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Wednesday, April 11, 2018

📖 My first publication


ठीक से याद नहीं पहली बार खुद के ख्यालों को कब कागज़ पर उतार पाया था? शायद 13-14 साल की उम्र में. जब कहीं से पिछले साल की एक पुरानी पड़ गयी डायरी हाथ लगी थी. फिर चम्पक और नंदन के लिए अपनी रचनायें भेजता और हमेशा ही रिजेक्ट होता रहा. पहली बार किसी पत्रिका में अपना नाम मैंने संत जेविअर्स कॉलेज रांची के कॉलेज मैगज़ीन में देखा था.
और फिर कुछ साल रिम्स मेडिकल कॉलेज की वार्षिक पत्रिका 'स्पृहा' में सम्पादकीय मण्डली का हिस्सा बन कर रहा. ये मेरे लिए सबसे खुबसूरत साल थे. हर साल जब नयी पत्रिका के विमोचन का दिन होता था, मुझे लगता था जैसे मैंने मातृत्व का सुख प्राप्त कर लिया है. घंटो बीत जाते नयी पत्रिका को हाथ में लिए. हालाँकि पत्रिका के छपने से पहले ही मैं ना जाने कितनी दफा उसमें गोते खा चूका होता था मगर फिर भी विमोचन के कुछ दिन तक मैं हर पन्ने से कई दफा गुजरता, कभी किसी आर्टिकल के लिए चुने गए चित्र पर मुग्ध होता तो कभी किसी पेज की सजावट पर. कभी फीलर्स के जुगाड़ से मन हरसता तो कभी कवर और इंडेक्स में की गयी कलाकारी और मेहनत पर. कुछ लेखकों से कितनी मन्नतें करनी पड़ती थी आर्टिकल लिखने के लिए. कहीं कहीं कोई गलती भी दिख जाती थी कभी तो लगता था कि अभी सब के हाथ से वापस ले लूँ सारी प्रतियाँ और सुधार कर फिर से बाँटू. विमोचन के दिन से मेरे कान खड़े हो जाते थे. दोस्तों से जबर्दस्ती ही मैगज़ीन का जिक्र करता इस उम्मीद से कि वे मेरे प्रयासों पे गौर करेंगे और कुछ बहुत प्रसिद्धि का सुख प्राप्त हो जायेगा. कुछेक दोस्त प्रशंसा भी करते थे, कुछेक को बस चुटकुलों और गप्पों वाले पन्ने का इंतज़ार रहता था, कुछ को बस अपनी तस्वीर से मतलब रहता था और कुछ को अपना नाम देखने की जिद रहती थी. अधिकतर लेखकों को अपना आर्टिकल पहले पन्ने पर चाहिए होता था. और कुछ की फरमाइश होती थी कि उनकी सारी कवितायें पत्रिका में स्थान पाए. कुछ से कहासुनी भी होती थी. कुछेक रचनाओं में वर्तनी सम्बन्धी सुधार के लिए पसीना भी बहाना पड़ता, हालाँकि वर्तनी की सबसे ज्यादा परेशानी मेरी खुद की रचनाओं में होती थी. और कभी कभी तो रचनात्मकता की आड़ में कुछेक रचनाओं से छेड़छाड़ भी कर देता था चुपके से, जिसके लिए कभी सराहना तो कभी उलाहने भी मिलते.
आज फिर से वो सारी यादें ताज़ा हो गयी. अहा ज़िन्दगी के अप्रैल अंक में मेरी एक कहानी को स्थान मिला. ये पहली बार है जब मेरी कोई रचना प्रकाशित हो रही है. और मेरे नानाजी श्री Dhanendra Prawahi जी ने टिपण्णी की- 'वाह नाती! पहली ही बार में इतनी लम्बी छलांग! मुझे तो कई साल लग गए थे राष्ट्रिय स्तर की पत्रिका में जगह पाने में .'
Sushobhit Saktawat से मेरी पहचान फेसबुक के जरिये ही हुई. और पहली ही पोस्ट से उन्होंने मुझे दीवाना बना लिया. बहुत कुछ सीखा है उनसे. एक दिन ऐसे ही बात बात में मैंने पूछ लिया कि क्या मैं भी अपनी रचना किसी पत्रिका में भेज सकता हूँ? तब तक आप दोस्तों के प्यार से मैं कुछेक #लप्रेक और '#100kissesOFdeath' सीरीज की चार पांच कहानियां लिख चूका था. विवेक कान्त मिश्र ने मेरा हौसला बढाया और फिर उस दिन मैंने सुशोभित को अपनी रचना भेजते हुए एक आग्रह किया कि अगर यह आपके पत्रिका के स्तर को सूट करे तभी, अन्यथा ऑनेस्ट रिजेक्शन से भी मेरा खुद का मूल्यांकन ही होगा.
और फिर ये सुखद क्षण!
इतनी लम्बी पोस्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, मगर क्या करता , मन के आवेग को रोकना कठिन था. और फिर आदत भी तो है अपनी हर छोटी-बड़ी ख़ुशी को आपके साथ शेयर करने की.
बहुत बहुत आभार आप सब का.
प्रेम-आशीर्वाद-विश्वास बनाये रखें.


