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Wednesday, April 11, 2018

📖 My first publication


ठीक से याद नहीं पहली बार खुद के ख्यालों को कब कागज़ पर उतार पाया था? शायद 13-14 साल की उम्र में. जब कहीं से पिछले साल की एक पुरानी पड़ गयी डायरी हाथ लगी थी. फिर चम्पक और नंदन के लिए अपनी रचनायें भेजता और हमेशा ही रिजेक्ट होता रहा. पहली बार किसी पत्रिका में अपना नाम मैंने संत जेविअर्स कॉलेज रांची के कॉलेज मैगज़ीन में देखा था.
और फिर कुछ साल रिम्स मेडिकल कॉलेज की वार्षिक पत्रिका 'स्पृहा' में सम्पादकीय मण्डली का हिस्सा बन कर रहा. ये मेरे लिए सबसे खुबसूरत साल थे. हर साल जब नयी पत्रिका के विमोचन का दिन होता था, मुझे लगता था जैसे मैंने मातृत्व का सुख प्राप्त कर लिया है. घंटो बीत जाते नयी पत्रिका को हाथ में लिए. हालाँकि पत्रिका के छपने से पहले ही मैं ना जाने कितनी दफा उसमें गोते खा चूका होता था मगर फिर भी विमोचन के कुछ दिन तक मैं हर पन्ने से कई दफा गुजरता, कभी किसी आर्टिकल के लिए चुने गए चित्र पर मुग्ध होता तो कभी किसी पेज की सजावट पर. कभी फीलर्स के जुगाड़ से मन हरसता तो कभी कवर और इंडेक्स में की गयी कलाकारी और मेहनत पर. कुछ लेखकों से कितनी मन्नतें करनी पड़ती थी आर्टिकल लिखने के लिए. कहीं कहीं कोई गलती भी दिख जाती थी कभी तो लगता था कि अभी सब के हाथ से वापस ले लूँ सारी प्रतियाँ और सुधार कर फिर से बाँटू. विमोचन के दिन से मेरे कान खड़े हो जाते थे. दोस्तों से जबर्दस्ती ही मैगज़ीन का जिक्र करता इस उम्मीद से कि वे मेरे प्रयासों पे गौर करेंगे और कुछ बहुत प्रसिद्धि का सुख प्राप्त हो जायेगा. कुछेक दोस्त प्रशंसा भी करते थे, कुछेक को बस चुटकुलों और गप्पों वाले पन्ने का इंतज़ार रहता था, कुछ को बस अपनी तस्वीर से मतलब रहता था और कुछ को अपना नाम देखने की जिद रहती थी. अधिकतर लेखकों को अपना आर्टिकल पहले पन्ने पर चाहिए होता था. और कुछ की फरमाइश होती थी कि उनकी सारी कवितायें पत्रिका में स्थान पाए. कुछ से कहासुनी भी होती थी. कुछेक रचनाओं में वर्तनी सम्बन्धी सुधार के लिए पसीना भी बहाना पड़ता, हालाँकि वर्तनी की सबसे ज्यादा परेशानी मेरी खुद की रचनाओं में होती थी. और कभी कभी तो रचनात्मकता की आड़ में कुछेक रचनाओं से छेड़छाड़ भी कर देता था चुपके से, जिसके लिए कभी सराहना तो कभी उलाहने भी मिलते.
आज फिर से वो सारी यादें ताज़ा हो गयी. अहा ज़िन्दगी के अप्रैल अंक में मेरी एक कहानी को स्थान मिला. ये पहली बार है जब मेरी कोई रचना प्रकाशित हो रही है. और मेरे नानाजी श्री Dhanendra Prawahi जी ने टिपण्णी की- 'वाह नाती! पहली ही बार में इतनी लम्बी छलांग! मुझे तो कई साल लग गए थे राष्ट्रिय स्तर की पत्रिका में जगह पाने में .'
Sushobhit Saktawat से मेरी पहचान फेसबुक के जरिये ही हुई. और पहली ही पोस्ट से उन्होंने मुझे दीवाना बना लिया. बहुत कुछ सीखा है उनसे. एक दिन ऐसे ही बात बात में मैंने पूछ लिया कि क्या मैं भी अपनी रचना किसी पत्रिका में भेज सकता हूँ? तब तक आप दोस्तों के प्यार से मैं कुछेक #लप्रेक और '#100kissesOFdeath' सीरीज की चार पांच कहानियां लिख चूका था. विवेक कान्त मिश्र ने मेरा हौसला बढाया और फिर उस दिन मैंने सुशोभित को अपनी रचना भेजते हुए एक आग्रह किया कि अगर यह आपके पत्रिका के स्तर को सूट करे तभी, अन्यथा ऑनेस्ट रिजेक्शन से भी मेरा खुद का मूल्यांकन ही होगा.
और फिर ये सुखद क्षण!
इतनी लम्बी पोस्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, मगर क्या करता , मन के आवेग को रोकना कठिन था. और फिर आदत भी तो है अपनी हर छोटी-बड़ी ख़ुशी को आपके साथ शेयर करने की.
बहुत बहुत आभार आप सब का.
प्रेम-आशीर्वाद-विश्वास बनाये रखें.


Wednesday, January 24, 2018

ल.प्रे.क.12: Hormone

“पति से प्रेम? कैसा प्रेम? कहाँ से लाऊं मैं प्रेम? अभी तो शादी के चार ही महीने हुए थे. ठीक से इस आदमी को समझ भी नहीं पाई थी कि सड़क दुर्घटना ने उसके नाभि से नीचे के शरीर को बेजान कर दिया था हमेशा के लिए. रीढ़ की हड्डी टूटी और छूट गया शरीर का दिमाग से रिश्ता. अब पांव ना तो हिलते हैं ना ही मच्छर के डंक ही महसूस करते हैं, मगर मुंह और पेट तो अपना काम किये जाते हैं.” नफरत-गुस्सा-घृणा जैसे भावों को छुपाने और मल-मूत्र के दुर्गन्ध से बचने के लिए एक हाथ से चेहरे पर रुमाल पकडे, दुसरे हाथ से बिस्तर से चादर खींचती वह युवती सोच रही थी.

“वह पति है भी तेरा? ना आर्थिक ना ही शारीरिक या मानसिक सुख या सुरक्षा दे पायेगा तुम्हे कभी! तो फिर क्यों रखना उसके नाम से सूत्र-सिंदूर और शील?” अधेड़ ने सहानुभूति के बहाने युवती के मन को अनाथ घोषित करते हुए, तन पर अधिकार मांगने की जल्दबाजी दिखा दी थी. मगर एक दूसरे  नवयुवक पडोसी ने धैर्य का परिचय दिया और युवती के ह्रदय में स्नेह के बीज डालने में सफल हुआ. अधेड़ अब अपनी असफलता छुपाने के लिए युवती को चरित्रहीन साबित करने में लग गया था.

मर्दानगी से हाथ धो बैठा पति अब और अधिक गुस्सैल, शक्की और चिड़चिड़ा हो गया था. सेवा में जरा सी चूक पर चिल्लाता, युवती के माँ-बाप से शिकायत करता, घर आये मेहमानों के बीच उसका मजाक उडाता और सती-सावित्री-अनुसूया के चित्र दीवारों पर लगवाता. युवती को अब इस अभागे पति पर दया आने लगी थी. मगर प्रेम?

“क्या वह आदमी जो तुम्हारा पति है, ठीक वैसे ही तुम्हारा ख्याल रखता, जैसा कि वो तुमसे चाहता है अगर उसकी जगह तुम ऐसे आधी-लाश बनी होती? उसकी नरक जैसी जिंदगी के लिए तुम तो जिम्मेदार भी नहीं हो.”- नवयुवक ने युवती के तन-मन की प्यास को भांपने की कोशिश को जारी रखा.

इस दुनिया में सभी स्वार्थी हैं, और उसने इस सच को जान लिया है-ऐसा सोचने से उसने खुद के अपराधबोध को कम होता पाया. आईने में अपनी कम उम्र को निहारने के बाद युवती ने भी अपना पाशा फेंका- “यह जानते हुए भी कि मैं विधवा जैसी हूँ, सिर्फ मेरे प्रेम की खातिर तुम मुझसे विवाह करने को तैयार हो?”

“हाँ! मगर तुम्हे मेरे साथ चलना होगा. और तुम विधवा नहीं हो, तुमने शायद पहली बार किसी से प्रेम किया है, हम आज से किसी दुसरे शहर में अपने नए जीवन की मधुर शुरुआत करेंगे. तुम्हारे पहले पति को तो वैसे भी पत्नी की नहीं बल्कि एक सेविका की जरुरत है जिसका इंतजाम मैंने कर रखा है, ताकि तुम्हारे दिल पर बोझ न पड़े.” गाडी में सामान लादते हुए नवयुवक ने युवती के आँखों में अपनी परिपक्वता के लिए सम्मान देखना चाहा.

