करने की कोई व्यवस्था उनमे नहीं है ? हाथियों के दल के बारे में भी ऐसी ही बात सुनी थी मैंने! तो क्या वे प्रकृति के नियम को निभा रहे है और हम तोड़ रहे हैं? अगर हॉस्पिटल से मिले मेरे जवाब वाले आंकड़े को उनपे भी आजमाया जाये  तो क्या पक्षियों में भी बीमारियों का 70 % हिस्सा वैसे रोगों का होता होगा जिनके पीछे उनकी खुद की गलतियाँ शामिल है, और इसलिए गलती की सजा के रूप में उन्हें मिलती है मौत! पानी की लहर आते जाते मेरे पैरों को छू रही थी और मेरी उलझनों के लहर के साथ फ्रीक्वेंसी मिलाकर रेजोनेंस उत्पन्न करना चाह रही थी. दूर तक फैले समतल जल भण्डार में पैदा होते और बिखर जाते उर्मियों में मेरी नज़र खोने लगी थी. मैं खुद के अन्दर डूबता सा महसूस कर रहा था.

भीगे जज्बातों और अनसुलझे सवालों के साथ मैं उस ऊँची जगह पे पहुँच गया था जहाँ से सारा शहर दिखाई देता है. पहाड़ी मंदिर के छज्जे पे खड़ा होकर पुरे शहर को निहारना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. दूर कहीं एक जाम में फंसी एम्बुलेंस की नीली बत्ती झिलमिल कर रही थी, थके से रिक्शावाले  खजूर के नीचे लम्बी कतार बनाये हँड़िया पी  रहे थे , बगल के कब्रिस्तान में किसी को दफनाया जा रहा था, एक अपार्टमेंट की छत पे छुपकर दो बच्चे सिगरेट पी रहे थे, और मंदिर की सीढियों के किनारे कई सारे विकलांग भीख मांग रहे थे. पीछे मंदिर में एक औरत अपने कैंसर से जूझ रहे बच्चे के लिए दुआ मांग रही थी, और फिटनेस संग पुन्य लाभ के लिए सुबह शाम 200 सीढियाँ चढ़कर ऊपर पूजा करने आने वाले सेठ-मारवाड़ियों का दल नीचे  उतर रहा था. मैं जैसे इनसब को एकदम निष्पक्ष भाव से देख पा रहा था- लेशमात्र भी अटैचमेंट से रहित. जैसे मैं इनमे से एक हूँ ही नहीं. एकदम अलग ,माया-मोह-समाज-नियम से ऊपर उठे हुए दार्शनिक की तरह. और फिर सवालों के जवाब सूझ रहे थे मुझे दूर तक फैले शहर को ढंकते बादलों के बीच में-जिसमे कहीं कहीं मुंडेरो से उड़ते पतंग और धार्मिक झंडे दिख रहे थे. मैं अपने इंजिनियर दोस्त को कह रहा था-
“ दोस्त हमारी जिंदगी दो पहियों पे चलती है, एक पहिया मजे लेने के लिए है तो दूसरा डिसिप्लिन में रखने के लिए. अगर दोनों में संतुलन बना के रखा जाए तो हम अपनी 70 % बीमारियों को दूर भगा सकते हैं. मगर बाकी के 30 % रोग? हम्म! इसके जवाब में शामिल है एन्ट्रापी और अनिश्चितता. और  जहाँ कहीं भी randomness यानि अनिश्चितता है वहीँ पे किस्मत और ईश्वर जैसे शब्द एक्सिस्ट करते हैं.  और फिर जिंदगी इसके आगे सांप –सीढ़ी के खेल के जैसी हो जाती है. हम कब किस बिमारी से ग्रस्त हो जाएँ कोई नहीं जानता. और ऐसा कुछ भी नहीं किया जा सकता जिससे ये दुनिया रोग-मुक्त हो जाये. “



दोस्त को समझाने के क्रम में ही घडी पे नज़र गयी. शाम के 5 बज रहे थे. मेरे सीनियर वार्ड में अकेले मेहनत कर रहे होंगे. और मेरे लौटते ही कह पड़ेंगे-“ ऐसे मौसम में कविता लिखने का शौक पूरा हो गया हो तो कुछ काम कर लिया जाए? दो ब्लड सुगर और तीन ABGकर लो बस! फिर मिलते हैं कॉफ़ी हाउस पे. बहुत काम है,और पढाई  भी तो करनी है”. अधूरे सवालों से नाता तोड़ मैं लौट रहा था उन बीमारियों को समझने और दूर करने की कोशिश में जिन्हें मेरी जरुरत थी. 

  Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, September 14, 2014

डॉ बरमेश्वर प्रसाद की पुण्यतिथि पे श्रद्धांजलि

संक्षिप्त परिचय
नाम - Dr बरमेश्वर प्रसाद
जन्म - 1924 बक्सर,बिहार
पिता- स्व. डॉ ठाकुर प्रसाद 
1947- MBBS (5 विषयों में Hons.)
1947- बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के निजी चिकित्सक के पद पे नियुक्ति
1948- पटना मेडिकल कॉलेज में अध्यापन शुरू
1950- चिकित्सा विज्ञानं की सर्वोच्च डिग्री MRCP लेने के लिए लन्दन चले गए
1962- RMCH(अब रिम्स) की स्थापना के साथ ही मेडिसिन विभाग के संस्थापक, प्रोफेसर  और विभागाध्यक्ष बनाए गए.
अन्य- रांची विश्वविद्यालय के सीनेट के सदस्य , बिहार स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष , IMA -बिहार के अध्यक्ष , बहुत सारे विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियों के द्वारा सम्मानित.
15 सितम्बर 1981- स्वर्गवास

१५ सितम्बर - पुण्यतिथि उस चमकते सितारे की जिसने अपनी रौशनी से सिर्फ रांची या झारखण्ड-बिहार ही नहीं बल्कि पुरे चिकित्सा विज्ञान को प्रकाशित किया.स्वर्गवास के तीन दशक बाद भी डॉ. बरमेश्वर प्रसाद अपने आदर्श और व्यक्तित्व के साथ चिकित्साविज्ञान से जुड़े हर दिल में जीवित हैं - चाहे वो rmch/रिम्स के उनके छात्र हों, सहकर्मी हों या उनके मरीज़. जन्म से ही अत्यंत प्रतिभाशाली डॉ बी प्रसाद ने 1947 में एम् .बी.एस. की परीक्षा 5 विषयों में ऑनर्स के साथ  उतीर्ण की. उनकी प्रतिभा के कारण ही बिना हाउसमैनशीप  किये ही उनकी नियुक्ति बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के निजी चिकित्सक के रूप में हुई. 1950 में MRCP की डिग्री के लिए लन्दन जाने पर वहीँ बस जाने के लिए कई प्रस्ताव उनके पास आये मगर अपनी देशभक्ति की भावना के कारण वे अपने मिटटी के करीब लौट आये और नवस्थापित RMCH के मेडिसिन विभाग के संस्थापक और विभागाध्यक्ष बने. जिस समय में भारत में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अंकुर भी नहीं फूटे थे उस अन्धकार में भी डॉ. प्रसाद अपने विद्यार्थियों को जेनेटिक्स और ऐसे ही कई एकदम नयी नयी खोज की गयी चीजों के बारे में भाव-विभोर कर देने वाले लेक्चर दिया करते थे.एक बार एक जज साहब जो जर्मनी से अपने ह्रदय रोग का इलाज़ करवा रहे थे  वे डॉ प्रसाद के पास पहुंचे मगर ये देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि यहाँ भी उन्हें वही जर्मनी वाली नयी नयी खोज की गयी दवाई  लिखी गयी जो  अब तक भारत के किसी कोने में यहाँ तक कि एम्स में भी शुरू नहीं की गयी थी. उनके  ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी. ये कहने में जरा सा भी हर्ज़ नहीं होगा की बिहार ही नहीं पुरे बिहार-बंगाल-उड़ीसा-झारखण्ड इत्यादि क्षेत्र में चिक्त्साविज्ञान  के पौधे को अपने खून-पसीने और प्रतिभा से सींचा है उन्होंने.
