Showing posts with label व्यंग. Show all posts
Showing posts with label व्यंग. Show all posts

Monday, May 29, 2017

लुप्तप्राय गधों की मीटिंग



गधों ने अपनी सभा बुलाई.
विलुप्त होने के कगार पे पहुंचे इस पशुकुलश्रेष्ठ प्रजाति ने अपने विदर्भ समिति के अध्यक्ष से आग्रह किया कि वे दो शब्द कहें.

महाशय ने अपनी मजबूत कही  जाने वाली गर्दन को हिलाते हुए दुलत्ती मारने की प्रैक्टिस की और अश्रुमिश्रित शब्दों की वर्षा प्रारंभ की-
" साजिश है ये इंसानों की. अच्छे भले हम जंगल और बस्ती के बीच वाले स्थान में विचरण करते थे, कच्छ के रण में शोभित होते थे, मुफ्त में घास-पानी का लालच देकर इंसानों ने हमें गुलाम बनाया. हम तो ठहरे गधे, खुद तो गुलाम हुए ही, अपनी पूरी बिरादरी और फिर पूरी पीढ़ी को ही गुलाम बनवा दिया. "

मण्डली में बैठे एक जवान गधे ने नेता के पश्चाताप पर आश्चर्य जताया, उसे तो पता भी नहीं था कि गधे कभी आज़ाद जानवर भी हुआ करते थे, उसने तो धोबी के कोड़े खाने और बोझ ढोने को ही अपनी नियति मान ली थी.

अध्यक्ष रूपी वृद्ध ने अपने इतिहास की गलतियों को जगजाहिर करना जारी रखा-
" हमने अपनी गलतियों से कुछ नहीं सीखा. खुद गुलाम हुए, पूरी जाती को गुलाम बनाया, जो आज़ाद बचे थे उनके शिकार करने में अपने मालिक की मदद भी की. मगर इंसानों से बड़ा स्वार्थी इस दुनिया में कोई नहीं. जल्लाद इंसानों को हमारी आज़ादी ख़त्म कर के सुकून नहीं मिला तो हमारी वंशावली को भी चपेट में ले लिया. "

"वो कैसे!" एक बालक गधे ने नींद तोड़ते हुए फेसबुक अपडेट किया.

नयी पीढ़ी की भागीदारी से आंशिक ख़ुशी हासिल करते हुए नेता ने उसकी तरफ देखते हुए जेनोसाइड का रहस्योद्घाटन करना प्रारंभ किया-
"वंशवृद्धि के लिए पहले हमारे मालिक हमें खुले मैदान में छोड़ देते थे जहाँ स्वच्छंद वातावरण में हमारी सुंदरियां स्वयंवर का आयोजन करती थी, प्यार-मुहब्बत के माहौल में हम संसर्ग सुख को प्राप्त करते थे. हां, जंगलों की तरह अपने संतान की देखभाल का सौभाग्य तो हमें नहीं मिलता था, मगर हमारी गधियों पे सिर्फ हम गधो का हक था."
"तो क्या अब हमारी गधियों पे किसी और का हक हो गया?" ड्यूड एटीच्युड वाले लोफर नवजवान गधे की नींद खुली.

नेता अब अपने सर्वनाश की गाथा खुद कहने में असमर्थ हो रहा था, उसने महिला(गधी) मुक्ति मोर्चा की अध्यक्षा से आग्रह किया और खुद वहीँ पे लोट गया.
अत्यधिक प्रजनन पीड़ा से गुजरने के बाद एकदम काल के द्वार पे खड़ी मोहतरमा ने पश्चाताप को सार्वजनिक किया-
"उस दिन भी हम सज संवर कर स्वयंवर के लिए रवाना हो रहे थे, मगर राश्ते में एक जगह मुलायम घासों के ढेर ने हमें मोहित कर लिया. हम नरो के झुण्ड से अलग हो गए. मगर वह हमारी पीढ़ी के लिए युगांतकारी गलती थी. दरअसल वो घासों का ढेर हमारे लिए नहीं बल्कि पश्चिम से आये रेगिस्तानी इंसानों के काफिलों में शामिल घोड़ों के लिए था. महीनो से घर से दूर रहे घोड़े अपनी घोड़ियों के विरह में दुखी थे. मगर क्या पर्सनालिटी थी उनकी, गले के पास सुन्दर बाल, लम्बी संवरी हुई पूंछ, मदमस्त करने वाली चाल. हम में से एक गधी का दिल फिसल गया."