अच्छा मैं अभी आई- कहकर युवती घर के अन्दर गयी.

युवती की योजना से अनजान पति उसे देखते ही फुट-फुट कर रोने लगा- “कहाँ चली गयी थी मुझे छोड़कर तुम इतनी देर से? कब से गीले बिस्तर पर पड़ा हुआ मैं इंतज़ार कर रहा था!” लाचारी और निर्भरता के कारण, कुंठा और समर्पण ने उसके शर्म और गुस्से का स्थान ले लिया था. अब उसकी आँखें उस बछड़े की तरह लबालब थी जिसकी मां अभी अभी चर कर जंगल से वापस आई थी.

युवती ने तब अपने पति में एक मासूम बच्चे को देखा. उसने खुद के हृदय में ममता के समंदर को उमड़ते हुए महसूस किया. अथाह प्रेम से निकले आंसू उसके अपराधबोध को बहा ले गए थे. खून में बढ़ते ऑक्सीटोसिन ने एस्ट्रोजन को कम करना शुरू कर दिया था.

दरवाज़े पर खड़े नवयुवक ने युवती के आँखों में अपने लिए तिरस्कार और घृणा के भाव देखे.  
 

Ⓒ Govind Madhaw

Thursday, December 28, 2017

100 kisses of death: episode 05- 'पास-फेल'

“और कितने दिन जिन्दा रहेंगे आप? सारे शौक तो पूरे कर लिए. पोते का मुंह, खुद के बनाये मकान पर नेमप्लेट, पत्नी का सुहागन रहते स्वर्ग सिधारना सब कुछ तो देख लिया आपने. यहाँ अस्पताल के बिस्तर पर बेहोश पड़े-पड़े जाने कौन सी जिंदगी जी रहे हैं आप.”- चार्ट में डेढ़ लीटर का नोट डाल पेशाब की थैली बदलता हुआ वो बुद्बुदा रहा था. 

इतने दिनों में अस्पताल का यह कमरा भी तो घर जैसा ही लगने लगा था उसे. उसने पुरानी नौकरी छोड़ अस्पताल के रास्ते में पड़ने वाले नए ऑफिस को ज्वाइन कर लिया था. रोज़ शाम जब घर लौट दस्तक देता तो दरवाज़ा खोलती पत्नी की आँखे एक ही सवाल पूछती. मगर जवाब में वह उसके खाली हो गए कान की तरफ झांक नज़रें झुका लेता.

“सच कहूँ तो यह मेरी मर्ज़ी के खिलाफ था, मगर पडोसी और रिश्तेदार कहते थे तो आज घर में प्रार्थना का आयोजन हुआ, आपके जल्दी ठीक हो जाने के लिए. उसी दरम्यान हॉस्पिटल से फ़ोन आया. सब खुसर-फुसर करने लगे. कोई कह रहा था कि चलो अच्छा हुआ, मुक्ति मिल गयी! कोई मुझसे सहानुभूति तो कोई मेरे पुत्रधर्म की प्रशंसा करने लगा था. मगर नर्स ने बताया कि आपने आँखे खोली थी और मेरा नाम पुकारा था. लोगों की दोगली बातों से होने वाली आपकी ऐसी बेईज्ज़ती मुझसे बर्दाश्त नहीं होती अब.”- बूढ़े शरीर को करवट लगा बेडसोर को पाउडर से सहलाता हुआ वह बोले जा रहा था. बंद आँखों के किनारों में जमी मोमनुमा अश्रुकणों को हटाने के बाद वह रुग्ण पैरों की मालिश करने लगा.

“आपकी ही तरह जीनियस आपके पोते ने स्कूल में टॉप किया है! आज रिजल्ट लेने जाना है उसके स्कूल. हो सकता है देर भी हो जाए.”- चेहरे पर बैठने की कोशिश में लगी मक्खी को भगा उसने खिड़की के परदे को ठीक किया और बेहोश शरीर को उठा बेडशीट-कम्बल सँवारने में नर्स का हाँथ बंटाता हुआ कहने लगा था.

जाने कितने महीनो के बाद उसने पत्नी के चेहरे पर ख़ुशी के भाव देखे थे. शहर से दूर तालाब किनारे के रेस्तरां में बैठ तीनों मुस्कुराते हुए आनंदित थे. सेल्फी के लिए पोज देते हुए उसने पत्नी के कंधे पे हाथ रखा, दोनों की निगाहें मिली, पत्नी ने कंधे पे बढ़ते दबाव में छुपे प्रेम को महसूस किया. बेटे ने कैमरा पकड़ दूर से इनकी फोटो खींचने का बहाना बनाया. मुस्कराहट की लकीर शरारत भरी छेड़खानी का रंग ओढने लगी. शाम की तिरछी किरणों के संग तालाब की सतह पर असंख्य सुन्दर भावनाओं की लहर तैरती हुई दिख जा रही थी. बेफिक्री के वक़्त हमेशा की तरह तेज़ी से गुजरने लगे. तभी मोबाइल लेकर बेटा उसके पास आया, हॉस्पिटल का कॉल था.

“आज 11 बजे आपके पिताजी पुरे होश में आ गए थे. उसने नर्स से बातचीत की, अपनी दिवंगत पत्नी की तस्वीर को चूमने में मदद मांगी और यह कह कर लेटे कि अगर उनकी मौत होती है, तो यह खबर परिवारवालों को बिलकुल नहीं दी जाए, जब फुर्सत मिलेगी तब वे लोग खुद आकर बॉडी ले जायेंगे. लेटने के 20 मिनट बाद उनके शरीर में कम्पन हुआ, मॉनिटर ने बताया कि उनकी धड़कन अचानक से बहुत तेज़ हुई और खुद में उलझ कर रुक गयी. डॉक्टर ने वेंट्रिकुलर टैकीकार्डिया से कार्डियक अरेस्ट होने की पुष्टि की.”

वह फिर से बुदबुदाया- “पिताजी की यह आखिरी ख्वाईश भी पूरी नहीं हो पाई बाकि ख्वाइशों की तरह.”  

Ⓒ Govind Madhaw

Saturday, November 18, 2017

100 kisses of death: episode 04- 'वक़्त'

वक़्त की कीमत भी तभी समझ आती है जब वक़्त ना बचा हो। 

जैसे exam के आखिरी 5 मिनट में याद आते हैं शुरुआत के ताक-झाँक, सोच, डर और उम्मीद में बीता दिए गए आधे घंटे। 

तब भी जब वो शहर छोड़ कर जा रहा था, आखिरी 10 दिन कम लगने लगे थे। उसकी परीक्षा की तैयारी करवाने, उसके घर की बागवानी में लगाए पौधे पे खिलने वाले फूल को उसके जुड़े पे सजते हुए देखने या इस बार सर्दियों में झरने के किनारे साथ बैठ कविता सुनाने जैसी अधूरी ख्वाहिशें वक़्त को खींच और लम्बा करना चाह रही थी किसी गुब्बारे की तरह।

हम हर आखिरी सेकंड में कितना कुछ जी लेना चाहते हैं। जैसे mobile की बैट्री खत्म होने वाली होती है तब, या जब see off वाली ट्रेन स्टेशन से छुट रही होती है तो, या फिर प्लेन पे फ्लाइट मोड में जाने से ठीक पहले। 

Midazolam का असर ठीक इसी टाईम पे कम होता था रोज़, और तब वह बेहोशी से बाहर होता था कुछ देर के लिए। इसी दरमियान रिश्तेदारों की सहानुभूति और हाल चाल के साथ साथ अपने गले में डाल दिए गए उस endotracheal ट्यूब की irritation को भी महसूस करता था वह जिससे वेंटिलेटर उसके फेफड़ों में सांसे भर रही थी। हॉस्पिटल मे महीना भर बिताते हुए सीख लिया था उसने बेहोशी की दवा 'Midazolam' के dose को ख़ुद से adjust करना। जब दर्द बढ़ता तो drip रेट बढ़ा कर गहरी नींद में चला जाता, जहां हर तरह के सपने उसका इंतज़ार करते। कभी कभी तो वास्तविकता और सपनों की दुनिया के बीच फर्क भी नहीं कर पाता था वह। 

सपने समय की सीमा से आज़ाद होते हैं। अभी उसके सपने में college खत्म होने के ठीक 5 दिन पहले का वक़्त चल रहा था। 

