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Tuesday, January 12, 2021

Commentary on 'Celphos': one of my story

Beginning with the plot and the structure of the story, what is really appreciable is, first, the beauty of the plot and the subplot (the husband-wife tale) on their individual levels. Secondly, the way the plot and the subplot merge, and gradually proceeds, with all it's highs and lows, paving it's path to a heart-breaking end. Now, one might not exactly call it heartbreaking, for it surely does bring death to one, but also brings life to the other. But we as readers surely feel a certain loss, maybe because grief strikes a more mutual chord universally than happiness does. That also is, because the story started with the girl and the doctor, and closes with the girl's death and the doctor's grief over it and in addition to that his transfer, and that's where we as readers find closure to the story, rather than finding it in the wife's survival. So in totality the air at the end feels morbid. 

Moving on, I love how the story subtly presents contrasting and complementing aspects. Contrast first and foremost, between the will to live and the decision to end it all. And you portrayed that in many ways, through  the two patients on the adjacent beds, through the girl's own journey in the story in which she first is willing to end everything and even seems to be happy with it, but later on longs to live, for, she finds a reason for it. That brings in the importance of hope, reflected through reason and the potential of love in a human's life. Secondly, contrast in the two marriages, of the doctor and his wife, and of the husband and wife of the subplot. How one sort of feels bound to drag his marital life because of the latent toxicity in the relationship, while the other is ready to do everything in his reach to save his wife. His song speaks measures about the pain he feels because of the fear of losing her. Lastly, the two forms of admiration and love contrast and complement each other, where on the one hand the husband cannot contain his feelings of love and the fear of loss and utters it through that song, where on the other hand, the doctor and the girl exchange so much without uttering a single word of admiration. That shows how love takes on forms. The subtlety of it and also the outburst of it.

The realistic images in the story are stark and vivid. Conveyed through the mundane hospital life, the lack of resources, the jealousy and the urge to pull people down which is rampant, the solace that the doctor finds in his profession, and the comfort that the doctor and the girl experience in each other's presence are so aptly presented. The very truth about life itself, the uncertainty of it persists throughout the story. The constant portrayal of the cycle of life and death never ceases, for whenever someone survives, there's someone else dying and that goes on to remind us of how life and death are just two sides of the same coin. The story is in a way exemplary of the actuality of human lives, the humdrum of it, and the beauty in life we sometimes manage to find in between.

Lastly, what makes the story so impactful and doesn't even for an instance breaks the reader's flow are the language of the story, the beauty of the literary devices used and the structuring of the story. The simplicity of the language, and the dropping off of unnecessary flowery terms, increases the appeal and the reach of the story manifold. The minute details-- be that in the description of the characters' appearances or their personal lives, be it the details of every other action of the characters, the durations of the day mentioned, the medical terms used, or every step taken to save a life; be it the doctor's measures to save the girl, or the husband's to save his wife, or the girl's to save the other patient-- everything so strongly culminate into bringing the story into life. It's almost similar to having a cinematic experience. I personally love the part where the doctor and the girl go on to dream different dreams but how the separate dreams go on to become two patches of the same dreamwork, how they become one when they gradually move towards the image of the spring. The image of the saline bottles around the girl's bed is so aptly used twice to bring out two different situations and connotations. And all this more than anything exemplifies your genius as a writer. You so brilliantly weaved a plethora of emotions into storytelling, making it appear so simple at the surface, but so thoughtful and full of perceptive insights when probed upon. Take a bow!

The anonymous Reader
Dex

Here is the link of story 

Monday, May 21, 2018

सिलेट पेंसिल


एक दौर था वो जब पलामू के गाँव मे सारे बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे. प्राइवेट स्कूल का कल्चर नहीं आया था. अंग्रेज़ी मीडियम का भूत भी नहीं सवार हुआ था किसी गार्जियन पर. सब बच्चे अपना अपना बोरा और बोरा का ही बना हुआ बस्ता ले कर स्कूल जाते थे.

ओह! क्या दिन थे वे. मासूमियत से लबरेज हम बच्चे. सब के बस्ते में सीलेट और चौक या चुना वाला पेंसिल. ककहारा मात्रा और गिनती लिखना सीखते थे और तुरंत थूक लगा के मिटाते भी थे.

'अरे. विद्या में जूठा करेगा? सरस्वती माता गोसा जाएगी. प्रणाम करो.'

किसी को कलम कागज से लिखते देखते तो मन ललचा जाता था. कब हम भी कॉपी मे लिखेंगे. मगर सिलेट में लिखते हुए हज़ारों गलतियाँ करने की आजादी थी. पेंसिल और कट-पेंसिल अलग अलग चीज़ थी. कटर से छीलने वाला कट-पेंसिल और चौक वाला सिर्फ पेंसिल. रँग बिरंगा लिखने वाला पेंसिल.