महोदया की इन  बात से जल भुन कर राख होते बुजुर्ग गधों ने अपनी कद काठी का मजाक बनना बर्दाश्त करते हुए शान्ति बनाये रखने में सहयोग किया.
"रेगिस्तानी कबिले के मुसाफिर वहीँ के गावं की एक औरत को उठा कर ले आये थे, वे उनके साथ जबरदस्ती करने लगे. हमें भाग जाना चाहिए था मगर हम अभी भी घोड़ो के रूप-अदा पर मोहित थे, होश ही नहीं रहा कि कब कुछ विदेशी घोड़ों ने अपनी हवस का निशाना हमें बना लिया है."

क्रोधित मगर मजबूर सेनापति की भूमिका वाले लंगड़े गधे ने उठकर कहा-
"हम तो वापस आये थे तुमलोगों को बचाने, मगर कुछ गधियो को प्यार हो गया था घोड़ो से. जब घर में ही विभीषण हो तो हार तो होनी ही थी. मेरे बड़े भाई को वीर गति की प्राप्ति हुई. मैंने अपनी टांग गंवाई. कुछ गधियों का अपहरण हो गया , वे रेगिस्तान चली गई. मगर हम कुछ गधियों को बचा कर लाने में कामयाब रहे."

मूर्ख जनता उसकी विजयगाथा पे वाहवाह करने लगी तो क्रोधित अध्यक्ष उठ खड़ा हुआ!
"बात इतने पे ख़त्म होती तो कोई बात नहीं थी. उस वर्ष स्वयंवर का कार्यक्रम रद्द हो गया. मगर कुछ गधियाँ गर्भवती हो गईं. हमने गर्भपात के आप्शन पर विचार किया मगर दयाभिभूत होकर एक और बड़ी गलती कर दी. उन्होंने बच्चो को जन्म दिया. बच्चे हृष्टपुष्ट थे. प्रसव पीड़ा बहुत ज्यादा हुई. मादा की सेवा में वे नर(गधे) लगे थे जिनका हक मरा गया था, जिनके घर की इज्ज़त लुटी गयी थी, सहिष्णुता की पराकाष्ठा पर थे हम. मगर हाय! ये बच्चे मंदबुद्धि निकले. देखने में लुभावने थे जरुर, कुछ चितकबरे भी थे. कद काठी में हमसे ऊँचे भी, मगर पेट से लालची. जहां घास दिखे वहीँ घिसक जाते, समाज की कोई चिंता नहीं. सबसे ख़राब कि उन्हें हमउम्र गधियों में कोई इंटरेस्ट नहीं था. और शीघ्र ही हमें पता चला कि ये सब के सब नपुंसक थे. "
आश्चर्यचकित जनता आँखे फाड़ सुन रही थी.