सिर्फ 5 दिन? यानी उसके बाद ये क्लास, ये स्टूडेंट यूनियन, कल्चरल सोसाइटी, proxy सब छूटने वाला है। उसने दोस्तों के स्लैम बुक्स में जी खोल कर लिखा था ख़ुद के बारे में ये सोचकर कि कभी तो पढ़ कर उसे याद किया जाएगा। मगर जिन्दगी की दौड़ में लम्हें.... 
अरे! उसके बुवा की शादी हो रही है। तब 5 साल का था वह। कॉलेज से निकल कर वो सीधे अपने बचपन में चला आया था। तब गाँव में विदाई के बाद बेटियाँ ससुराल से जल्दी वापस नहीं आ पाती थी। चिट्ठियों की आवाजाही में भी महीने बीत जाते थे। विदाई के कुछ सप्ताह बाकि थे और बुवा 95 साल की अपनी दादी के साथ बैठ उस आम के पौधे को निहार रही थी जिस पर दोनों झूला झूलने के सपने देखा करते थे। उन्हे ध्यान ही नहीं रहा था कि इतना वक़्त उन दोनों में से किसी के पास नहीं था।

नर्स ने उसे जगाया। नाक में लगी ryles ट्यूब से उसे सूप पिलाया जा रहा था।माँ ने पूछा कि स्वाद कैसा है? नमक ठीक है ना? माँ को क्या पता था कि ryles ट्यूब नाक से होते हुए सीधे पेट तक जाती है। सूप  जीभ को छू भी कहाँ पायी। मगर उसने स्वादिष्ट होने का इशारा किया पलकों से। 

आज उसने डॉक्टर की बात सुन ली थी। मल्टी ऑर्गन failure होने लगा था। यानी वक़्त शायद सच में बहुत कम था उसके पास। क्या जिन्दगी सच में ट्रेन की यात्रा ही है जिसमे सब अपने अपने पड़ाव पर उतर जाते हैं? पंडित जी ने तो दो घंटे पहले गीता पाठ में ऐसा ही कुछ कहा था कि मौत जैसी कोई चीज ही नहीं होती। हम बस कपड़े की तरह शरीर बदलते हुए यात्रा करते हैं।अच्छा! यानी उसे अभी लंबी दूरी तय करनी है! यह स्टेशन अब छूटने वाला है? तो फिर क्यों ना मुस्कुराते हुए सहयात्रियों से विदा लिया जाए।

उसने सोच लिया था। आज वो चेहरे पर उदासी को एकदम से नहीं आने देगा। तब तो बिल्कुल भी नहीं जब रोज़ की तरह आज भी शाम 5 बजे वो फूलों का गुलदस्ता लिए आएगी उससे मिलने। तब भी नहीं जब वो ryles ट्यूब से संकट मोचन का प्रसाद खिलाएगी उसके सर को अपनी गोद में रखकर। और जब उसके गालों को चूमने की उसकी चाहत में endotracheal ट्यूब आड़े आ जाएगा तो वह अपने आंसूओं को रोक लेगा। जब उससे आंखें मिलेगी तो नज़रों से जता देगा कि अगले स्टेशन पर उसे दूसरी गाड़ी में सवार होना है, और इसीलिए अपना सामान अलग कर के पैक कर ले। और उस clutcher को भी अपने बालों से हटा ले जो उसने गिफ्ट किया था इस वैलंटाइंस पर। आखिर नए clutcher और रिंग के लिए भी तो जगह बनानी पड़ेगी! अच्छा हुआ जो मंगलसूत्र नहीं पहना पाया था, बेवजह विधवा होना पड़ता उसे.... 

अब उसका डर खत्म हो गया था। कभी ना खत्म होने वाली यात्रा पर जाने से ठीक पहले मुस्कुरा कर विदा लेने की प्रैक्टिस भी कर ली उसने।  देखो वो आ रही है! वाह! कितनी खूबसूरत, कितनी मासूम, कितना प्रेम.... उसने मुस्कुराने की कोशिश की।
मगर तब तक उसने अपने शरीर को चार कंधों के झूले पर झूलते हुए पाया। 

Ⓒ Govind Madhaw

Sunday, October 1, 2017

मेरी कहानी 'सल्फास' की समीक्षा

Thank you Akanksha for this review! 
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Sulfass - a kiss of death when life bestowed jubilation...
Another must read story, with a suitable title, from the popular writer Dr. Govind Madhaw.
'Sulfass' is an amazing amalgmation of emotions,passion,love,duty, sorrows and joys, life and death. It revolves around the life of a doctor, who after losing all hopes from personal life, finds solace in his profession. Other characters include an aesthetic face fighting at the oblivion of quietus, and a loving couple who are deceived by joys. While dancing to the tunes of fate the characters meet at a crossroad.
Tangled in the cobwebs of his married life the doctor gets infatuated by the girl who is a case of sulfass poisoning. A case of suicide that is described as a social faliure. The characters need of language is overpowered by the flood of emotions. The exquisite sentiments are bona fied by an untitled authority to bestow warmth. प्रेम अभिव्यक्ति का मोहताज़ नहीं होता मगर प्रेम अधिकार चाहता है. The dreams are an ideal representation of characters moving from doom to be an indomitable spirit.
Running in a parallel axis is another couple in hospital. A wife with a severe postpartum blood loss who struggles with life due to which an air of melancholy surrounds her husband. His songs are heart breaking and soul churning. The picturisation of this character reminds the reader that plantonic affection is not just a word of books. Equilty of situations faced by the doctor and husband is evident.
The writer has aptly focused on the social loopholes and poor execution of government policies. The metaphors and similies are self explanatory of the situations that characters are dealing with. Choice of words are reader's treat. This personifies the characters. The end presents the choreographed confusion of a real farce. The story creates irresistible temptations to drown in thoughts. It is impossible to pen down the upheaval of emotions that one faces while reading. Best experienced when read by self!!!



Saturday, September 3, 2016

100 kisses of death: episode 3- सेल्फोस

# आखिरी पैराग्राफ ने तो धड़कन को ही रोक लिया था- हिमांशु, hyderabaad
# बहुत दिनों के बाद हिंदी में किसी ने ऐसा कुछ लिखा है- प्रकाश,delhi

# हिंदी को अब ऐसे ही शब्दों वाली कहानियो की जरुरत है जिसे समझने के लिए आज के युवाओं को शब्दकोष की जरुरत नहीं पड़े, बात जो बोलचाल की हो, बात जो सीधे जेहन में उतर जाए, और रीडर के मन में कहानी चलती रहे आखिरी पंक्ति के बाद भी- प्रवाही, Ranchi

100 kisses of death: episode 3- सेल्फोस 

[A work of fiction,Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events is purely coincidental.]




बहुत खुबसूरत थी वो. गुलाबी गालों के बीच से उभरती मासूम सी मुस्कराहट और उसके नजरो में ना जाने कैसी खामोश गहराइयां थी जिनमे  तैरने की अनचाही कोशिशों के बावजूद वह डॉक्टर खुद को डूबने से रोक ना पाया था. अपने मरीजों से हो जानेवाले सामान्य लगाव को इसबार बह जाने दिया था उसने प्रेम के समंदर तक.

सेल्फोस या सल्फास “- मरने की गारंटी वरना दुगने पैसे वापस! जी हाँ इसी तरह के दावे के साथ इसे बाज़ार में बेचा जाता है. यूँ तो अनाजों की बोरियों में इसे रखा जाता है कीड़े-मकोडो से बचाने के लिए. मगर ख़ुदकुशी की अचूक दवाई के रूप में  इसने ज्यादा नाम कमाया है. डॉक्टर को उसके प्रोफेसर ने पढाया भी था- “अगर सल्फास खाने वाला जिन्दा बच गया तो इसका एक ही मतलब है कि वो ज़हर सल्फास नहीं था....”. 

सौतन का तलाक रूपी थप्पड़ और फिर से एक अधेड़ से शादी की तैयारी में जुटे चाचा-चाची. सच्चा प्यार तो जीते जी नसीब नहीं हुआ, तो मौत से ही इश्क लड़ाने के इरादे से इस लड़की ने सल्फास की चार गोलियों को निगल लिया था – एकदम हरे हरे साबुन की तरह दिखने वाली. मरीजों से खचाखच भरे सरकारी अस्पताल की फर्श पर लाकर फेंक दिए जाने के बाद  सब उसके आखिरी सांस का इंतज़ार कर रहे थे. खुद वह भी तो!