बचपन खत्म हुआ तो कलम मिल गया, छूट गया सिलेट. मगर अब हर कदम संभल कर रखना था, हर अक्षर सोच कर लिखना था. क्योंकि अब गलतियाँ मिटती नहीं, हमेशा के लिए दाग बन कर रह जाती हैं.

किसी के पास मिट्टी वाला सिलेट तो किसी के पास प्लास्टिक वाला होता था. प्लास्टिक वाला टूटता नहीं था, लेकिन घिस कर उजर हो जाता था, जिसमें चौक नहीं उगता था. लेकिन प्लास्टिक वाले में रबर गोली से abacus बना रहता था, उसका यूज़ करना तो नहीं आता था हमें पर खेलना जरूर आता था उससे.

तब चंदा मामा हुआ करते थे- दूर के,
पुआ पकाए गुड़ के
अपने खाए थाली में
हमको देते प्याली में
प्याली जाती टूट
हम भी जाते रूठ.

सूरज और झोपड़ी - चित्रकला के नाम पर बस यही बना पाते थे.

और 4 बजते ही लाइन में लगकर समवेत स्वरों में मासूम कंठ गा उठते - "एक पर एक ग्यारह, एक पर दो बारह,... दो पर सोना बीस. मास्टर जी का फीस. टीस टीस टीस..."

अब तो बच्चे कॉपी कलम से आगे निकल टैब्लेट मोबाइल तक पहुंच गए हैं. पता नहीं अब किसी स्कूल मे सिलेट प्रयोग में आता भी है कि नहीं.

क्या अब के बच्चे भी चॉक खाते हैं?
क्या अब भी बच्चे दूसरे की पेंसिल चोरी कर विद्या कसम खाते हैं?
क्या अब भी बच्चे शनिवार को सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होकर गाना गाते हैं?
क्या अब भी मिडिल क्लास के बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं?
क्या अब भी सरकारी स्कूल में मास्टर साहेब ओतना ही दुलार से हाथ पकड़ कर अ.. आ.. लिखना सिखाते हैं....

काश कि फिर से उसी दौर में पहुंच जाते हम जब हाथ में सिलेट होती और होती गलती और मनमानी करने की आजादी. ना होता इतनी समझदारी और किताबों का बोझ, ना ही सम्हल सम्हल कदम रखने की जरूरत.