एक मॉडर्न गधी ने सवाल दागा-"मगर पीढ़ी आगे कैसे बढ़ी?आपकी कहानी में पूर्वाग्रह के भाव हैं, झूठ बोलते हैं आप , कम्युनल बना रहे हैं हमें!"
अपनी भावी पीढ़ी के मूर्ख विचारों से घायल अध्यक्ष ने उसकी जिज्ञासा शांत की-
"नपुंसक पीढ़ी ने हमें क्षणिक ख़ुशी दी. चलो बलात्कारियों की पीढ़ी आगे नहीं बढ़ेगी. हम पुनः जीन की शुद्धता को जारी रख पायेंगे. मगर इंसानों ने हमें फिर से धोखा दिया."
"फिर कैसे?क्या उन्होंने हमें मारना शुरू कर दिया क्योंकि हम अपवित्र हो गए थे?" अत्यधिक धार्मिक गधी ने घूँघट हटा कर पूछा.
"मार देते तो अच्छा था, कम से कम ये दिन तो नही देखना पड़ता." सेनापति ने घुटन महसूस करते हुए कहा.
अध्यक्षा ने आगे की कमान को सम्हाला-
"हमारे पुरुष विरादरी ने नपुंसक गधो के साथ इतना भेदभाव किया कि वे इंसानों के परमभक्त हो गए. इंसानों को शीघ्र ही ज्ञान हो गया था कि ये नपुंसक गधे शरीर से मजबूत मगर दिमाग के पैदल हैं, यानी बोझा ढोने के उस्ताद बिना किसी शिकायत के. इंसानों ने इन्हें खच्चर का नाम दिया. और तब से हर साल स्वयंवर के ठीक पहले हमारी आधी सुन्दरियों को इनसान उठा कर ले जाते हैं और हवसी घोड़ो के हवाले कर देते हैं. बची खुची, छंटी -कटी रिजेक्टेड आइटम्स से ही हम गधो का काम चलता है. इस क्रम में हम अच्छे ब्रीड को जन्म नहीं दे पाते. आधे नर गधों को तो ऐसे ही चांस नही मिलता तो वे समलैंगिक हो गए हैं. अब  नर गधो से इंसानों को कोई फायदा नहीं, उन्हें तो बस सुन्दर गधियाँ चाहिए और चाहिए खच्चर. और इस प्रकार से हम संख्या में हर साल कम होते चले गए. आज देश में गिनती के 689 गधे बचे हैं."
"तो क्या हम रेड डाटा बुक में शामिल हो गए, विलुप्तप्राय प्राणियों की लिस्ट में ?" जीनियस बच्चे ने इसमें भी अपनी गौरव गाथा खोजने की कोशिश की.
"हमारी किस्मत में प्रसिद्धि के साथ मौत भी नहीं लिखी हुई है. हम कौन से डायनासोर हैं जो हम पे कोई फिल्म बने और हम फेमस हों. ना ही हम शेरो की तरह आकर्षक खूंखार हैं जिन्हें आदमी अपनी जीत की निशानी के लिए जिन्दा रखे. हम तो लालची सीधे सादे मेहनती जानवर ठहरे जो अपनी निशानी भी दूसरो की दया पर जिन्दा रख पाए हैं."
"तो क्या किसी धार्मिक अनुष्ठान में भी हमारा कोई जिक्र नहीं है?" खोजी पत्रकार गधे ने अपनी ही बिरादरी पे वार कर के नाम कमाने की कला का परिचय दिया.
"अच्छा हुआ जो धर्म से विमुख हुए. वरना बीच सड़क पे काट दिए जाते! गायों का हाल देखा है तुमने?" अभी अभी शहर से लौटे खच्चर का भेष धारे पूंसक गधे ने अपनी ताजा खबर पेश की. धर्म में सम्मिलित नहीं होने के दाग पे भी सबने राहत की साँस ली. इसे कहते हैं आशावादी सोच. घोर आशावादी!

"मगर जेनोसाइड की प्रक्रिया अभी जारी है. अब घोड़ों को भी कोई नहीं पूछता सिवाय सेना के परेड के और जुए वाली घुडदौड के. खच्चर भी दिमाग से पैदल होने के कारण मालवाहक के अलावा किसी और काम में अपनी उपयोगिता नहीं साबित कर पाए. अब तो रेगिस्तानी तेल से चलने वाली पहिये वाली गाडी भी आ गयी है, इंसानों ने काफी तरक्की कर ली है. पहाड़ चढ़ने के लिए भी उड़ने वाली गाड़ियाँ हैं उनके पास." शहर से लौटा मुखबिर खच्चर का भेषधारी गधा बता रहा था.
" तो अब हम भी उड़ने वाली गाड़ियों में लादे जायेंगे?" मासूम बच्चे ने कल्पना लोक में खोते हुए अपनी माँ से पूछा.
"उसमे सिर्फ कुत्तो को चढ़ने की इज़ाज़त है. वे जानते हैं कि कब दुम हिलाना है और कब भौंकना है. स्वाभिमानी और मूर्ख जानवरों को ये सब नसीब नहीं.
तो भाइयों और घोड़ों की हो चुकी गधियों! हम अपने सर्वनाश के करीब हैं. क्या कोई उपाय है आपके पास कि हम अपनी स्पीशीज को धरती से गायब होने से बचा लें?" अध्यक्ष ने उम्मीद की थी कि कोई जोशीला जवान आगे आएगा और ये जिम्मेदारी लेगा.
मगर तभी बगल से घुड़सवार का एक काफिला गुजरा. आधी गधियाँ लाइनखोरी करती हुई उनके पीछे चल उठी. आत्महत्या के लिए जा रहे एक किसान ने अपनी अर्थी का सामान एक गधे की पीठ पे बांधना शुरू किया. बोझ के डर  से बाकी गधे मीटिंग को बीच में ही छोड़ रफूचक्कर हो गए.
लंगड़े सेनापति, बूढ़े नेता और मरणासन्न महोदया जीवन के आखिरी पड़ाव में ज्ञान प्राप्ति के अवसाद से और दुखी होकर पागलखाने की तरफ चलने लगे जहाँ शायद मुफ्त में कुछ घास-फूस मिल जाए.