Thursday, December 28, 2017

100 kisses of death: episode 05- 'पास-फेल'

“और कितने दिन जिन्दा रहेंगे आप? सारे शौक तो पूरे कर लिए. पोते का मुंह, खुद के बनाये मकान पर नेमप्लेट, पत्नी का सुहागन रहते स्वर्ग सिधारना सब कुछ तो देख लिया आपने. यहाँ अस्पताल के बिस्तर पर बेहोश पड़े-पड़े जाने कौन सी जिंदगी जी रहे हैं आप.”- चार्ट में डेढ़ लीटर का नोट डाल पेशाब की थैली बदलता हुआ वो बुद्बुदा रहा था. 

इतने दिनों में अस्पताल का यह कमरा भी तो घर जैसा ही लगने लगा था उसे. उसने पुरानी नौकरी छोड़ अस्पताल के रास्ते में पड़ने वाले नए ऑफिस को ज्वाइन कर लिया था. रोज़ शाम जब घर लौट दस्तक देता तो दरवाज़ा खोलती पत्नी की आँखे एक ही सवाल पूछती. मगर जवाब में वह उसके खाली हो गए कान की तरफ झांक नज़रें झुका लेता.

“सच कहूँ तो यह मेरी मर्ज़ी के खिलाफ था, मगर पडोसी और रिश्तेदार कहते थे तो आज घर में प्रार्थना का आयोजन हुआ, आपके जल्दी ठीक हो जाने के लिए. उसी दरम्यान हॉस्पिटल से फ़ोन आया. सब खुसर-फुसर करने लगे. कोई कह रहा था कि चलो अच्छा हुआ, मुक्ति मिल गयी! कोई मुझसे सहानुभूति तो कोई मेरे पुत्रधर्म की प्रशंसा करने लगा था. मगर नर्स ने बताया कि आपने आँखे खोली थी और मेरा नाम पुकारा था. लोगों की दोगली बातों से होने वाली आपकी ऐसी बेईज्ज़ती मुझसे बर्दाश्त नहीं होती अब.”- बूढ़े शरीर को करवट लगा बेडसोर को पाउडर से सहलाता हुआ वह बोले जा रहा था. बंद आँखों के किनारों में जमी मोमनुमा अश्रुकणों को हटाने के बाद वह रुग्ण पैरों की मालिश करने लगा.

“आपकी ही तरह जीनियस आपके पोते ने स्कूल में टॉप किया है! आज रिजल्ट लेने जाना है उसके स्कूल. हो सकता है देर भी हो जाए.”- चेहरे पर बैठने की कोशिश में लगी मक्खी को भगा उसने खिड़की के परदे को ठीक किया और बेहोश शरीर को उठा बेडशीट-कम्बल सँवारने में नर्स का हाँथ बंटाता हुआ कहने लगा था.

जाने कितने महीनो के बाद उसने पत्नी के चेहरे पर ख़ुशी के भाव देखे थे. शहर से दूर तालाब किनारे के रेस्तरां में बैठ तीनों मुस्कुराते हुए आनंदित थे. सेल्फी के लिए पोज देते हुए उसने पत्नी के कंधे पे हाथ रखा, दोनों की निगाहें मिली, पत्नी ने कंधे पे बढ़ते दबाव में छुपे प्रेम को महसूस किया. बेटे ने कैमरा पकड़ दूर से इनकी फोटो खींचने का बहाना बनाया. मुस्कराहट की लकीर शरारत भरी छेड़खानी का रंग ओढने लगी. शाम की तिरछी किरणों के संग तालाब की सतह पर असंख्य सुन्दर भावनाओं की लहर तैरती हुई दिख जा रही थी. बेफिक्री के वक़्त हमेशा की तरह तेज़ी से गुजरने लगे. तभी मोबाइल लेकर बेटा उसके पास आया, हॉस्पिटल का कॉल था.