© Govind Madhaw

#ठेठ_पलामू

Wednesday, April 11, 2018

📖 My first publication


ठीक से याद नहीं पहली बार खुद के ख्यालों को कब कागज़ पर उतार पाया था? शायद 13-14 साल की उम्र में. जब कहीं से पिछले साल की एक पुरानी पड़ गयी डायरी हाथ लगी थी. फिर चम्पक और नंदन के लिए अपनी रचनायें भेजता और हमेशा ही रिजेक्ट होता रहा. पहली बार किसी पत्रिका में अपना नाम मैंने संत जेविअर्स कॉलेज रांची के कॉलेज मैगज़ीन में देखा था.
और फिर कुछ साल रिम्स मेडिकल कॉलेज की वार्षिक पत्रिका 'स्पृहा' में सम्पादकीय मण्डली का हिस्सा बन कर रहा. ये मेरे लिए सबसे खुबसूरत साल थे. हर साल जब नयी पत्रिका के विमोचन का दिन होता था, मुझे लगता था जैसे मैंने मातृत्व का सुख प्राप्त कर लिया है. घंटो बीत जाते नयी पत्रिका को हाथ में लिए. हालाँकि पत्रिका के छपने से पहले ही मैं ना जाने कितनी दफा उसमें गोते खा चूका होता था मगर फिर भी विमोचन के कुछ दिन तक मैं हर पन्ने से कई दफा गुजरता, कभी किसी आर्टिकल के लिए चुने गए चित्र पर मुग्ध होता तो कभी किसी पेज की सजावट पर. कभी फीलर्स के जुगाड़ से मन हरसता तो कभी कवर और इंडेक्स में की गयी कलाकारी और मेहनत पर. कुछ लेखकों से कितनी मन्नतें करनी पड़ती थी आर्टिकल लिखने के लिए. कहीं कहीं कोई गलती भी दिख जाती थी कभी तो लगता था कि अभी सब के हाथ से वापस ले लूँ सारी प्रतियाँ और सुधार कर फिर से बाँटू. विमोचन के दिन से मेरे कान खड़े हो जाते थे. दोस्तों से जबर्दस्ती ही मैगज़ीन का जिक्र करता इस उम्मीद से कि वे मेरे प्रयासों पे गौर करेंगे और कुछ बहुत प्रसिद्धि का सुख प्राप्त हो जायेगा. कुछेक दोस्त प्रशंसा भी करते थे, कुछेक को बस चुटकुलों और गप्पों वाले पन्ने का इंतज़ार रहता था, कुछ को बस अपनी तस्वीर से मतलब रहता था और कुछ को अपना नाम देखने की जिद रहती थी. अधिकतर लेखकों को अपना आर्टिकल पहले पन्ने पर चाहिए होता था. और कुछ की फरमाइश होती थी कि उनकी सारी कवितायें पत्रिका में स्थान पाए. कुछ से कहासुनी भी होती थी. कुछेक रचनाओं में वर्तनी सम्बन्धी सुधार के लिए पसीना भी बहाना पड़ता, हालाँकि वर्तनी की सबसे ज्यादा परेशानी मेरी खुद की रचनाओं में होती थी. और कभी कभी तो रचनात्मकता की आड़ में कुछेक रचनाओं से छेड़छाड़ भी कर देता था चुपके से, जिसके लिए कभी सराहना तो कभी उलाहने भी मिलते.
आज फिर से वो सारी यादें ताज़ा हो गयी. अहा ज़िन्दगी के अप्रैल अंक में मेरी एक कहानी को स्थान मिला. ये पहली बार है जब मेरी कोई रचना प्रकाशित हो रही है. और मेरे नानाजी श्री Dhanendra Prawahi जी ने टिपण्णी की- 'वाह नाती! पहली ही बार में इतनी लम्बी छलांग! मुझे तो कई साल लग गए थे राष्ट्रिय स्तर की पत्रिका में जगह पाने में .'
Sushobhit Saktawat से मेरी पहचान फेसबुक के जरिये ही हुई. और पहली ही पोस्ट से उन्होंने मुझे दीवाना बना लिया. बहुत कुछ सीखा है उनसे. एक दिन ऐसे ही बात बात में मैंने पूछ लिया कि क्या मैं भी अपनी रचना किसी पत्रिका में भेज सकता हूँ? तब तक आप दोस्तों के प्यार से मैं कुछेक #लप्रेक और '#100kissesOFdeath' सीरीज की चार पांच कहानियां लिख चूका था. विवेक कान्त मिश्र ने मेरा हौसला बढाया और फिर उस दिन मैंने सुशोभित को अपनी रचना भेजते हुए एक आग्रह किया कि अगर यह आपके पत्रिका के स्तर को सूट करे तभी, अन्यथा ऑनेस्ट रिजेक्शन से भी मेरा खुद का मूल्यांकन ही होगा.
और फिर ये सुखद क्षण!
इतनी लम्बी पोस्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, मगर क्या करता , मन के आवेग को रोकना कठिन था. और फिर आदत भी तो है अपनी हर छोटी-बड़ी ख़ुशी को आपके साथ शेयर करने की.
बहुत बहुत आभार आप सब का.
प्रेम-आशीर्वाद-विश्वास बनाये रखें.


Wednesday, January 24, 2018

ल.प्रे.क.12: Hormone

“पति से प्रेम? कैसा प्रेम? कहाँ से लाऊं मैं प्रेम? अभी तो शादी के चार ही महीने हुए थे. ठीक से इस आदमी को समझ भी नहीं पाई थी कि सड़क दुर्घटना ने उसके नाभि से नीचे के शरीर को बेजान कर दिया था हमेशा के लिए. रीढ़ की हड्डी टूटी और छूट गया शरीर का दिमाग से रिश्ता. अब पांव ना तो हिलते हैं ना ही मच्छर के डंक ही महसूस करते हैं, मगर मुंह और पेट तो अपना काम किये जाते हैं.” नफरत-गुस्सा-घृणा जैसे भावों को छुपाने और मल-मूत्र के दुर्गन्ध से बचने के लिए एक हाथ से चेहरे पर रुमाल पकडे, दुसरे हाथ से बिस्तर से चादर खींचती वह युवती सोच रही थी.

“वह पति है भी तेरा? ना आर्थिक ना ही शारीरिक या मानसिक सुख या सुरक्षा दे पायेगा तुम्हे कभी! तो फिर क्यों रखना उसके नाम से सूत्र-सिंदूर और शील?” अधेड़ ने सहानुभूति के बहाने युवती के मन को अनाथ घोषित करते हुए, तन पर अधिकार मांगने की जल्दबाजी दिखा दी थी. मगर एक दूसरे  नवयुवक पडोसी ने धैर्य का परिचय दिया और युवती के ह्रदय में स्नेह के बीज डालने में सफल हुआ. अधेड़ अब अपनी असफलता छुपाने के लिए युवती को चरित्रहीन साबित करने में लग गया था.