मगर गज़ब की हिम्मत थी उस डॉक्टर में. शनिवार रात 2बजे जब वह इस आखिरी मरीज़ के पास राउंड लेते हुए पहुंचा तब – नब्ज़ कमजोर, सांसे ढीली, धड़कन सुस्त और  हाथ-पैर एकदम से ठंढे. मगर उसके चेहरे पे अपने आशिक से मिलने जैसी ख़ुशी के भाव! एक पल के लिए डॉक्टर झिझका. मगर अभी घर जाकर भी क्या करता वो? वही रोज़ रोज़ के झगडे और बीबी के बेतरतीब सवाल-जवाब –फटकार-उलाहने, जिनसे वह अब तंग आ चूका था. बीबी से वैसी लड़ाई से तो कहीं बेहतर थी इस लड़की की मौत से आज रात भर की लड़ाई. वो लड़ाई जिसमे सबलोग हारना ही चाहते थे- लड़की के घरवाले, लड़की की जिंदगी और खुद लड़की भी. मगर दो लोग थे जो जीतने की ख्वाइश लिए थे- एक तो ये डॉक्टर और दूसरी खुद मौत!

अभी अभी ICU में एक बूढ़े ने अपने सांसो की गिनती पूरी कर ली थी. बेड जैसे ही खाली हुआ, डॉक्टर उस लड़की को अपने गोद में ही उठाकर ले भागा ICU की तरफ. ट्राली ढूंढने में जरा सा भी वक़्त बर्बाद किये बिना. आनन् फानन में ऑक्सीजन, डोपामिन , एड्रेनैलिन, एट्रोपिन और ना जाने क्या क्या. लगभग 5 मिनट के अन्दर लड़की के चारो तरफ 6 -7 सेलाइन के बोतल उलटे लटक रहे थे. बोतलों से निकलती रस्सीनुमा आई.वी सेट्स और vitals-मॉनिटर के वायर्स- सब इस तरह बेड के चारो तरफ सजे हुए थे जैसे सुहागरात की सेज पर लटकते फूलो के झालर.

खराब पड़े पंखे के नीचे खड़े डॉक्टर के माथे से पसीने की बूंदें और लगभग उसी रफ़्तार से टपक रही थी उलटे लटके बोतलों वाली फ्लूइड और दवाईयों की बूंदें. दोनो ही तरह की बूंदों ने इंधन की तरह अपना असर दिखाना शुरू किया. मॉनिटर पर धड़कन की ट्रेन रफ़्तार पकड़ने लगी थी. सांसो ने लम्बे और गहरे आलाप की जगह जिंदगी के नगमे को गुनगुनाना शुरू कर दिया था. डॉक्टर ने दोनों तरह के बूंदों की रफ़्तार को कम कर दिया था अब. रविवार की पहली किरण ने मौत के अँधेरे को पीछे धकेल दिया था. घरवाले अभी भी ICU के बरामदे में सो रहे थे.

घर जाने का जरा सा भी दिल नहीं कर रहा आज तो. होगा क्या? मुझे फिर से नीचा दिखाने की कोशिश, मेरे ससुराल के दौलत और शानो-शौकत में दहाड़ते घमंड भरे लफ्ज़ , मेरे मिडिल क्लास माँ-बाप का फिर से मज़ाक उड़ाया जाना और.....” इन 4- 5 सालों में इन सबका अभ्यस्त हो चूका डॉक्टर सोच रहा था.

पढ़ी-लिखी, अच्छे-ऊँचे खानदान की, खुबसूरत बीवी – डाक्टरी के 10 सालो की पढाई का इनाम. दोस्त भी जलने लगे थे उससे. दहेज़ में मिले फ्लैट में जल्द ही शिफ्ट हो गए थे वे सब. माँ-बाप तो बिना छत-आंगन-अपनापन के घर में घुटने लगे थे और गाँव-खेत की देखभाल का बहाना कर के लौट गए थे. महीना भर तो खरीदारी और पार्टियों में बीता मगर ढीली पड़ती जेब ने मैडम के सतही प्यार को भी ढीला कर दिया और फिर.....पहले तो डॉक्टर सब कुछ अनसुना कर देता था. उसने अनुमान लगाया कि अपने माँ-बाप से बिछड़ने के कारण बीवी का मन कड़वा हो जाता होगा; हलाकि वो भी तो दूर ही हो गया था अपने माँ-बाप से. कुछ दिन तक समझाने की कोशिश भी की. मगर जल्द ही उसे एहसास हो गया था कि वे दोनों एक दुसरे से एकदम अलग थे- एक बर्फ तो दूसरा आग. शायद यही था उसका भाग्य! अगले कुछ महीने उसके लिए ज्यादा ही मुश्किल भरे थे. ड्राइंग रूम में लगे उसके गाँव वाले लैंडस्केप की जगह मॉडर्न आर्ट की आड़ी-तिरछी न्यूड लकीरों ने ले ली. उसके पसंदीदा 80s के गीतों को पान दूकान वाले की पसंद कह कर लगभग बैन ही कर दिया गया. हिंदी अखबार और उपन्यासों को ‘अंग्रेजी नहीं समझ सकने वाले अनपढ़ो की पसंद’ कह कर हटा दिया गया. शराब नहीं पीने के कारण मैडम की पार्टियों में उसका मजाक बनाया जाता और फिर धीरे धीरे उसकी बीवी उसके बिना ही पार्टियों में जाने लगी. ये बात एक तरह से डॉक्टर के लिए अच्छी ही थी.

ओह! क्या इन नेगेटिव बातो में दिमाग ख़राब करना..”अपने बैग से टूथ ब्रश ढूंढता डॉक्टर अपने चैम्बर से लगे बाथरूम में घुस गया. सुबह के 7 बजे थे. फ्रेश होकर उसने अपने चैम्बर के बुकशेल्फ से एक मोटी सी किताब निकाली और पढने बैठ गया. किताब पढने से पहले उसने मेज़ पे आये कागजों को निपटाया. ये उस लड़की के खून जांच के कुछ रिपोर्ट्स थे. रोज़  1-2 घंटे पढने की उसकी आदत थी. मरीज़ की बिमारी को सही सही खोज निकालना किसी जासूसी केस को सुलझाने जैसा ही होता है. हर मरीज़ एक अलग पहेली- हर दिन एक नया चैलेंज- और डॉक्टर भी तो खुद को मेडिकल फील्ड का शर्लाक होल्म्स ही समझता था. केस के अन्दर तक घुसना, मरीज़ की हर एक तकलीफ की तह तक जाना, उसकी जिंदगी के सारे पहलुओं-आदतों-रिश्तो की तहकीकात करना, उसे बीमारी से जोड़ कर देखना और फिर किताब में पन्ने दर पन्ने भटक कर सही डायग्नोसिस करना. एक बात और थी- उसे लोगो की जिंदगी को नजदीक से समझने –जानने में मजा भी बहुत आता था. अपनी बर्बाद होती घरेलु जिंदगी से मन हटाने के लिए शायद. 

इतने सारे मरीज़ भर्ती हुए थे इस खंडहरनुमा सरकारी अस्पताल में. कहने को तो यह जिला का सबसे बड़ा अस्पताल था- सदर अस्पताल. जहाँ सारी सुविधायें जैसे चौबीसों घंटे बिजली, पानी, सुरक्षा गार्ड, पर्याप्त नर्सेज एवं थर्ड और फोर्थ ग्रेड कर्मचारी, मुफ्त में सारी दवाएं, आधुनिक ऑपरेशन थिएटर और न जाने क्या क्या सब कुछ उपलब्ध थे- मगर सिर्फ कागज पे! सच्चाई तो ये थी कि तीन-चार डॉक्टर्स और 8-10 नर्सों के सहारे ही सैकड़ो मरीजों का काम चल रहा था. कई बार तो अपने चैम्बर और वार्ड में झाड़ू-पर्दा-साफ़-सफाई भी डॉक्टर ने खुद से किया था. कई दवा-उपकरण वो खुद के पैसों से खरीदता. इसकी मेहनत से धीरे-धीरे अस्पताल की सेहत भी सुधर रही थी. नतीजे मिले जुले थे- मरीजों की भीड़ और बढती जा रही थी. अगल बगल के दुसरे जिले से भी लोग आने लगे थे. स्वास्थ्य विभाग के अन्य कर्मचारियों को अब ज्यादा काम करना पड़ रहा था. प्राइवेट हॉस्पिटल के मालिक इस डॉक्टर को वापस सुदूर PHC में भगाने के लिए जाल बिछाने लगे थे. और सदर में कम मगर अपने पति के नर्सिंग होम में ज्यादा समय बिताने वाली लेडिज डॉक्टर(gynaecologist), जो कि इस अस्पताल की इनचार्ज भी थी, इस डॉक्टर की शिकायत ऊपर के अधिकारियो तक पहुंचाने का कोई भी मौका छोडती नहीं थी. प्रसिद्धि अपने साथ साथ बदनामी और दुश्मनी भी तो लेकर आती है. सुदूर PHC यानि प्राइमरी हेल्थ सेंटर - जहाँ डॉक्टर का काम सिर्फ मुर्गी-बकरी-भैंस की गिनती करना, दस्त से ग्रस्त बच्चो के नाम और वजन इकठ्ठा करना और इन आंकड़ो को कागजो पे रंग कर ऊपर फेंक देना था. मतलब टोटल किरानी वाला काम- डाक्टरी जैसा तो एकदम नहीं. अरे भाई! बरगद पेड़ के नीचे आप चार ग्रामीण बच्चो को पढ़ा भले सकते हैं, खिचड़ी भी खिला सकते हैं. मगर बिना नर्स-दवा-उपकरण के तो सिर्फ मरीज़ की गंभीर स्थिति का अंदाज़ लगाया जा सकता है, इलाज़ तो ...??

