मेरे इंजिनियर
दोस्त ने अपनी नयी ऑडी खरीदने की पार्टी में मुझसे पूछा – “यार तू इतने साल से पढ़
रहा है , मगर कुछ नया क्यों नहीं करता मेडिकल साइंस
में? लुइस पास्चर 200 साल पहले वैक्सीन
बना के मर गया , मगर तुमलोग आजतक बस उसी पे अटके हुए हो.
यार गोविन्द तू कुछ कर यार ! कुछ ऐसा कि कोई बीमार ही न पड़े. कहने
का मतलब ऐसी कुछ तरकीब बना कि ये दवाओं का, हॉस्पिटल का, तेरी इतनी लम्बी पढाई का,
फालतू के टेस्ट्स का लोचा ही ख़त्म हो जाए जिंदगी से. दुनिया डिजीज फ्री हो जाये!”. उसने कहना जारी रखा-“ मैं तो रोज़
एक्सरसाइज करता हूँ, हेल्दी डाइट लेता हूँ, रेगुलर चेक-अप करवाता हूँ, कोई बुरी
आदत नहीं है, माँ - बाप भी पूरी तरह स्वस्थ हैं फिर मुझे क्यों हुआ ये अल्सरेटिव
कोलाइटिस ? मेरे दोस्त को क्यों नहीं हुआ कैंसर जो इतना धुआं धुआं के जलवे बिखेरता
है?कुछ तो प्रोटोकॉल होगा भगवान् के पास कि किसे बीमार करना है, कब करना है, कितना
करना है और किसे नहीं करना है??”
उसकी दार्शनिक
बातों से प्रभावित सा होता हुआ मैं ख्यालों में खोने लगा. हालाँकि उसकी आगे की
बातों में उसके बायोलॉजी के अल्पज्ञता का उन्मुक्त प्रदर्शन हो रहा था और बेमतलब
के सवालों की बौछार थी मसलन- “यार मुझे होल बॉडी चेक करवाना है. मुझे यादाश्त
बढाने वाली सुई लगवा दे. कल से मेरी गर्लफ्रेंड को सर दर्द हो रहा है, कहीं कोई
ब्रेन ट्यूमर तो नहीं हो गया?..इत्यादि.” इन बातों में उसकी जिज्ञासा कम और उसकी
उपलब्धियों और ऐशोआराम का प्रतिशत हर मिनट एकसमान त्वरण से बढ़ता जा रहा था, और
व्युत्क्रमानुपाती दर से मेरी अभिरुचि कम होती जा रही थी. मगर मन के अधिकतर हिस्से पे मेरी जिज्ञासाएं और आत्ममंथन
प्रक्रिया के प्रोग्राम्स रन करने लगे थे.
मन की स्थिति को
समझते हुए मैंने जाकर दामन पकड़ लिया अपनी बाइक का - जो कि मेरी हर दार्शनिक क्षणों में मेरा सगिर्द रहा
है. या यूँ कहें कि अपनी बाइक पे तन्हाई का दामन थामे जब मैं रांची की जानी-पहचानी गलियों में
भटकता हुं तभी सारी जकड़नो से आज़ाद मेरे मन
में खुले विचारो का आना जाना हो पाता है. रानी हॉस्पिटल के बगल से गुजर रहा था कि
रोड पे एक मंगोल-इडियट बच्चा माँ की ऊँगली
पकडे गुज़र रहा था. कुछ दूर आगे राज भवन के पास एक रईसजादे की सफारी से टकरा कर
इवनिंग वाक पे निकले बाबा की टांग टूट गयी थी. रॉक गार्डन के सामने अल्बिनिस्म से
ग्रस्त मगर अपनी जिंदगी में मस्त एक बाबा love-लाइफ की ज्योतिषी झाड रहे थे. और
कांके ब्लाक के पास तो......आप समझ ही गए होंगे कि क्या देखा होगा मैंने? इन सब
लोगों में एक बात कॉमन थी, वो ये कि इन सब की बिमारियों में इनकी कोई गलती नहीं
थी. मन बहलाने वाले तर्कों ,जिन्हें pshychology के शब्दों में ‘डिफेंस मेकेनिस्म’
कहते हैं, का सहारा लिया जाए तो हम इसे पूर्व जनम के कर्मो का फल कह कर बात टाल
सकते हैं मगर असलियत तो...?