Sunday, November 6, 2016

पटाखे और प्रदुषण :बागोमेंबहारहै?

पटाखे और प्रदुषण : संभव है अगले कुछ दिनों में यह टॉपिक स्कूलों में निबंध का विषय बन जाये. जाहिर सी बात है लोगो के नजरिये अलग अलग होंगे और फिर उनके बच्चो के नजरिये भी उसी तरह के होंगे. कुछ कान्वेंट और मदरसे वाले स्कूलों में टॉपिक जरा बदला सा होगा- 'दिवाली और प्रदुषण'. वहीँ कुछ संघी स्कूलों में 'दिवाली और पटाखे' सरीखे टॉपिक पे वाद-विवाद के आयोजन भी होंगे जिसमे कुछ पक्षधर होंगे तो कुछ रविश कुमार के फोलोवेर्स.
अभी अभी दिल्ली से लौटा हूँ. और इस सच को अच्छी तरह से महसूस कर के आया हूँ कि वाकई दिवाली की रात लोगों ने हवाओं में खूब जहर घोला है. इतना जहर कि उस रात के बाद से दिल्ली की फिजाओं में बस धुआं और अँधेरा बिखरा है. जाने कैसी रौशनी फैला रहे थे लोग. प्रकाश पर्व में कब 'धुआं और ध्वनि' सम्मिलित हो गए यह तो इतिहासकारों के शोध का प्रश्न है- अलग बात है इतिहासकारों की भी आजकल जमात होती है,कुछ कम्मुनिस्ट तो कुछ सेक्युलर और कुछ देशभक्त.
खैर सिर्फ सवाल उठाना मेरा मकसद नहीं है, सिर्फ सवाल करने के लिए तो कई सारे लोग आपके इर्द गिर्द हैं. जिनका काम हर एक सेकंड सिर्फ सवाल करना है. और सवाल न मिले तो यह भी एक सवाल बन जाता है. और फिर आता है- #बागोमेंबहारहै?
आइये न हम इन सवालों के जवाब ढूंढे? हां! अगर आप सच में बागो और बहारो के शौकीन हैं, तो आइये न दो कदम चलते हैं साथ साथ...जवाब तलाशने के लिए.
१.    #पटाखे: हमें इनकी क्या जरुरत है? बेमतलब अचानक से चिल्ला देने वाले, गम हो या ख़ुशी- बस एक ही तरह के आवाज़ निकलने वाले ये क्या हैं? ख़ुशी तो हमारे नज़रिए में होती है. हमारे इतिहासों में तो धमाकों का जिक्र बस युद्ध-कथाओं में मिलता है. ख़ुशी के आयोजनों को मिनी-युद्ध की शक्ल देनेवाले, हादसों को आमंत्रित करने वाले, मेरे जैसे कमजोर-दिल वालों को डरपोक साबित कर हंसी का पात्र बना देने वाले, किसानो के इस देश में पुवालो-खलिहानों में चिंगारी देकर सब बर्बाद कर देने वाले,हवाओं में जहर घोलने वाले, बाल-श्रमिकों के सबसे लम्बी फौज खड़ी  करने वाले, प्रदुषण जैसे शब्द को हज़ार गुना महिमामंडित करने वाले, भारत-पाक क्रिकेट में देशभक्ति और देशद्रोह वाले मोहल्ले का पैमाना बनने वाले, न्यू-इयर में चाइना और लन्दन से तथा क्रिसमस में रोम से आतिशबाजी-कलाबाजी की तरह लाइव होनेवाले ये!!पटाखे क्या हमारे लिए इतना जरुरी हैं?
 क्यों न सरकार और समाज के द्वारा पटाखों और इसी की तरह बेमतलब के शोर करने वालो और ध्वनि-धुआं-ध्यान-और हमारी सोच को प्रदूषित करने वाली हर चीज़ पे बैन लगा दिया जाए. जैसे कि कुछ राज्यों में शराब पे बंदी है, क्यों न पुरे देश में पटाखों पे ही पाबन्दी हो. #पटाखोंपेपाबन्दी
२. #स्मोकिंग: दिवाली और प्रदुषण में फिलोसोफी झाड़ते लोगो को सुना. दिल्ली में ही सुना. चाय पे चर्चा करते देश के होनहारो को भी सुना और उनके  सामाजिक सरोकारों को भी. मगर ये मोदी वाली चाय पे चर्चा नहीं थी. ये थी #चाय सुट्टे पे चर्चा . जितना प्रदुषण ये पटाखे से कम करना चाह रहे थे, इनकी चर्चा लम्बी होती जा रही थी और उतनी ही बढती जा रही थी सुट्टे/सीगेरेट के खपत. यकीं मानिये दस मिनट में माहौल ऐसा कि मुझे मास्क लगाना पड़ गया. और मेरी सवाल पूछने के लिए ही सही मगर आवाज़ निकालने की हिम्मत नहीं हुई. अस्थमा ने भी मौका देखकर अपना अनशन तोड़ लिया था.
३.#ट्रैफिक: वो अमीरी ही क्या जो दुनिया को ना दिखे. दिल्ली में मर्सिडीज़, पोर्स्च, स्कोडा, bmw और भी कई तरह के ब्रांड ....सब रोड में चहलकदमी करते हैं...मगर उनमे सवारी सिर्फ एक. बाकी की सीट खाली. बाइक से ज्यादा कार यही पे दीखते हैं. हमारे रांची में तो यह अनुपात उल्टा है. मतलब सिर्फ शौक और दिखावे के लिए अपने पिछवाड़े से लगातार हवाओं में धुआं छोड़ने वाली ये आदत क्यों? क्या मेट्रो-बस-पब्लिक ट्रांसपोर्ट और साइकिल जैसे option पे विचार नहीं होना  चाहिए. सोचिये?