उसी दिन यानि रविवार सुबह के 10 बजने वाले थे.
कैसी हो?” ICU में उस लड़की का BP चेक करते हुए डॉक्टर ने पूछा.
लड़की को कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. आई वी लाइन्स और वायर्स के जाल में लिपटी और छत को घूरती हुई लड़की के होठ हिले-
जिंदगी ने फिर से कैद कर लिया है
डॉक्टर को ऐसे उलझे जवाब की उम्मीद नहीं थी! बिना उतार-चढ़ाव के, बिना किसी भाव के, सीधे सपाट से लफ्ज़....लड़की के व्यक्तित्व का अंदाजा लगाने की डॉक्टर की कोशिश मुश्किल होती जा रही थी. अमूमन दो-चार पंक्तियों की बातचीत में ही वो मरीज़ की मानसिकता पढ़ लेता था, उसके अनकहे तकलीफों को भी समझ जाता था और बीमारी के साथ-साथ अन्य परेशानियों का भी उपाय ढूंढने की कोशिश जरुर करता था. मगर इस बार तो? रहस्य से बड़ा कोई आकर्षण नहीं होता. उलझी जुल्फे हो या लफ्ज़, रास्ते हों या नब्ज़- बुद्धिजीविओं को बहुत आकर्षित करते हैं.
डॉक्टर लड़की के चाची से बातें निकलवाने लगा था. जितना वो जानता गया उसकी बेचैनी बढती गयी और जुडती गयी लगाव की कड़ी.

रविवार 12 बजे दिन:
अब तक डॉक्टर ने लड़की के बारे में काफी कुछ जान लिया था. दोनों की जिंदगी के रास्ते कुछ एक जैसे मोड़ो से गुजरते थे. आज डॉक्टर की ऑफिसियल ड्यूटी नहीं थी.  घर से गायब रहने का बहाना वो सोच ही रहा था कि उसकी बीवी का फोन आया-“ आज मेरे फ्रेंड् के घर पार्टी है, कॉकटेल. मैं रात में लौट नहीं पाऊँगी...” डॉक्टर ने भगवान् का शुक्रिया अदा किया. बोझ थोड़ी देर के लिए टल गया था. घर से गायब रहने और गिल्टी फील करने का डर- जिससे बचने के लिए वो घर जाने की ड्यूटी निभाता था- उससे छुट्टी मिल गयी थी आज के लिए.  और सही मायने में छुट्टी का मतलब भी तो यही होता है- बिना इंटरेस्ट वाले काम की जगह अपने मन का काम करने की आजादी.

अब तक लड़की के दिखावटी परिजन/शुभचिंतक जा चुके थे. बूढी चाची उसके बेड के बगल में चटाई बिछा सो रही थी. कुछेक अभी भी आ-जा रहे थे; और फुर्सत में बैठे डॉक्टर को देख लगे हाथ अपने खुद के तकलीफ के बारे में पूछने लग जाते थे. नाई को देखते ही हजामत और हकीम को देखते ही सेहत याद आने वाली कहावत हो जैसे.
लड़की के सिरहाने जैसे फलो की दूकान लग गयी हो. उसकी तरफ इशारा करते हुए डॉक्टर ने लड़की के लिए एक पतली सी मुस्कराहट सरका दीया. जवाब में लड़की ने पलके गिराकर उस मुस्कराहट को रिसीव किया. लगभग शांत से पड़े ICU के इस हिस्से में बस मॉनिटर की बीप की यूनिफार्म रिदम थी. दोनों ने लफ्जों की जरुरत को महसूस नहीं किया. निगाहें अपनी भाषा में बातें करती रहीं.

नजरो में बात करने की कितनी क्षमता होती है? हया में नजरो का गिरना, आश्चर्य में नजरो का उठाना,  ख़ुशी के आंसुओं को छुपाने की कोशिश में मुस्कुराती नज़र, बेचैनी में इधर उधर घूमती नज़र, तन्हाई में डूबती सी नज़र, साथी पा जाने पे संतुष्टि के अहसास में आह्लादित नज़र,......डॉक्टर ने आज जाकर समझा था नजरो की काबिलियत को. नफरत जताने के लिए भले लफ़्ज़ों की जरुरत पड़ जाये मगर प्रेम प्रदर्शन के लिए जैसे शब्दों की कोई आवश्यकता ही नहीं. वो पल भर के लिए पशुओ और नवजात शिशुओ के मूक वार्तालाप की परिकल्पना में खोने लग गया था.
नजरो की जुबान में लड़की बाँट रही थी अपने सुनहरे बचपन की यादो को. जवानी के दहलीज़ पे लफ्जों-शेरो-नगमो की आशिकी से होते हुए कॉलेज में हो गयी कमजोर मोहब्बत के बारे में. और बताया उसने अचानक एक दिन यतीम हो जाने के हादसे के बारे में . उर्दू के प्रोफेसर बनने के उसके ख्वाब का क़त्ल कर चुकी दगाबाज़ निकाह का भी जिक्र किया था उसने.

दोपहर 2.30 बजे:
डॉक्टर एक एक कर बहुत सारी लटकी बोतलों को हटा रहा था. अचानक मॉनिटर पर बीप की रफ़्तार तेज़ होकर शांत हो गयी. जिंदगी की उतार चढ़ाव वाली सड़क एकाएक सीधी सपाट दिखने लगी. नब्ज़ की गति शून्य थी. यह क्या हो गया? डॉक्टर का कलेजा बैठने लगा. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था. उसमे इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वो लड़की की नब्ज़ भी टटोले. वह वहीँ  रखे स्टूल पर धम से बैठ गया, हाथो के बीच सर झुका कर आँखे बंद किये...तभी लड़की ने उसके चेहरे को छुआ और मुस्कुराने लगी. चिहुंक कर डॉक्टर ने लड़की की तरफ देखा! फिर से मॉनिटर को देखने पर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. नजरो ने फिर से गुफ्तगू की. माजरा अब साफ़ हुआ – दरअसल लड़की ने शरारत करते हुए मॉनिटर की वायर को अपने कलेजे से अलग कर दिया था. अब मशीन तो मशीन. सिग्नल नहीं मिलने का उसे तो बस एक ही कारण समझ आता है- धड़कन का थम जाना. मगर डॉक्टर तो यह बात अच्छी तरह जानता था कि मशीने जीवन में मददगार मात्र हैं, जीवन का पैमाना नहीं. फिर वह कैसे इसे सच मानकर बेसुध होने लगा था. शायद वो इस लड़की के बेहद करीब चला आया था. और ये ज़रूरी तो नहीं कि जो नज़ारा दूरबीन से बेहतर नज़र आये वो माइक्रोस्कोप से भी उतना ही साफ़ साफ़ दिखे.

डॉक्टर भी अब मुस्कुरा रहा था. जल्द ही उसे अपनी बेवकूफी और लड़की के शरारत
का आभास हुआ.इस शरारत में छुपे अधिकार को भी महसूस किया उसने. प्रेम अभिव्यक्ति का मोहताज़ नहीं होता मगर प्रेम अधिकार चाहता है. उसने अनजाने में ही इस लड़की को खुद पर एक अनकहा सा अधिकार दे दिया था अब तक तो.
लड़की के साथ कोई नहीं था. उसकी चाची कुछ सामान खरीदने बाहर गयी थी. बेड के बगल में बैठे बैठे डॉक्टर ने लड़की के सर पे हाथ फेरा. लड़की ने महसूस किया कि यह स्पर्श ‘अमूमन बुखार या मरीज़ का हाल परखने वाले- डाक्टरी स्पर्श’ से कुछ अलग था. लड़की ने इस अहसास को आंखे बंद कर आत्मा में उतरने दिया. धड़कन ने थोड़ी उछल-कूद की. फिर से कनेक्ट किये जा चुके मॉनिटर ने बीप से इसे सूचित किया. डॉक्टर ने सजग होकर अपनी गरिमा का ध्यान रखने की कोशिश की. हालाँकि ICU के इस हिस्से में आस-पास कोई भी तो नहीं था.