मेरा मन इस्वर की
नाइंसाफी से व्यथित हो रहा था और मुझे ये पंक्ति याद आ रही थी –“आश्चर्य का
विषय ये नहीं है कि हम बीमार क्यों पड़े? बल्कि ये बात आश्चर्यचकित कर देने वाली है
कि ऐसी दुनिया में हम निरोग कैसे हैं!!!”
सच में असंख्य
संभावनाएं हैं कि जन्म लेने की प्रक्रिया में ही हमें कोई न कोई रोग अपना दोस्त
बना ले. चाहे क्रोमोजोम में हो जाने वाले एकदम से अनिश्चित म्युटेशन का गिफ्ट हो या फिर कोख में पड़े पड़े किसी जीवाणु से
रिश्तेदारी की सौगात. ज़िन्दगी की पहली सांस लेने की दहलीज़ पे ही लेट हो जाने का
सौभाग्य या छठी-मुह्जुठी के अवसर तक स्वादिष्ट व्यंजनों तक पहुँचने की हड़बड़ी का
फल. यानि जिंदगी हर कदम पे सांप-सीढ़ी वाले खेल के जैसी
है जिसमे किसी भी चाल पे आप ग्रस्त हो सकते हैं. भले ही लाख सावधानी से भरा कदम आप
बढ़ाएं, आपका कोई भी कदम आपको बीमार कर सकता है एकदम ही रैंडम तरीके से.
सवालों की फेहरिश्त
लम्बी होती जा रही थी और जवाब खोजने की व्याकुलता भी. क्या बिमारियों से मानवता की
यारी अनवरत चलते रहने वाली है? क्या जब से जीवन है इस दुनिया में तब से ही
बीमारियों का भी अस्तित्व है? क्या ‘सम्पूर्ण निरोग शारीर’ भी एक misnomer है
‘परफेक्ट पीस ऑफ़ वर्ल्ड’ की तरह? अगर सभ्यता के evolution के साथ रोग-व्याधियों का भी उत्क्रमित विकास जारी
रहता है तो फिर भविष्य कैसा होगा हमारा ? और अगर मृत्यु एक चरम सत्य है और
बीमारियाँ उस सत्य तक पहुंचाने वाली एक सीढ़ी – तो फिर हम डॉक्टर्स क्यों बाधा
उत्पन्न कर रहे हैं ईश्वर के पवित्र कार्य में? मेरे पुराने अधकचरे अध्यात्मिक
ज्ञान के कोने से एक तथ्य ने अपना हाथ खड़ा किया- “diseases are the natural way
of balancing population and resources” ! मगर मन के दुसरे कोने में
पड़े नास्तिक तथ्यों ने तुरंत ego का स्थान लेते हुए जवाब दिया- “what
if there is no nature, no गॉड ? “ फिर सुपरईगो ने
दोनों पक्षों में संधि स्थापित करने की अपनी आदत का सहारा लेते हुए तात्कालिक
सुझाव दिया-“ विनाश ही कारण बनता है नए निर्माण का. अगर भूकंप न होता तो जापान और
गुजरात इतनी तरक्की नहीं करते! अगर हम थकें नहीं तो खायेंगे ही नहीं, सोयेंगे ही
नहीं. बस उसी तरह अगर हम बीमार पड़ने के डर
से मुक्त हो जाएँ तो हम कभी ख्याल ही नहीं रखेंगे अपने शरीर का. और तब हम
सभी स्वास्थ्य नियमो को ताक पे रख कर अपनी
प्रकृति की घोर अवहेलना करते हुए एक अव्यवस्था को जन्म देंगे जिसमे सब कुछ
अव्यवस्थित हो जायेगा. एकदम से रोगी-क्षीण-हीन.”