मर्दानगी से हाथ धो बैठा पति अब और अधिक गुस्सैल, शक्की और चिड़चिड़ा हो गया था. सेवा में जरा सी चूक पर चिल्लाता, युवती के माँ-बाप से शिकायत करता, घर आये मेहमानों के बीच उसका मजाक उडाता और सती-सावित्री-अनुसूया के चित्र दीवारों पर लगवाता. युवती को अब इस अभागे पति पर दया आने लगी थी. मगर प्रेम?

“क्या वह आदमी जो तुम्हारा पति है, ठीक वैसे ही तुम्हारा ख्याल रखता, जैसा कि वो तुमसे चाहता है अगर उसकी जगह तुम ऐसे आधी-लाश बनी होती? उसकी नरक जैसी जिंदगी के लिए तुम तो जिम्मेदार भी नहीं हो.”- नवयुवक ने युवती के तन-मन की प्यास को भांपने की कोशिश को जारी रखा.

इस दुनिया में सभी स्वार्थी हैं, और उसने इस सच को जान लिया है-ऐसा सोचने से उसने खुद के अपराधबोध को कम होता पाया. आईने में अपनी कम उम्र को निहारने के बाद युवती ने भी अपना पाशा फेंका- “यह जानते हुए भी कि मैं विधवा जैसी हूँ, सिर्फ मेरे प्रेम की खातिर तुम मुझसे विवाह करने को तैयार हो?”

“हाँ! मगर तुम्हे मेरे साथ चलना होगा. और तुम विधवा नहीं हो, तुमने शायद पहली बार किसी से प्रेम किया है, हम आज से किसी दुसरे शहर में अपने नए जीवन की मधुर शुरुआत करेंगे. तुम्हारे पहले पति को तो वैसे भी पत्नी की नहीं बल्कि एक सेविका की जरुरत है जिसका इंतजाम मैंने कर रखा है, ताकि तुम्हारे दिल पर बोझ न पड़े.” गाडी में सामान लादते हुए नवयुवक ने युवती के आँखों में अपनी परिपक्वता के लिए सम्मान देखना चाहा.

अच्छा मैं अभी आई- कहकर युवती घर के अन्दर गयी.

युवती की योजना से अनजान पति उसे देखते ही फुट-फुट कर रोने लगा- “कहाँ चली गयी थी मुझे छोड़कर तुम इतनी देर से? कब से गीले बिस्तर पर पड़ा हुआ मैं इंतज़ार कर रहा था!” लाचारी और निर्भरता के कारण, कुंठा और समर्पण ने उसके शर्म और गुस्से का स्थान ले लिया था. अब उसकी आँखें उस बछड़े की तरह लबालब थी जिसकी मां अभी अभी चर कर जंगल से वापस आई थी.

युवती ने तब अपने पति में एक मासूम बच्चे को देखा. उसने खुद के हृदय में ममता के समंदर को उमड़ते हुए महसूस किया. अथाह प्रेम से निकले आंसू उसके अपराधबोध को बहा ले गए थे. खून में बढ़ते ऑक्सीटोसिन ने एस्ट्रोजन को कम करना शुरू कर दिया था.

दरवाज़े पर खड़े नवयुवक ने युवती के आँखों में अपने लिए तिरस्कार और घृणा के भाव देखे.  
 

Ⓒ Govind Madhaw

Thursday, December 28, 2017

100 kisses of death: episode 05- 'पास-फेल'

“और कितने दिन जिन्दा रहेंगे आप? सारे शौक तो पूरे कर लिए. पोते का मुंह, खुद के बनाये मकान पर नेमप्लेट, पत्नी का सुहागन रहते स्वर्ग सिधारना सब कुछ तो देख लिया आपने. यहाँ अस्पताल के बिस्तर पर बेहोश पड़े-पड़े जाने कौन सी जिंदगी जी रहे हैं आप.”- चार्ट में डेढ़ लीटर का नोट डाल पेशाब की थैली बदलता हुआ वो बुद्बुदा रहा था. 

इतने दिनों में अस्पताल का यह कमरा भी तो घर जैसा ही लगने लगा था उसे. उसने पुरानी नौकरी छोड़ अस्पताल के रास्ते में पड़ने वाले नए ऑफिस को ज्वाइन कर लिया था. रोज़ शाम जब घर लौट दस्तक देता तो दरवाज़ा खोलती पत्नी की आँखे एक ही सवाल पूछती. मगर जवाब में वह उसके खाली हो गए कान की तरफ झांक नज़रें झुका लेता.