अब तक उन दोनों की मुलाकात के 20 घंटे हो चुके थे. डॉक्टर थकी निगाहों से सपने देखने लग गया था-
उसके सपने में पहले दुखद पल आये, फिर उसने खुद को एक सुन्दर आलिशान पार्क में घुसते हुए देखा. मगर अन्दर जाते ही उसके पैरो में सुन्दर मगर नुकीले कांटे चुभने लगे. कुछ पल में ही वहां एक जलता रेगिस्तान था. वो गर्म रेत में डूबने लगा था; कि तभी एक शीतल बयार बहने लगी. उसने शीतलता के स्रोत को ढूंढने की कोशिश की. उसने कुछ दूर पर एक कोंपल को फूटते हुए देखा. अरे ये तो उसी पौधे की शक्ल ले रहा है जिसे वह रोज़ सींचता था. और फिर एक कतार में ऐसे कई पौधे उगने लगे थे- उन सब को वह पहचानता था जैसे. पौधों की कतार जल्द ही एक ठंढी छांव वाली पगडण्डी में बदल गयी थी.  आगे बढ़ते बढ़ते उसका मन साफ़ हो रहा था, उसका शरीर ज्यादा जवान होता जा रहा था.  एक नदी ने उसका स्वागत किया. नदी पहाड़ से गिरते एक झरने में से निकल रही थी. गिरते झरने की आकृति एक लड़की जैसी लग रही थी. उसने चेहरे को पहचानने की कोशिश की तो एक मुस्कुराहट ने उसके चेहरे को भीगा दिया. अरे!.....इसे तो पहचानता है वह ....तो क्या.....!  
  
 इधर बेड में सोयी लड़की ने भी पलकों को समेटकर ख्वाबो की दुनिया में तैरना शुरू कर दिया था-
एक जंगल जहाँ खतरनाक खूंखार जानवर उसे नोचना-खसोटना चाह रहे थे. वह तो
अभी एक छोटी सी बच्ची थी-डरी सहमी हुई. तभी एक सुन्दर सा नदी का किनारा आया. वह इसे देखकर मंत्र्मुग्द्ध हो ही रही थी कि डर ने आश्चर्य को पीछे धकेल दिया. अचानक किनारे की जमीन सरकने लगी. उसे लगा कि वो जमीन के अन्दर धंस कर मर जायेगी. उसने जीने की उम्मीद छोड़ दी और मरने के लिए नदी में छलांग लगा दीया. नदी में डूबती-तैरती वह  जवान लड़की बन गयी थी. नदी बहती हुई एक ऊँचे पहाड़ से नीचे गिरने वाली थी. यानि मौत अब बस दो कदम दूर थी. एकदम किनारे पे पहुँच कर उसने जब उंचाई से नीचे झाँका तो उसे जिंदगी का अहसास होने लगा. उसने तैरते हुए धारा में बहना और जीना सीख लिया था. नीचे जिंदगी उसका इंतज़ार कर रही थी. उसका जिस्म अब झरने की शक्ल में पिघलने लगा था. 

दोनों की निगाहें खुलीं और एक दुसरे से टकराई. हैप्पी-एंडिंग वाले सिनेमा के क्लाइमेक्स ख़त्म होते ही चेहरे पे जो भाव उपजते हैं- अभी इन दोनों के चेहरों पर सज रहे थे. पलकों की कतारों को प्रेम की बूंदे सींचे जा रही थी. लड़की ने नज़र  बंद कर के फिर से झरने की तरफ रुख किया. डॉक्टर ने भावनाओं को व्यक्त होता देख खुद को असहज महसूस  किया और बाहर चला आया.

शाम अपनी परछाई पसार रही थी. अस्पताल से लगा हुआ एक छोटा सा मंदिर- यहाँ अलग अलग गाँव से आये लोग या तो अपने मरीज़ के सलामती के लिए दुआ मांगते थे या मनोरंजन के लिए लोकगीतों की महफ़िल जमाते थे. अभी व्यास यानि मुख्य गायक की गद्दी पे बैठे युवक ने तान छेड़ा था  –
कैसे जिऊंगा तुम बन सिया ....काहे मेरे संग वनवास लिया...”

गर्भ के आखिरी महीने में अधिक खून बह जाने के कारण मरणासन्न पत्नी को लेकर आया था वह इस अस्पताल में. स्त्री रोग विभाग का लेबर रूम- जहाँ पुरुषो का प्रवेश निषेध था- वह अपनी पत्नी को देख भी नहीं पा रहा था. आवाज़ में दर्द इस तरह पिघल रहा था कि अगल-बगल के चाय और दवा दुकान वाले भी वहां जमा हो गये थे. डॉक्टर भी चाय का कप हाथ में लिए सुनने वालो की भीड़ में जा लगा था. सब लोग गीत की अपने हिसाब से व्याख्या कर रहे थे, अपनी परिस्थिति को जोड़कर पंक्तियों के साथ जुड़ते जा रहे थे. शायद यही काव्य की शक्ति है.

लेबर रूम से डॉक्टर को बुलाया गया. इस युवक की पत्नी ने एक लड़की को जन्म दिया था मगर खुद वह अपनी सांसे नहीं खिंच पा रही थी. डॉक्टर ने एक भी सेकंड की देरी किये बिना 15 सेकंड के अन्दर औरत के गले से फेफड़े तक E.T. tube डाल कर उसे गुब्बारे की तरह दिखने वाले अम्बु बैग से जोड़ दिया. अब गुब्बारे नुमा बैग को हर चार सेकंड में एक बार दबाया जायेगा तो बाहरी बल से ऑक्सीजन और हवा औरत के फेफड़े में धकेली जाएगी। औरत को अब साँस लेने के लिए तो ताकत लगाने की जरुरत नहीं होगी। चूँकि डिलीवरी हो गयी थी, तो औरत को स्त्रीरोग विभाग से हटाया जा सकता था. डॉक्टर ने कुछ सोचकर औरत को ICU में ट्रान्सफर कर लिया. ठीक लड़की के बगल वाले बेड पे. उसका पति अब उसके साथ तो था, हर चार सेकंड पे अम्बु बैग को दबाते हुए. औरत की हर साँस उसके पति की दी हुई थी अब.
ICU की घडी ने शाम के 8 बजने का ऐलान किया था. नर्सें अपने शिफ्ट की ड्यूटी चेंज कर के जा रही थीं. पति बिना रुके अम्बु बैग दबाये जा रहा था पिछले डेढ़ घंटे से. पति ने डिलीवरी से ठीक पहले एक यूनिट ब्लड डोनेट किया था अपनी पत्नी के लिए. उसी बोतल ने औरत के नीले पड़ गए शरीर पर लाल रंग को चढ़ाना शुरू कर दिया था. डॉक्टर लड़की के ही इर्द गिर्द रहने की कोशिश कर रहा था. लड़की ने औरत और उसके पति को देखा. कुछ लोग जिन्दा रहने के लिए कितनी कोशिश करते हैं और कुछ लोग कितनी आसानी से जिंदगी की कैद से आज़ाद हो जाना चाहते हैं. मगर अब उसे जीने का मकसद मिल गया था. ICU के इस हिस्से में चार लोग जिंदगी को अपने नज़रिए से देख रहे थे.

रात के 1 बज रहे होंगे. लड़की आँखे बंद किये कभी नींद तो कभी जागती आँखों वाले सपने देख रही थी. बीच बीच में वो पास बैठे डॉक्टर का हाथ थाम लेती. औरत का पति इस गतिविधि को देखकर भी अनदेखा सा कर रहा था. औरत अभी भी अपने सांसो से उलझ रही थी और डॉक्टर अपने ख्यालों से. तभी फ़ोन की घंटी ने डॉक्टर का ध्यान भग्न किया. उसकी बीवी का फ़ोन था. पता नहीं क्यों मगर वह लड़की के सामने अपनी बीवी से बात नहीं करना चाहता था. फ़ोन लेकर वो बाहर चला आया. नशे में धुत बीवी फ़ोन पे अपनी भड़ास निकल रही थी, डॉक्टर चुपचाप सड़क किनारे टहलता हुआ सुनता जा रहा था. बोलने की न तो उसकी इच्छा थी ना ही इसका कोई मतलब था.

औरत का पति काफी थक गया था. उसके हाथ कांप जाते थे. लड़की से देखा नहीं गया. अपने जिस्म से लगे बाकी के दो चार तारो को हटाकर वो औरत के पास चली गयी. उसने अम्बु बैग को अपने हाथो में ले लिया और अपने सांसो की रफ़्तार से बैग दबाने लगी. ऐसा कर के उसकी आत्मग्लानी थोड़ी कम हो रही थी शायद?