व्याकुलता के उच्चतम स्टार तक पहुँचते हुए मैं xaviers कॉलेज के पास पहुँच गया था. ओह!
इस जगह से कितनी यादें जुडी है मेरी? कितनी ही दफा एकतरफा प्यार हुआ था मुझे यहाँ
. उन्ही यादों को सहलाने का कोई भी मौका मैं नहीं गंवाता था. क्यों कि ऐसे क्षणों
में आप अपने तात्कालिक माहौल से आज़ाद हो कर दार्शनिकता के उच्चतर स्तर तक चले जाते
हैं. It’s like freely floating in your mind-palace where all the facts and memories gently move around you without
disturbing your nascent thought process. और तभी एक शब्द ने मुझे
छुआ – एन्ट्रापी!
Thermodynamics का
ये शब्द मेरी कुछ सवालों का जवाब था. एन्ट्रापी यानि randomness यानि
अस्त-व्यस्तता या अव्यवस्था. उर्जा-सिद्धांत के यूनिवर्सल नियम के अनुसार – सृष्टि
की टोटल एनर्जी constatnt है , यानि उर्जा बस एक रूप से दुसरे रूप में बदलती रहती
है. मगर एन्ट्रापी हमेशा बढती जाती है. बिग-बैंग यानि सृष्टि के आरंभ वाले बड़े
धमाके के समय यूनिवर्स की एन्ट्रापी शून्य थी. मगर हमारी हर साँस जो सृष्टि में
जरा सी बदलाव लाती है और एन्ट्रापी बढ़ जाती है. और यह अव्यवस्था यानि उठा-पटक भी
हमारे शरीर के स्वास्थ्य की तरह है. हर साँस हमारे जिस्म के किसी न किसी सेल की
एन्ट्रापी बढ़ा रहा होता है. हम कितनी भी डिसिप्लिन फॉलो करें किसी न किसी डीएनए
का म्यूटेशन होना ही है, कहीं न कहीं telomere को बूढा होना
ही है, किसी न किसी जीन रेगुलेशन का नियंत्रण गड़बड़ होना ही है-भले ही अदृश्य रूप
में. तो यह बढती हुई अव्यवस्था हमें कहा ले जा रही है? इसका एक और मतलब ये बनता है
कि हम लाख कोशिश कर के भी एन्ट्रापी को घटा नहीं सकते और इसी तरह पूरी दुनिया को
डिजीज-फ्री करना भी एक व्यर्थ प्रयास है – निश्चित असम्भवता के सागर में से सुखी
हुई रेत निकालने के जैसा. तो क्या इन सब
का समाधान फिर से एक बिग-बैंग ही है?
यह आंशिक जवाब फिर
से कई नए सवालों को जन्म देने की प्रक्रिया में लगने ही वाला था कि मैंने लौटने का
फैसला लिया. वापस रिम्स के वार्ड में, जहाँ सच में बिमारियों से रूबरू होता हूँ हर
पल. इस बार नए नज़रिए से देखने की कोशिश की हर एक पहलु को. मगर इंटर्न की तरह किसी
भी डायग्नोसिस पे जम्प करने वाली शुरूआती आदत से बचने की कोशिश करते हुए – इस बार
मैं बस observe करने वाला था, आंकड़े तलाश रहा था और साथ ही कोई भी रैपिड कन्क्लुसन नहीं चाह रहा था. HOD सर की बात दिमाग में घूम रही थी-“widen
your gaze…..Gather data….then come to a narrow differential… ”
मैं हर मर्ज़ में मरीज़ की भागीदारी ढूंढ रहा था.