४. बाकी की सवालों को लिखने का एक ही मतलब है की आप बिना पढ़े उसे या तो like करेंगे या discard. अतः अपने शब्द बर्बाद कर के वैचारिक प्रदुषण फैलाने के मेरा कोई इरादा नहीं है. एक और आग्रह है उनलोगों से जो फेसबुक पे एक बार में 20-25 photo अपलोड करते है, जिनमे एक ही photo के तीन-चार नमूने होते हैं. तो जनाब इन तस्वीरों को कोई नहीं देखता, क्योंकि ना तो किसी के पास बेकार समय है ,ना ही डाटा....यह बल्क-अपलोड भी एक तरह का प्रदुषण ही है.#photopollution, #डाटाpollution.

Thursday, April 28, 2016

क्या मुझे अपना मोबाइल नंबर मरीजों को बाँटना चाहिए?

अभी ३६ घंटे  की लगातार ड्यूटी कर के लौटा था. थके मन ने खाने की जगह सोने को ताबज्जोह दी. बिखरे  पड़े कमरे में सोने के लिए जगह बनाता  लुढका तो होश ही नहीं रहा की मोबाइल तब से साइलेंट मोड में ही पडा हुआ है. कुछ देर बाद जब आँख खोलने के लायक हुआ तो अँधेरे कमरे में जो पहली जरुरत महसूस हुई वो मोबाइल के टोर्च वाली रौशनी की. ओह! 18 मिस्स्काल्ल्स. और 2 मेसेज भी. और ढेर सारे whatsapp के messages और एक फेसबुक का चैट-विंडो.
पहली जिज्ञासा missed calls की थी. मम्मी के दो थे, उन्हें आखिरी में कॉल बैक करूँगा.  4 मेरे दोस्तों के थे जिन्होंने गेट-together  प्लान किया था. सब पहुँच गए थे मगर मैं....खैर अब इन्हें बाद में समझाया जाएगा. 5 - 6  unknown नंबर्स थे. और बाकी मेरे मरीजों के. शुरुआत उन्ही से की. कुछ ठीक थे, कुछ गड़बड़. कुछ को बुलवा लिया कुछ को यथासंभव फ़ोन पे ही सलाह दे दी. हालाँकि मरीजों को मोबाइल  नंबर देना -पता नहीं कितना सही है. कुछ तो आपकी मजबूरी समझते हैं, समय देखकर कॉल करते हैं वो भी बहुत जरुरी हो तो. मगर अधिकतर तो बिना सोचे समझे कभी भी फोन कर देते हैं. जैसे-
"...आज घर में मटन बना था तो पापा को खिला दे क्या? "
"....आज न मेरी बेटी को बुखार जैसा लग रहा है,क्या करें दिखा दे डॉक्टर से या एक दो दिन इंतज़ार कर ले?आप मुझे नहीं पहचाने,मैं अपनी साली को लेकर दिखाने आया था?"
"....अच्छा आज रांची बंद है क्या? कुछ काम से रांची आना था तो आप रांची में थे न तो सोचे की आप से ही पूछ लें?"
".....अच्छा डॉक्टर साहब आप देखे थे मेरे जीजाजी को तो हम सोच रहे थे की एकबार उनको एम्स में दिखा लें, क्या सलाह रहेगा आपका. मान लीजिये कि आप तो देख हि रहे हैं मगर एक संतुष्टि के लिए.?"
"....वो जो मेरी पडोसी थे जिनको कि हमलोग प्राइवेट हॉस्पिटल में ले गए थे दिखाने के लिए,आपके हॉस्पिटल में AC नहीं था न इसलिए, तो वो वाले डॉक्टर साहेब तो विदेश गए हुए हैं, अभी उनको थोडा सा लूज़ मोशन हो गया है तो सोचे की आपही से पुच लेते हैं,आखिर आपको भी तो इतना नॉलेज तो होगा ही न. न हो तो किसी सीनियर डॉक्टर का नाम बताइए न उन्ही से दिखा लेते हैं?...... "