“आज 11 बजे आपके पिताजी पुरे होश में आ गए थे. उसने नर्स से बातचीत की, अपनी दिवंगत पत्नी की तस्वीर को चूमने में मदद मांगी और यह कह कर लेटे कि अगर उनकी मौत होती है, तो यह खबर परिवारवालों को बिलकुल नहीं दी जाए, जब फुर्सत मिलेगी तब वे लोग खुद आकर बॉडी ले जायेंगे. लेटने के 20 मिनट बाद उनके शरीर में कम्पन हुआ, मॉनिटर ने बताया कि उनकी धड़कन अचानक से बहुत तेज़ हुई और खुद में उलझ कर रुक गयी. डॉक्टर ने वेंट्रिकुलर टैकीकार्डिया से कार्डियक अरेस्ट होने की पुष्टि की.”

वह फिर से बुदबुदाया- “पिताजी की यह आखिरी ख्वाईश भी पूरी नहीं हो पाई बाकि ख्वाइशों की तरह.”  

Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, October 22, 2017

ल.प्रे.क.10: छुट्टी का दिन

आज इतवार है।
आज पिताजी की भी छुट्टी है। 
आज सुबह से ही घर घर जैसा लगता है।
जवान लड़की पर सब की नज़र होती है।
अतएव लड़की अपने प्रियजन से संवाद स्थापित करने में असमर्थ हो रही है।
प्रियतम रूठ रहा है।
लेकिन साजन को इंतज़ार करना पड़ेगा अपनी नाराज़गी जताने के लिए भी।
फोन हाथ में लिए बैठे हैं दोनों।
फुर्सत मिलते ही अपनी अपनी दलील पेश की जाएगी।
दोनों बेकरार हैं।
टीवी पर कुछ खास नहीं आ रहा अभी।
काश कुछ आता तो लोग उसमे व्यस्त होते।
अखबार भी सुबह ही पढ़ दिया गया है।
पड़ोस वाले चाचा भी गप हांकने नहीं आ रहे आज, उनके बेटे की बैंक की परीक्षा है।
सारे मार्केटिंग वाले sms भी अभी ही आ रहे हैं,
वो चाह कर भी फोन silent नहीं कर पा रही है।
कुछ छूटने का डर है।
कुछ मिलने का इंतजार है।।
सिवाय गुड मॉर्निंग के कुछ आदान प्रदान नहीं हुआ है अब तक।
चिकेन की महक से बच्चे किचेन के इर्दगिर्द चहक रहे हैं।
दादी गर्म मसाला पीस रही है।
नाश्ता भी देर से मिलेगा।
लड़के ने रजनीगंधा- तुलसी से मूह प्रक्षालन कर लिया है।
एकांत के अभाव में अब तक धुएं से मिलाप नहीं हो पाया है।
चाचा शौच गृह में स्वच्छता अभियान चालू करने वाले हैं इसीलिए उधर का भी आइडिया बेकार है।
उसके जीजा का भाई भी तो आज ही आने वाला है।
जरूरी हिदायतें और गुस्सा दिखाने की भी रस्म अदा करनी है।
पड़ोस में भाभी ने भी बुलाया है, उनकी सहेली भी...
एक तरफ से निश्चिंत हो तब ना दूसरी तरफ वांछित प्रदर्शन हो पायेगा।
Sms में भाव व्यक्त नहीं कर पाता,
अनर्थ ही हो जाता हर बार है,
साहित्य की अवहेलना का शिकार है।
आज के दिन सब बेरोजगार है
या फिर सब ने बदल लिया रोजगार है।
शायद प्यार में भी उपवास की दरकार है।
काश कि अब भी सुबह सुबह धार्मिक सीरियल आते TV पर।
काश कि मॉर्निंग वॉक के वक़्त वो भी उठ पाती।
काश कि घर में तीसरी मंज़िल भी होती।
काश आज भी उसका कंप्यूटर क्लास होता।
काश भाभी दूसरे दिन बुलाती।
काश काश काश... ये लालची मन का कितना विस्तार है!
शायद लालच भी एक तरह का प्यार है।
आज रविवार है।
आज ही इतवार है।
#shortLoveStory

Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, October 1, 2017

ल प्रे क 09: vacation

छुट्टियों के बाद घर से लौटना।
लगभग हर शख्स आज परमानेंट एड्रेस और कोरेस्पोंडेंस एड्रेस की दूरियों में बंट गया है।

सफ़र के पहले हिस्से में जेहन में तैरते हैं छुटते लम्हे, पड़ोसियों की बतकहियों का विश्लेषण, इस साल त्यौहार के रंग-उमंग में आये फर्क, मोहल्ले में बन गयी नयी सड़क, अचानक से मुछ-दाढ़ीवान हो गए बच्चे, ओढ़नी सम्हालती ट्यूशन को जाती सहेलियों की टोली, पिछली पीढ़ी के टीचर और उनके इंजिनियर होते बेटे, मगर अब भी वैसी की वैसी पड़ोस वाली विधवा बुआ की बुरी लगने वाली बातें और अलग शहरों में बिखर गए स्कूली दोस्तों के कारनामे. चलती गाड़ी की खिडकियों से झांकते हुए विचारक बनने का सुख भी प्राप्त होता है और सब कुछ बदलने के प्रण लेता खुद में छुपा एक क्रांतिवीर भी झांकता है कुछ देर के लिए.