“सच कहूँ तो यह मेरी मर्ज़ी के खिलाफ था, मगर पडोसी और रिश्तेदार कहते थे तो आज घर में प्रार्थना का आयोजन हुआ, आपके जल्दी ठीक हो जाने के लिए. उसी दरम्यान हॉस्पिटल से फ़ोन आया. सब खुसर-फुसर करने लगे. कोई कह रहा था कि चलो अच्छा हुआ, मुक्ति मिल गयी! कोई मुझसे सहानुभूति तो कोई मेरे पुत्रधर्म की प्रशंसा करने लगा था. मगर नर्स ने बताया कि आपने आँखे खोली थी और मेरा नाम पुकारा था. लोगों की दोगली बातों से होने वाली आपकी ऐसी बेईज्ज़ती मुझसे बर्दाश्त नहीं होती अब.”- बूढ़े शरीर को करवट लगा बेडसोर को पाउडर से सहलाता हुआ वह बोले जा रहा था. बंद आँखों के किनारों में जमी मोमनुमा अश्रुकणों को हटाने के बाद वह रुग्ण पैरों की मालिश करने लगा.

“आपकी ही तरह जीनियस आपके पोते ने स्कूल में टॉप किया है! आज रिजल्ट लेने जाना है उसके स्कूल. हो सकता है देर भी हो जाए.”- चेहरे पर बैठने की कोशिश में लगी मक्खी को भगा उसने खिड़की के परदे को ठीक किया और बेहोश शरीर को उठा बेडशीट-कम्बल सँवारने में नर्स का हाँथ बंटाता हुआ कहने लगा था.

जाने कितने महीनो के बाद उसने पत्नी के चेहरे पर ख़ुशी के भाव देखे थे. शहर से दूर तालाब किनारे के रेस्तरां में बैठ तीनों मुस्कुराते हुए आनंदित थे. सेल्फी के लिए पोज देते हुए उसने पत्नी के कंधे पे हाथ रखा, दोनों की निगाहें मिली, पत्नी ने कंधे पे बढ़ते दबाव में छुपे प्रेम को महसूस किया. बेटे ने कैमरा पकड़ दूर से इनकी फोटो खींचने का बहाना बनाया. मुस्कराहट की लकीर शरारत भरी छेड़खानी का रंग ओढने लगी. शाम की तिरछी किरणों के संग तालाब की सतह पर असंख्य सुन्दर भावनाओं की लहर तैरती हुई दिख जा रही थी. बेफिक्री के वक़्त हमेशा की तरह तेज़ी से गुजरने लगे. तभी मोबाइल लेकर बेटा उसके पास आया, हॉस्पिटल का कॉल था.

“आज 11 बजे आपके पिताजी पुरे होश में आ गए थे. उसने नर्स से बातचीत की, अपनी दिवंगत पत्नी की तस्वीर को चूमने में मदद मांगी और यह कह कर लेटे कि अगर उनकी मौत होती है, तो यह खबर परिवारवालों को बिलकुल नहीं दी जाए, जब फुर्सत मिलेगी तब वे लोग खुद आकर बॉडी ले जायेंगे. लेटने के 20 मिनट बाद उनके शरीर में कम्पन हुआ, मॉनिटर ने बताया कि उनकी धड़कन अचानक से बहुत तेज़ हुई और खुद में उलझ कर रुक गयी. डॉक्टर ने वेंट्रिकुलर टैकीकार्डिया से कार्डियक अरेस्ट होने की पुष्टि की.”

वह फिर से बुदबुदाया- “पिताजी की यह आखिरी ख्वाईश भी पूरी नहीं हो पाई बाकि ख्वाइशों की तरह.”  

Ⓒ Govind Madhaw

Saturday, November 18, 2017

100 kisses of death: episode 04- 'वक़्त'

वक़्त की कीमत भी तभी समझ आती है जब वक़्त ना बचा हो। 

जैसे exam के आखिरी 5 मिनट में याद आते हैं शुरुआत के ताक-झाँक, सोच, डर और उम्मीद में बीता दिए गए आधे घंटे। 

तब भी जब वो शहर छोड़ कर जा रहा था, आखिरी 10 दिन कम लगने लगे थे। उसकी परीक्षा की तैयारी करवाने, उसके घर की बागवानी में लगाए पौधे पे खिलने वाले फूल को उसके जुड़े पे सजते हुए देखने या इस बार सर्दियों में झरने के किनारे साथ बैठ कविता सुनाने जैसी अधूरी ख्वाहिशें वक़्त को खींच और लम्बा करना चाह रही थी किसी गुब्बारे की तरह।

हम हर आखिरी सेकंड में कितना कुछ जी लेना चाहते हैं। जैसे mobile की बैट्री खत्म होने वाली होती है तब, या जब see off वाली ट्रेन स्टेशन से छुट रही होती है तो, या फिर प्लेन पे फ्लाइट मोड में जाने से ठीक पहले। 