...
...
और भी इसी तरह के कई वाहियात सी बातें. भाई सरकार हमें फ़ोन उठाने का पैसा थोड़े न देती है. और इस सरकारी अस्पताल में हम बिना फीस के मरीज़ देखते हैं, सांस लेने के लिए भी घडी देखते हैं, उसमे ऐसे फ़ोन कॉल्स...और न उठा पाए तो रोबदार नाराज़गी भी.

Tuesday, October 29, 2013

और हिंदी दिवस गुज़र गया

और हिंदी दिवस गुज़र गया 
गुज़र गया एक बोझ जैसे 
गुजर गयी दकियानूसी खयालो की रश्म अदायगी 
कल से फिर वही फैशन परस्ती में किलबिलाते से अधखिले लफ्ज़ 
और अगले साल तक के लिए

Monday, February 25, 2013

एक देश भक्ति गीत

 once again to tease u on this eve..


हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं.
facebook के आधे से भी ज्यादा id fake हैं...

जन गन मंगल दायक भारत भाग्य विधाता है.
उमर कसाब लादेन सब का RBI में खाता है....

देने वाले जब भी देते, देते छप्पर फाड के.
भले इंडिया गेट को भी लश्कर ले जाए उखाड के....

जहाँ डाल डाल पे सोने की चिड़िया लटकती है.
उस जंगल में नक्सल के डर से तितली भी नहीं भटकती है....

हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा सडती है.
गैया बकरी कटती है, मुनिया बेटी पढ़ती है.....

अन्ना तुम्हारे अन-शन पे response हमारा late है.
क्योकि आधा इंडिया हर रात को सोता खली पेट है.
IPL TICKET का फिर भी बढ़ता जाता रेट है.....

देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गयी भगवान.
मिडिया झूठी,नेता अनपढ़ जज हुए बेईमान......

आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ मिटटी हिन्दुस्तान की.
खून खराबा दंगा कर, है कसम खुदा और राम की.....

राजनीती को गन्दी कह कर देशी दारू चखना है.
दम मारो दम, अपने मन तो बस लन्दन का सपना है.....

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा है.
आज का graduate ये न जाने गाँधी को किसने मारा है .....

मेरे देश की धरती कोयला उगले उगले हैजा टीबी
हर जवान के एक ही सपना एक सुन्दर सी बीबी.....

गूंगी बहरी भीड़ को चीर राज होता बलात्कार .
टेंसन नहीं लेने का, लीजिए न पान बहार......

मेरी बात न पचे तो लीजिए हाजमोला है.
बियर बार में टुल्ली होकर आज शिवाजी बोला है......

ए मेरे वतन के लोगों जरा पेट में भर लो पानी
लाल कार्ड के आस में न देखो राजनीती खानदानी......

इन्साफ की डगर पे बेटा तू चलना डर के.
कुत्ते भी न पूछे जो गए वतन पे मर के .....

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी है.
अपने प्यारे इंडिया की बस यही कहानी है..