मगर दुसरे हिस्से में! 
फिर वही खीच-पीच, कीच कीच! 
असाइनमेंट्स, क्लास.
अटेंडेंस, मार्क्स.
ड्यूटी, नौकरी. 
बॉस, सैलरी. 
सिग्नेचर,फाइल. 
फेक स्माइल.
टैक्स, किराया. 
ट्रैफिक, पराया...

मगर दोनों वेरिएबल हिस्सों में जो कांस्टेंट होता है हमेशा- इयरफोन और रोमांटिक गाने के साथ गुनगुनाती तेरी याद.
छुट्टियों के बाद घर से लौटना।

मैं भी तो परमानेंट और कोरेस्पोंडेंस एड्रेस के बीच झूलता हूँ. मगर चाहता हूँ कि दोनों एड्रेस पे पहुँचने वाली मेरी चिट्ठियां तुमसे होकर गुजरे.

Sunday, September 17, 2017

ल प्रे क 08 : ईमेल

“मैं दो दिन के लिए मुंबई आ रहा हूँ. अगर तुम ये ईमेल पढ़ रही हो तो रिप्लाई करना.”

वाह! 4 साल बाद याद आई जनाब को. मगर इन 4 सालों में तो कितना कुछ बदल गया था. छूट गया था उसका छोटा शहर. पीछे रह गयी थी उसकी कॉलेज की यादें और समीर की कविताओं की महफ़िल. तब उसकी सहेलियां चिढाती थी अन्ताक्षरी के हर रोमांटिक गाने पर. हया और गुदगुदी के बीच उसे निहारती समीर की निगाहों की अलग ही सी दुनिया होती थी.

पुरे पैराग्राफ वाले मेसेज में जो भाव उभर कर आते हैं, वो शॉर्टकट वाले वर्ड्स में कहाँ. उसने टाइप करना जारी रखा. याद आया वो पल जब समीर ने कैफ़े में साथ बैठ ईमेल ID बना दिया था. ID बनाने में माथा पच्ची इतनी जैसे बच्चे का नाम रखना हो. जब समीर ने उसे प्रोपोज किया, धड़कन को बेतहाशा भागते हुए महसूस किया था उसने. मगर इस पल की तैयारी तो जाने कब से किये जा रही थी वो. खुद पे कण्ट्रोल रख बेरुखी दिखाना और ये सोचते हुए बढ़ जाना- “कल तो पक्का एक्सेप्ट कर लुंगी मगर आज रात इस शायर को तड़पना होगा.”
मगर घर आते ही अब्बू का फरमान- ‘‘बेटे आपकी शादी तय हो गयी है. कल से कॉलेज बंद.”

“मुझे समीर को रिप्लाई करना चाहिए? शादी शुदा हूँ अब!”

मगर कितनी अकेली थी वह यहाँ? चार सालों में काम वाली बाई और अपार्टमेंट गार्ड की बूढी माँ के अलावा किसी और से जुड़ भी नहीं पायी. हस्बैंड भी दिन भर ऑफिस और घर आते ही न्यूज़ चैनल में बिजी. ऊपर से बात बात में टोकना- “गंवारों की तरह कार की सीट पे पालथी मारकर मत बैठो! उफ़ ऐसे पकड़ो कांटे चम्मच!...यहाँ पार्लर में लड़के ही बाल काटेंगे...!” आजतक ठीक से बैठ कर बात तक नहीं की थी दोनों ने.

“मगर एक दोस्त के नाते तो ....पर वो सिर्फ दोस्त तो नहीं? मैं भी तो पसंद करती थी न उसे! लेकिन एक बार बात करने में क्या हर्ज़ है? फिर ये सिलसिला ना थमा तो?” वह आईने में खुद की आँखों में झांककर जवाब ढूंढ ही रही थी कि नीचे से कार की आवाज़ आई. कलेजा धक् से किया उसका और एक ही झटके में उसने मेल डिलीट कर दिया. और उसने डिलीट कर दिया था समीर का कांटेक्ट भी.

हाथ में पानी का गिलास थामे, guilt के साथ नज़रें झुकाए दरवाजे के पास खड़ी हुई थी कि पति ने इशारा करते हुए कहा-

“मीट माई न्यू वाइफ. आज से यहीं रहेगी”

#shortLoveStory #लघुप्रेमकथा

Ⓒ Govind Madhaw