Midazolam का असर ठीक इसी टाईम पे कम होता था रोज़, और तब वह बेहोशी से बाहर होता था कुछ देर के लिए। इसी दरमियान रिश्तेदारों की सहानुभूति और हाल चाल के साथ साथ अपने गले में डाल दिए गए उस endotracheal ट्यूब की irritation को भी महसूस करता था वह जिससे वेंटिलेटर उसके फेफड़ों में सांसे भर रही थी। हॉस्पिटल मे महीना भर बिताते हुए सीख लिया था उसने बेहोशी की दवा 'Midazolam' के dose को ख़ुद से adjust करना। जब दर्द बढ़ता तो drip रेट बढ़ा कर गहरी नींद में चला जाता, जहां हर तरह के सपने उसका इंतज़ार करते। कभी कभी तो वास्तविकता और सपनों की दुनिया के बीच फर्क भी नहीं कर पाता था वह। 

सपने समय की सीमा से आज़ाद होते हैं। अभी उसके सपने में college खत्म होने के ठीक 5 दिन पहले का वक़्त चल रहा था। 

सिर्फ 5 दिन? यानी उसके बाद ये क्लास, ये स्टूडेंट यूनियन, कल्चरल सोसाइटी, proxy सब छूटने वाला है। उसने दोस्तों के स्लैम बुक्स में जी खोल कर लिखा था ख़ुद के बारे में ये सोचकर कि कभी तो पढ़ कर उसे याद किया जाएगा। मगर जिन्दगी की दौड़ में लम्हें.... 
अरे! उसके बुवा की शादी हो रही है। तब 5 साल का था वह। कॉलेज से निकल कर वो सीधे अपने बचपन में चला आया था। तब गाँव में विदाई के बाद बेटियाँ ससुराल से जल्दी वापस नहीं आ पाती थी। चिट्ठियों की आवाजाही में भी महीने बीत जाते थे। विदाई के कुछ सप्ताह बाकि थे और बुवा 95 साल की अपनी दादी के साथ बैठ उस आम के पौधे को निहार रही थी जिस पर दोनों झूला झूलने के सपने देखा करते थे। उन्हे ध्यान ही नहीं रहा था कि इतना वक़्त उन दोनों में से किसी के पास नहीं था।

नर्स ने उसे जगाया। नाक में लगी ryles ट्यूब से उसे सूप पिलाया जा रहा था।माँ ने पूछा कि स्वाद कैसा है? नमक ठीक है ना? माँ को क्या पता था कि ryles ट्यूब नाक से होते हुए सीधे पेट तक जाती है। सूप  जीभ को छू भी कहाँ पायी। मगर उसने स्वादिष्ट होने का इशारा किया पलकों से। 

आज उसने डॉक्टर की बात सुन ली थी। मल्टी ऑर्गन failure होने लगा था। यानी वक़्त शायद सच में बहुत कम था उसके पास। क्या जिन्दगी सच में ट्रेन की यात्रा ही है जिसमे सब अपने अपने पड़ाव पर उतर जाते हैं? पंडित जी ने तो दो घंटे पहले गीता पाठ में ऐसा ही कुछ कहा था कि मौत जैसी कोई चीज ही नहीं होती। हम बस कपड़े की तरह शरीर बदलते हुए यात्रा करते हैं।अच्छा! यानी उसे अभी लंबी दूरी तय करनी है! यह स्टेशन अब छूटने वाला है? तो फिर क्यों ना मुस्कुराते हुए सहयात्रियों से विदा लिया जाए।

उसने सोच लिया था। आज वो चेहरे पर उदासी को एकदम से नहीं आने देगा। तब तो बिल्कुल भी नहीं जब रोज़ की तरह आज भी शाम 5 बजे वो फूलों का गुलदस्ता लिए आएगी उससे मिलने। तब भी नहीं जब वो ryles ट्यूब से संकट मोचन का प्रसाद खिलाएगी उसके सर को अपनी गोद में रखकर। और जब उसके गालों को चूमने की उसकी चाहत में endotracheal ट्यूब आड़े आ जाएगा तो वह अपने आंसूओं को रोक लेगा। जब उससे आंखें मिलेगी तो नज़रों से जता देगा कि अगले स्टेशन पर उसे दूसरी गाड़ी में सवार होना है, और इसीलिए अपना सामान अलग कर के पैक कर ले। और उस clutcher को भी अपने बालों से हटा ले जो उसने गिफ्ट किया था इस वैलंटाइंस पर। आखिर नए clutcher और रिंग के लिए भी तो जगह बनानी पड़ेगी! अच्छा हुआ जो मंगलसूत्र नहीं पहना पाया था, बेवजह विधवा होना पड़ता उसे.... 