आत्महत्या का असफल प्रयास करने वाली सुन्दर सी लड़की, सरकारी मेडिकल कॉलेज की बदहाली पे स्पीच दे
रहे फ़ूड poisoning वाले अंकल, कोल्डड्रिंक से अपनी
अस्थमा बढाने वाली लड़की , एंडेमिक जोन में आने पे मलेरिया से पीड़ित आर्मी का जवान,
blood-relations में शादी के कारण सिकल सेल से ग्रस्त संतान
, नाजायज एबॉर्शन के बाद सेप्टिसीमिया –DIC वाली औरत , अनियंत्रित ब्लडप्रेशर के
कारन लकवा खाया मंदिर का पुजारी, हेड
इंजरी वाले ड्रग्स और सिगरेट के नए नए शौकीन teenagers के bikers-गैंग
और इतने ही कई सारे लोग- जिनकी बिमारियों में कहीं न कहीं उनकी खुद की गलती
शामिल थी. या फिर इन सारी बिमारियों को एक
व्यवस्थित सामाजिक सिस्टम के सहारे रोका जा सकता था. हैरान करने वाली बात ये थी कि अस्पताल का लगभग
70 % हिस्सा ऐसी ही बिमारियों से भरा था.
तो क्या जवाब मिल
गया है मुझे? अपने इंजिनियर दोस्त को रिप्लाई कर दूँ अब? उधेड़बुन में बाइक का
सहारा लिए डैम के किनारे जा बैठा. धुर्वा डैम का साफ़ सुथरा , पत्थर लगाया हुआ किनारा
, जहाँ सफ़ेद सफ़ेद डिस्पोजेबल प्लेट्स और गिलास की खेती बस शुरू ही हुई थी –यानि
हमारे व्यवस्थित सभ्य इंसानों को वो जगह भी अब अच्छी लगने लगी थी. समंदर पार से
हज़ारो मील की दुरी तय कर के आये साइबेरियन पक्षियों का एक दल जल क्रीडा में व्यस्त
था. कहते हैं कि बीमार पड़ गए पक्षी को वहीँ पे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, मुसाफिर
दल में शामिल नहीं किया जाता. और अगर कोई
रास्ते में कमजोर हो जाये तो उसकी नियति भी मौत ही होती है. क्या? उनमे कोई डॉक्टर
नहीं होता? क्या चिकत्सा द्वारा जीवन लम्बा करने की कोई व्यवस्था उनमे नहीं है ?
हाथियों के दल के बारे में भी ऐसी ही बात सुनी थी मैंने! तो क्या वे प्रकृति के
नियम को निभा रहे है और हम तोड़ रहे हैं? अगर हॉस्पिटल से मिले मेरे जवाब वाले
आंकड़े को उनपे भी आजमाया जाये तो क्या
पक्षियों में भी बीमारियों का 70 % हिस्सा वैसे रोगों का होता होगा जिनके पीछे
उनकी खुद की गलतियाँ शामिल है, और इसलिए गलती की सजा के रूप में उन्हें मिलती है
मौत! पानी की लहर आते जाते मेरे पैरों को छू रही थी और मेरी उलझनों के लहर के साथ
फ्रीक्वेंसी मिलाकर रेजोनेंस उत्पन्न करना
चाह रही थी. दूर तक फैले समतल जल भण्डार में पैदा होते और बिखर जाते उर्मियों में
मेरी नज़र खोने लगी थी. मैं खुद के अन्दर डूबता सा महसूस कर रहा था.
भीगे जज्बातों और
अनसुलझे सवालों के साथ मैं उस ऊँची जगह पे पहुँच गया था जहाँ से सारा शहर दिखाई
देता है. पहाड़ी मंदिर के छज्जे पे खड़ा होकर पुरे शहर को निहारना मुझे बहुत अच्छा
लग रहा था. दूर कहीं एक जाम में फंसी एम्बुलेंस की नीली बत्ती झिलमिल कर रही थी, थके
से रिक्शावाले खजूर के नीचे लम्बी कतार
बनाये हँड़िया पी रहे थे , बगल के
कब्रिस्तान में किसी को दफनाया जा रहा था, एक अपार्टमेंट की छत पे छुपकर दो बच्चे
सिगरेट पी रहे थे, और मंदिर की सीढियों के किनारे कई सारे विकलांग भीख मांग रहे थे.