कौन लेकर आया इस औरत को यहाँ? किसके परमिसन से ऐसा हुआ? ..” स्त्रीरोग विभाग से खबर मिलने पे अस्पताल की इन-चार्ज गुस्से में दांत पिसते वहाँ पहुँच गयी थी. “ और खुद कहाँ गायब हो गया वो डॉक्टर? यहाँ किसके भरोसे छोड़ गया है इतने सीरियस मरीज़ को? आज तो उसकी ड्यूटी भी नहीं थी फिर उसे ऐसा करने की इज़ाज़त किसने दे दी? कल इसे कुछ हो गया तो मीडिया वालों को कौन जवाब देगा? बड़ा मसीहा बनता फिरता है और अपने मन की करते रहता है. नियम-अनुशासन की धज्जियां उड़ा दी है इसने, हमारी नाक में दम कर के रख दिया है....?” कुछ देर तक ऐसे ही गोले दागने के बाद डॉक्टर को मजा चखाने की धमकी देती वह जा रही थी; मगर उसकी इन बातो को कोई भी अच्छे मन से नहीं सुन रहा था. नर्सें जानती थी कि ये बोल डॉक्टर से उसकी जलन और दुश्मनी के थे. डॉक्टर ने कुछ भी गलत नहीं किया था. लड़की मन ही मन डॉक्टर की तरफदारी करती हुई सोच रही थी कि- ‘आखिर नियम-कानून समाज की भलाई के लिए बनते हैं या समाज को नियमो में उलझाकर दम घोंटने के लिए. चलो अच्छा था कि डॉक्टर इस वक़्त यहाँ नहीं था वरना बेकार ही उसे ऐसे कड़वे बोल सुनने पड़ते.’ इस बात ने लड़की को आंशिक संतुष्टि का एहसास कराया. उसे क्या पता था कि इस वक़्त डॉक्टर इससे भी कडवे घूंट जबरन पिए जा रहा था. औरत का पति खुद को औरत के इलाज़ का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बनाकर काफी हद तक अपनी बेचैनी को कम कर पा रहा था, वह अभी लड़की द्वारा दिए जा रहे अम्बु बैग के रिदम पे फिर से गुनगुना रहा था- “अब कैसे जियूँगा तुम बिन सिया.....काहे मेरे संग वनवास लिया...जीवन त्यागा जहर पिया...अब कैसे जियूँगा तुम बिन सिया...”. वो भी मन ही मन डॉक्टर की काफी इज्ज़त करने लग गया था.

करीब 25 मिनट हो गए थे. लड़की ने अम्बु बैग दबाना जारी रखते हुए औरत के पति की तरफ देखा. उसने समझने में जरा भी देरी नहीं की और डॉक्टर को बुलाने बाहर चला आया. 
मगर जब वे दोनों वापस लौटे तो अन्दर का नज़ारा कुछ और ही था! ऐसे डरावने नज़ारे की उम्मीद न तो डॉक्टर ने की थी ना ही औरत के पति ने.
लड़की की बूढी चाची कांपते हाथो से आधे नींद में अम्बु बैग दबाने की कोशिश कर रही थी. नाईट ड्यूटी वाली दोनों नर्सें किसी तरह लड़की को उठाकर उसके बेड पर ले जा रही थी.

पता चला लड़की की धड़कन काफी तेज़ और अनियमित/इर्रेगुलर रिदम में चल रही थी. दरअसल सल्फास जैसे जहर का असर अब तक गया नहीं था. इतना परिश्रम लड़की का कमजोर दिल बर्दाश्त नहीं कर पाया. दोनों मर्दों के पैर जम से  गए थे!
भोर के चार बज रहे थे. औरत का पति अम्बु बैग छोड़कर हिलना भी नहीं चाहता था. अब तो उसे किस्मत पे भी भरोसा नहीं रहा था. लड़की पसीने से तर-बतर एकदम ठंढी पड़ने लगी थी. हार्ट फेलियर- यानि ह्रदय अब पुरे शरीर को खून भेजने में सक्षम नहीं रहा था. यह सल्फास के देर से आनेवाले मगर सबसे खतरनाक प्रभाव में से एक था. साँसे भारी होती जा रही थी. खून नहीं मिलने के कारण शरीर के सारे अंग एक एक कर के सुस्त पड़ते जा रहे थे. मॉनिटर बीप के ऐसे शोर मचा रहा था मनो बीच चौक पे कोई बड़ा हादसा हो गया हो और गाड़ियाँ बेतरतीब इधर उधर हॉर्न बजाती भाग रही हो. लड़की की नजर डॉक्टर को ढूंढ रही थी. उसे अब मौत से डर लग रहा था. वो फिर से जिंदगी की कैद में आने को तड़प रही थी. आँखों के सामने धीरे धीरे अँधेरा छाने लगा था. वह फिर से नदी की लहरों में हिचकोले खाने लगी थी. पहाड़ का झरना जिससे निकलकर उसे जीवन की धारा से मिलना था- अब और दूर होता जा रहा था. मगर डॉक्टर?

उसने लड़की के बेड पे फिर से कई सारे बोतल लटका दिए थे. लड़की के हाथो-पैरो की नसों से लगातार दवाएं इंजेक्ट की जा रही थी. हर 10 मिनट पर ऑक्सीजन का लेवल और ब्लड प्रेशर चेक करता जा रहा था वो. कभी इस मशीन से तो कभी दूसरे से, कही मशीन ने फिर से गलत बताया तो! वो अब गुस्साने लगा था. नर्सों पे चिल्लाने लगा था- “सिस्टर! जल्दी से एड्रेनैलिन लाइए....क्या? नहीं है! क्या मजाक है? भागिए यहाँ से ...कही से भी ला.. ”.  वो खुद भी बेतहाशा भाग रहा था यहाँ वहां. कहीं कहीं से दवाएं खोज कर ला रहा था. जल्दबाजी में दवा की सील तोड़ने में अपनी अंगुली भी काट ली थी उसने. अचानक दौड़कर कोई किताब उठाकर लाता और फर्श पर ही बैठकर पन्ने पलटने लग जाता-फड़फड़ फड़फड़; तीन-चार पंक्तियों पे निशान लगाता; और दौड़कर नयी दवाई को बोतल या सिरिंज में भरकर चढाने लग जाता. काफी देर तक ऐसा ही चलता रहा. वह पागल की तरह भाग रहा था, चीख रहा था, चिल्ला रहा था, बीच में आने वाले से धक्का मुक्की कर रहा था, सामान पटक रहा था.
तभी नर्स ने कहा- “सर! अब ECG कर के देख लेना चाहिए...”
क्यों?” डॉक्टर ने गुस्से में पूछा. तभी उसे महसूस हुआ कि भागदौड में पिछले 15 मिनट में उसने मॉनिटर की तरफ देखा ही नहीं था. वह बस लड़की के चेहरे को देखता और भागता रहा था. मॉनिटर ने शोर करना बंद कर दिया था.

ECG की सीधी रेखा ने सांसो के थम जाने की घोषणा कर दी थी. सामने की बड़ी खिड़की से सुबह की रौशनी ने ICU में झांकते हुए प्रवेश किया. पहली किरण   लड़की के शांत मगर हमेशा के लिए सो गए चेहरे को छूकर आगे बढ़ गयी. आगे बढ़कर सूरज की किरण ने पति के अनवरत मेहनत के कारण अब तक जीवित औरत की आँखों को खुलने पे मजबूर किया. डॉक्टर दूर क्षितिज में सिमटते अँधेरे और बिखरते उजाले के मिलन को देख रहा था. लड़की के चारो तरफ लटकी दवाइयों के झालर उसके अंतिम यात्रा के सजावट की तरह लग रहे थे. तभी चपरासी ने डॉक्टर को एक चिट्ठी पकडाया- “सर! ये आपके लिए है.”. यह था डॉक्टर को फिर से सुदूर PHC भेजने का ट्रान्सफर आर्डर!!  


By:डॉ गोविन्द माधव (dr.madhaw@gmail.com)



#Uff!!! Mesmerising and spellbound Govind boss!!!! Lajawaab..!!-Divit Jain 
#Awesome piece of writing... very gripping... perfect description of emotions..-Moumita
No words , just had a smile after reading this- Bharti


  Ⓒ Govind Madhaw

Saturday, February 20, 2016

100 kisses of death: episode 2- मौत का भरोसा

हाथ पैर नीला था -एकदम cyanosed. BP एकदम कम- shock में थी वो. dopamine और dexona देने पे जैसे ही होश में आई-" गोविन्द सर कहाँ हैं? गोविन्द सर को बुलाइए ना! वही बचाए थे पिछली बार हमको. सर! आप आ गए ना!...." उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. हाथ अब तक नीले थे और पसीने से तरबतर. मैंने ऑक्सीजन मास्क को हटाने की उसकी कोशिश को नाकाम करते हुए अपनेपन वाली अधिकार भरी डांट लगायी-" एक सेकंड के लिए भी ऑक्सीजन का मास्क निकलना नहीं चाहिए." और फिर जब प्रेशर 70 mm के पार गया तो मैं बाकी मरीजों को देखने लग गया. आज मेरे हॉस्पिटल रिम्स के इमरजेंसी में जबर्दश्त भीड़ थी. सुबह 9 बजे से अब तक 60 मरीज़ भर्ती कर चूका था...जबकि बेड सिर्फ 24 हैं  हमारे पास. उसके पति ने हसरत भरी निगाह से मुझे देखा-" सर ठीक तो हो जाएगी ना. आप ही भगवान् हैं सर, बचा लीजिये. रास्ते भर आपका ही नाम लेते आ रही थी, पिछली बार की तरह इस बार भी....." आँखों में मजबूरी और दर्द की बूंदे जगह बनाने लग गयी थी. खुद को कमजोर होता देख मैंने उसे कुछ जांच की रशीद कटाने  के लिए भेज दिया.