अब उसका डर खत्म हो गया था। कभी ना खत्म होने वाली यात्रा पर जाने से ठीक पहले मुस्कुरा कर विदा लेने की प्रैक्टिस भी कर ली उसने।  देखो वो आ रही है! वाह! कितनी खूबसूरत, कितनी मासूम, कितना प्रेम.... उसने मुस्कुराने की कोशिश की।
मगर तब तक उसने अपने शरीर को चार कंधों के झूले पर झूलते हुए पाया। 

Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, October 22, 2017

ल.प्रे.क.10: छुट्टी का दिन

आज इतवार है।
आज पिताजी की भी छुट्टी है। 
आज सुबह से ही घर घर जैसा लगता है।
जवान लड़की पर सब की नज़र होती है।
अतएव लड़की अपने प्रियजन से संवाद स्थापित करने में असमर्थ हो रही है।
प्रियतम रूठ रहा है।
लेकिन साजन को इंतज़ार करना पड़ेगा अपनी नाराज़गी जताने के लिए भी।
फोन हाथ में लिए बैठे हैं दोनों।
फुर्सत मिलते ही अपनी अपनी दलील पेश की जाएगी।
दोनों बेकरार हैं।
टीवी पर कुछ खास नहीं आ रहा अभी।
काश कुछ आता तो लोग उसमे व्यस्त होते।
अखबार भी सुबह ही पढ़ दिया गया है।
पड़ोस वाले चाचा भी गप हांकने नहीं आ रहे आज, उनके बेटे की बैंक की परीक्षा है।
सारे मार्केटिंग वाले sms भी अभी ही आ रहे हैं,
वो चाह कर भी फोन silent नहीं कर पा रही है।
कुछ छूटने का डर है।
कुछ मिलने का इंतजार है।।
सिवाय गुड मॉर्निंग के कुछ आदान प्रदान नहीं हुआ है अब तक।
चिकेन की महक से बच्चे किचेन के इर्दगिर्द चहक रहे हैं।
दादी गर्म मसाला पीस रही है।
नाश्ता भी देर से मिलेगा।
लड़के ने रजनीगंधा- तुलसी से मूह प्रक्षालन कर लिया है।
एकांत के अभाव में अब तक धुएं से मिलाप नहीं हो पाया है।
चाचा शौच गृह में स्वच्छता अभियान चालू करने वाले हैं इसीलिए उधर का भी आइडिया बेकार है।
उसके जीजा का भाई भी तो आज ही आने वाला है।
जरूरी हिदायतें और गुस्सा दिखाने की भी रस्म अदा करनी है।
पड़ोस में भाभी ने भी बुलाया है, उनकी सहेली भी...
एक तरफ से निश्चिंत हो तब ना दूसरी तरफ वांछित प्रदर्शन हो पायेगा।
Sms में भाव व्यक्त नहीं कर पाता,
अनर्थ ही हो जाता हर बार है,
साहित्य की अवहेलना का शिकार है।
आज के दिन सब बेरोजगार है
या फिर सब ने बदल लिया रोजगार है।
शायद प्यार में भी उपवास की दरकार है।
काश कि अब भी सुबह सुबह धार्मिक सीरियल आते TV पर।
काश कि मॉर्निंग वॉक के वक़्त वो भी उठ पाती।
काश कि घर में तीसरी मंज़िल भी होती।
काश आज भी उसका कंप्यूटर क्लास होता।
काश भाभी दूसरे दिन बुलाती।
काश काश काश... ये लालची मन का कितना विस्तार है!
शायद लालच भी एक तरह का प्यार है।
आज रविवार है।
आज ही इतवार है।
#shortLoveStory

Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, October 1, 2017

ल प्रे क 09: vacation

छुट्टियों के बाद घर से लौटना।
लगभग हर शख्स आज परमानेंट एड्रेस और कोरेस्पोंडेंस एड्रेस की दूरियों में बंट गया है।

सफ़र के पहले हिस्से में जेहन में तैरते हैं छुटते लम्हे, पड़ोसियों की बतकहियों का विश्लेषण, इस साल त्यौहार के रंग-उमंग में आये फर्क, मोहल्ले में बन गयी नयी सड़क, अचानक से मुछ-दाढ़ीवान हो गए बच्चे, ओढ़नी सम्हालती ट्यूशन को जाती सहेलियों की टोली, पिछली पीढ़ी के टीचर और उनके इंजिनियर होते बेटे, मगर अब भी वैसी की वैसी पड़ोस वाली विधवा बुआ की बुरी लगने वाली बातें और अलग शहरों में बिखर गए स्कूली दोस्तों के कारनामे. चलती गाड़ी की खिडकियों से झांकते हुए विचारक बनने का सुख भी प्राप्त होता है और सब कुछ बदलने के प्रण लेता खुद में छुपा एक क्रांतिवीर भी झांकता है कुछ देर के लिए.