पीछे मंदिर में एक औरत अपने कैंसर से जूझ रहे बच्चे के लिए दुआ मांग रही थी, और
फिटनेस संग पुन्य लाभ के लिए सुबह शाम 200 सीढियाँ चढ़कर ऊपर पूजा करने आने वाले
सेठ-मारवाड़ियों का दल नीचे उतर रहा था. मैं जैसे इनसब को एकदम निष्पक्ष भाव से देख
पा रहा था- लेशमात्र भी अटैचमेंट से रहित. जैसे मैं इनमे से एक हूँ ही नहीं. एकदम
अलग ,माया-मोह-समाज-नियम से ऊपर उठे हुए दार्शनिक की तरह. और फिर सवालों के जवाब
सूझ रहे थे मुझे दूर तक फैले शहर को ढंकते बादलों के बीच में-जिसमे कहीं कहीं
मुंडेरो से उड़ते पतंग और धार्मिक झंडे दिख रहे थे. मैं अपने इंजिनियर दोस्त को कह
रहा था-
“ दोस्त हमारी
जिंदगी दो पहियों पे चलती है, एक पहिया मजे लेने के लिए है तो दूसरा डिसिप्लिन में
रखने के लिए. अगर दोनों में संतुलन बना के रखा जाए तो हम अपनी 70 % बीमारियों को दूर
भगा सकते हैं. मगर बाकी के 30 % रोग? हम्म! इसके जवाब में शामिल है एन्ट्रापी और अनिश्चितता.
और जहाँ कहीं भी randomness यानि
अनिश्चितता है वहीँ पे किस्मत और ईश्वर जैसे शब्द एक्सिस्ट करते हैं. और फिर जिंदगी इसके आगे सांप –सीढ़ी के खेल के
जैसी हो जाती है. हम कब किस बिमारी से ग्रस्त हो जाएँ कोई नहीं जानता. और ऐसा कुछ
भी नहीं किया जा सकता जिससे ये दुनिया रोग-मुक्त हो जाये. “
दोस्त को समझाने के क्रम
में ही घडी पे नज़र गयी. शाम के 5 बज रहे थे. मेरे सीनियर वार्ड में अकेले मेहनत कर
रहे होंगे. और मेरे लौटते ही कह पड़ेंगे-“ ऐसे मौसम में कविता
लिखने का शौक पूरा हो गया हो तो कुछ काम कर लिया जाए? दो ब्लड सुगर और तीन ABGकर
लो बस! फिर मिलते हैं कॉफ़ी हाउस पे. बहुत काम है,और पढाई भी तो करनी है”. अधूरे सवालों से नाता तोड़ मैं लौट रहा था उन बीमारियों को समझने और दूर
करने की कोशिश में जिन्हें मेरी जरुरत थी.
Ⓒ Govind Madhaw
I apologize for commenting in English, but I felt compelled to let you know right away that I really enjoyed this blogpost, in three distinct capacities! As a physicist, as one who loves Hindi, and as someone who grew up in Ranchi.
ReplyDeleteRegards!
thank you
Deleteits really a nice feeling when my words reach intellectuals like you.
i am satisfied now- at-least one person touched the correct cord of my article.
really really thankful to you.
Dil ko choo lia..bahut sahi Dr. Govind!
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र!
DeleteI loved the way u presented the concept of entropy.. Awesome flow of writing..Ur viewing of world without attachment ..And also urs hod quotation "widen Ur gaze, gather data,then come to narrow differential !"
ReplyDeletethanks alot Neha! Just an attempt to quench the thirsty mind
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteVery nice👌
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