कहते हैं कि उस समय rmch में आने वाले मरीजों में आधे से भी ज्यादा हिस्सा डॉ. बी प्रसाद से इलाज़ कराने के लिए आने वालों का होता था. रांची का ऐसा कौन सा घर नहीं होगा जिस घर के किसी व्यक्ति का इलाज़ उनसे नहीं कराया गया होगा. क्या मंत्री, क्या व्यवसायी, क्या ऑफिसर या कोई भी साधारण सा आदमी- सबकी एक ही कतार होती थी उनके क्लिनिक में. अपने आदर्शों के पक्के आप एक कुशल चिकित्सक के साथ साथ एक समाज सेवक, विचारक और सच्चे देशभक्त भी थे. अपनी सभ्यता और संस्कृति से उनके लगाव के बारे में बताते हुए उनके पुत्र डॉ. उमेश प्रसाद बताते हैं- "बाबूजी कभी भी हमसे अंग्रेजी में बात नहीं करते थे.उस समय रांची में अच्छे अच्छे इंग्लिश-माध्यम  स्कूल थे मगर बाबूजी ने हमारी पढाई हिंदी माध्यम के विद्यालयों में ही करवाई. उनका कहना था कि अंग्रेजी को बस भाषा के तौर पर ही पढ़ा जाना चाहिए और वो भी पुरे मेहनत के साथ मगर अपनी मातृभाषा की अवहेलना करके कदापि नहीं."उनकी लोकप्रियता के बारे में बताते हुए वे कहते हैं-" कई बार ऐसा होता था कि बाबूजी हमें फिल्म दिखाने सिनेमाघर ले जाते थे मगर बीच फिल्म में ही सिनेमाघर की बत्ती जल जाती थी, मालूम चलता था कि कुछ लोग उनकी गाडी को पहचान कर उन्हें ढूंढते हुए सिनेमाघर के अन्दर तक आ गए हैं . फिर उन्हें बीच में ही उठकर जाना पड़ता था.....".जब उनकी शवयात्रा निकली थी तो डॉक्टर्स कॉलोनी-बरियातू से  लेकर हरमू स्थित शमशान तक सड़क के दोनों तरफ हजारो-लाखों की संख्या में उनके चाहनेवाले अपनी श्रधान्जली लिए घंटो खड़े रहे थे.
मरीजों को डॉ. बी प्रसाद पे इतना भरोसा था कि कैंसर के रोगी भी जो दिल्ली-मुंबई में इलाज़ करवा के हार गए होते थे वे घंटो इनके क्लिनिक के बाहर बस इस इंतज़ार में बैठे रहते थे कि अगर एक बार वे उन्हें छू भर लें तो शायद उनकी तकलीफ ख़त्म हो जाएगी.
उनकी जिज्ञाषा की कोई सीमा नहीं थी. मेडिकल साइंस तो अपनी जगह थी ही मगर साथ साथ ही विज्ञान की अन्य शाखाओं जैसे प्लाज्मा फिजिक्स ,नुक्लियर केमिस्ट्री  एवं भूगोल , इतिहास , खेल-कूद, देश की विदेशनीति -राजनीति, अध्यात्म इत्यादि  यानी जानने लायक हर बात पे उनकी अभिरुचि हमेशा उतनी ही सजीव और संवर्धित बनी रहती थी. वे हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, भोजपुरी, बंगला, उड़िया, मैथिलि  इत्यादि तो जानते ही थे मगर बाद में उन्होंने रेडिओ की मदद से मलयालम और तेलुगु भाषा भी सीखना शुरू किया था.
एक डॉक्टर के सामाजिक सरोकार और जिम्मेदारियों को वे बखूबी समझते थे. उनके अपने दर्शन और सिद्धांत आज भी हर डॉक्टर के लिए मार्गदर्शक के रूप में उपयोगी है. वे डॉक्टर और मरीज़ के बीच  के रिश्ते को सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक तीनो स्तर  पर स्थापित करना चाहते थे, न की सिर्फ व्यावसायिक स्तर पर. यह रिश्ता पूरी तरह मरीज़ के कल्याण को समर्पित ‘समजिविता’ का होना चाहिए. मगर मरीज़ को भी अपने दायित्व का  वहन उसी जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए. वरना यह ‘समजिविता’ का सम्बन्ध बहुत जल्दी ही ‘परजीविता’ में बदल जाता  है जहाँ दोनों पक्षों में से किसी एक का आर्थिक-मानसिक-सामाजिक शोषण शुरू हो जाता है. सचमुच असाधारण प्रतिभा, विलक्षण सोच वाले विचारक, एक सच्चे देशभक्त, अद्वितीय शिक्षक ,अमूल्य  वैज्ञानिक और बिहार के लिए रत्न - डॉ बरमेश्वर प्रसाद जो जीते जागते किंवदन्ती से कम नहीं थे हमेशा हमेशा के लिए हम सबके प्रेरणाश्रोत बने रहेंगे.


डॉ बरमेश्वर प्रसाद की पुण्यतिथि पे श्रद्धांजलि 
डॉ बरमेश्वर बाबू