मगर दुसरे हिस्से में! 
फिर वही खीच-पीच, कीच कीच! 
असाइनमेंट्स, क्लास.
अटेंडेंस, मार्क्स.
ड्यूटी, नौकरी. 
बॉस, सैलरी. 
सिग्नेचर,फाइल. 
फेक स्माइल.
टैक्स, किराया. 
ट्रैफिक, पराया...

मगर दोनों वेरिएबल हिस्सों में जो कांस्टेंट होता है हमेशा- इयरफोन और रोमांटिक गाने के साथ गुनगुनाती तेरी याद.
छुट्टियों के बाद घर से लौटना।

मैं भी तो परमानेंट और कोरेस्पोंडेंस एड्रेस के बीच झूलता हूँ. मगर चाहता हूँ कि दोनों एड्रेस पे पहुँचने वाली मेरी चिट्ठियां तुमसे होकर गुजरे.

Sunday, September 17, 2017

ल प्रे क 08 : ईमेल

“मैं दो दिन के लिए मुंबई आ रहा हूँ. अगर तुम ये ईमेल पढ़ रही हो तो रिप्लाई करना.”

वाह! 4 साल बाद याद आई जनाब को. मगर इन 4 सालों में तो कितना कुछ बदल गया था. छूट गया था उसका छोटा शहर. पीछे रह गयी थी उसकी कॉलेज की यादें और समीर की कविताओं की महफ़िल. तब उसकी सहेलियां चिढाती थी अन्ताक्षरी के हर रोमांटिक गाने पर. हया और गुदगुदी के बीच उसे निहारती समीर की निगाहों की अलग ही सी दुनिया होती थी.

पुरे पैराग्राफ वाले मेसेज में जो भाव उभर कर आते हैं, वो शॉर्टकट वाले वर्ड्स में कहाँ. उसने टाइप करना जारी रखा. याद आया वो पल जब समीर ने कैफ़े में साथ बैठ ईमेल ID बना दिया था. ID बनाने में माथा पच्ची इतनी जैसे बच्चे का नाम रखना हो. जब समीर ने उसे प्रोपोज किया, धड़कन को बेतहाशा भागते हुए महसूस किया था उसने. मगर इस पल की तैयारी तो जाने कब से किये जा रही थी वो. खुद पे कण्ट्रोल रख बेरुखी दिखाना और ये सोचते हुए बढ़ जाना- “कल तो पक्का एक्सेप्ट कर लुंगी मगर आज रात इस शायर को तड़पना होगा.”
मगर घर आते ही अब्बू का फरमान- ‘‘बेटे आपकी शादी तय हो गयी है. कल से कॉलेज बंद.”

“मुझे समीर को रिप्लाई करना चाहिए? शादी शुदा हूँ अब!”

मगर कितनी अकेली थी वह यहाँ? चार सालों में काम वाली बाई और अपार्टमेंट गार्ड की बूढी माँ के अलावा किसी और से जुड़ भी नहीं पायी. हस्बैंड भी दिन भर ऑफिस और घर आते ही न्यूज़ चैनल में बिजी. ऊपर से बात बात में टोकना- “गंवारों की तरह कार की सीट पे पालथी मारकर मत बैठो! उफ़ ऐसे पकड़ो कांटे चम्मच!...यहाँ पार्लर में लड़के ही बाल काटेंगे...!” आजतक ठीक से बैठ कर बात तक नहीं की थी दोनों ने.

“मगर एक दोस्त के नाते तो ....पर वो सिर्फ दोस्त तो नहीं? मैं भी तो पसंद करती थी न उसे! लेकिन एक बार बात करने में क्या हर्ज़ है? फिर ये सिलसिला ना थमा तो?” वह आईने में खुद की आँखों में झांककर जवाब ढूंढ ही रही थी कि नीचे से कार की आवाज़ आई. कलेजा धक् से किया उसका और एक ही झटके में उसने मेल डिलीट कर दिया. और उसने डिलीट कर दिया था समीर का कांटेक्ट भी.

हाथ में पानी का गिलास थामे, guilt के साथ नज़रें झुकाए दरवाजे के पास खड़ी हुई थी कि पति ने इशारा करते हुए कहा-

“मीट माई न्यू वाइफ. आज से यहीं रहेगी”

#shortLoveStory #लघुप्रेमकथा

Ⓒ Govind Madhaw