पिछली बार यानि करीब २ महीने पहले - वो एडमिट होकर आई थी मेरे वार्ड में. 35 साल की उम्र थी, दो बेटियों की माँ, मगर अभी भी इंजेक्शन के नाम से भाग खड़ी होती थी. फेफड़े में पानी भर गया था उसके. लोकल डॉक्टर ने TB की दवा स्टार्ट तो करा दिया था मगर प्लयूरल taping यानि फेफड़े से सिरिंज से पानी निकलने का रिस्क नहीं लिया. कुछ दिन तक इस भरोसे रखे रहा की दवाई से ही पानी सुख जाएगा. मगर जब सांस की तकलीफ इतनी अधिक बढ़ गयी कि  दो कदम चलना मुश्किल तो सीधे रेफेर कर दिया. बहुत प्यार से काउंसलिंग करनी पड़ी थी उसकी- तब जाकर पानी निकलवाने के लिए तैयार हुई थी.

"milliary kochs लग रहा है सर! मगर एक महीने हो गए TB की मेडिसिन्स खाते , अब तक जरा सा भी इम्प्रूवमेंट नहीं दिख रहा है? कहीं ये MDR- यानि multi  ड्रग रेसिस्टेंट TB तो नहीं जिसपे सारी दवाइयां बेअसर है. या फिर ये lung malignancy यानि कैंसर भी हो सकता है या कोई फंगल इन्फेक्शन , मगर CT स्कैन, फ्लूइड एनालिसिस,स्पुटम टेस्ट, रिपीट x-ray सब  तो करा लिया है हमने, सब जगह तो TB के ही लक्षण हैं. ...यानि मेरा डिसीजन एकदम सही है न सर? " उस दिन मैंने कई और लोगों से राय ली थी इस केस के बारे में और फिर लगभग निश्चिंत था अपने ट्रीटमेंट प्लान के बारे में. maybe she will respond late...

रात के डेढ़ बजे जब मैं वार्ड से राउंड लेकर लौट रहा था तो लगभग निश्चिंत था- वो ICU में शिफ्ट हो गयी थी मेरे सामने. ऑक्सीजन लेवल मेन्टेन हो रहा था, BP भी इम्प्रोविंग ट्रेंड में था. तभी उसका पति बेतहाशा दौड़ा आया मेरे पास- "सर चलिए न, वो कैसे तो हो रही है? बहुत सीरियस है सर!"
वो फिर से गास्प कर रही थी यानि आखिरी वक़्त वाली उलटी लम्बी सांसे. गले से घरघराहट की आवाज़. शायद aspirate कर गयी थी. जब तक atropine, deriphyllin जैसे लाइफ सेविंग ड्रग्स लाता, उसकी सांसे रुक चुकी थी. उसके पति ने भीगे-घिसटते आवाज़ में कहना जारी रखा- " सर! तीन दिन से ऐसे ही साँस ले रही थी. मगर हम आज ही लेकर आये क्यों कि आपकी इमरजेंसी शनिवार को ही रहती है, और मुझे या इसे किसी और डॉक्टर पे भरोसा ही नहीं था. इसे किसी और वार्ड में  एडमिट नहीं होना था स...र......"

मैं अपने आप को सम्हाल नहीं पा रहा हूँ. क्यों किया था उसने मेरे ऊपर इतना भरोसा? और क्या दिया मैंने उसे इस भरोसे के बदले? दो दिन पहले आ जाती तो क्या हो जाता? किसी भी दुसरे डॉक्टर से दिखा लेती तो क्या हो जाता? कहीं सच में उसे कुछ और बिमारी तो नहीं थी जो मेरी नादानी के कारण बढती चली गयी और....कितना गलत है कम नॉलेज के साथ मरीज़ का इलाज़ करना...मगर मेडिकल साइंस में तो हर दिन कुछ न कुछ बदल जाता है और नए तथ्यों के आते ही पुराने तथ्य बेवकूफी लगने लगते है....मगर फिर भी क्या जरुरत थी मुझे उसका भरोसा जीतने  की? मुझे चुपचाप से अपना काम करना चाहिए था...ना मैं कोई रिश्ता बनाता, जैसा की मैं अपने हर मरीज़ से बना लेता हूँ, और ना ही वो मेरे भरोसे मौत की और खिसकती .... और अब मैं किस नज़र से उसके पति को बताऊंगा कि वो मर गयी है....वो बेचारा तो इतनी रात को nebulisation की रेस्पुल लेने भागा फिर रहा है बिना चप्पल के ही-क्योकि मैंने कहा था!


Monday, November 23, 2015

100 kisses of death: episode01- "आधे लाश की मुक्ति"


अजीब तमाशा है यहाँ ? सुबह से हम परेशान खुद  से ट्राली खींचते घूम रहे हैं, कभी ENT वार्ड, कभी ओर्थो  तो कभी न्यूरो वार्ड! अरे कम से कम एडमिट तो कर लिया जाता हमारे पापा को. इनके साथ साथ घूमते तो हम खुद ही मर जायेंगे. क्या इंसानियत मर गयी है सब की? कुछ इलाज़ तो स्टार्ट  हो जाता फिर जांच वांच  करा के फैसला होते रहता कि किस विभाग में भरती करा के इलाज़ होना है, किस टाइप की बिमारी है?”
गुस्से से मिक्स्ड विवशता का बोझ उठाये उस बेटे के चेहरे को देख कर मुझसे रहा नहीं गया.
ओर्थो ने एडमिट करने से मना कर दिया...जबकि ट्रॉमेटिक पराप्लेजिया का केस था - यानि चोट के कारन नाभी  के नीचे  का हिस्सा बेजान. २६ अक्टूबर को रोड एक्सीडेंट हुआ था इनका. तब से सदर में एडमिट थे . ठीक ठाक ही तो बात कर रहे थे अभी तीन दिन पहले तक. फिर अचानक बात करना बंद कर के लम्बी लम्बी सांसे लेने लगे. वहां के डॉक्टर तो हमें ही ही डांट कर भगा देते थे, जब भी हम थोडा पानी सेलाइन वगैरह चढा देने की बात करते थे तो.वह साथ आये चाचा से बतिया रहा था,जब तक कि मैं उसके एडमिशन पेपर बना रहा था.
रिम्स में मेडिसिन वार्ड में भर्ती कराने के साथ ही उनके चेहरे पे असीम संतुष्टि के भाव मचलने लगे थे. और उसके  बाद सुबह शाम हाजिरी बनाने आते थे उसके घरवाले. जैसे कोई रोस्टर बन गया हो...आज का दिन फुवा का, आज बहु का, आज पोते का तो हर दुसरे दिन इसी बेटे का. बाकी टाइम सिरहाने रखी दवाई की पोटली से ही मरीज़ का हाल चल पूछ लिया करता था मैं राउंड देने के वक़्त.
और उस दिन की बारी थी शराबी किरायेदार की. ryles tube ब्लाक हो गयी थी शायद. भूखे आत्मा को लम्बी सांसे लेता देख उससे रहा नहीं गया और मुंह से मौत का निवाला पिला  दिया.
मौत के बाद बेटा  और बहु लगभग निश्चिंत थे. मगर समाज की रश्म अदायगी के लिए मौत का कारण ढूंढने  डॉक्टर के पास हमलावार लफ्ज लेकर पहुंचे. ठीक इलाज़ नहीं किया आपने ....
डॉक्टर ने अपनी जान छुडाने के लिए ब्लड रिपोर्ट में से किडनी फेलियर की बात जैसे ही निकाली, उन्हें मानो नया हथियार मिल गया हो-अब फुवा की औकात जो इलज़ाम लगाए कि  हमने इलाज़ नहीं करवाया. धन्यवाद डॉक्टर साहब! आपने बहुत मदद की हमारी...अब तो जैसे हमलवार लफ्ज अपनी  दिशा पलट कर फुवा की तरफ बढ़ने लगे थे.
अपने करतूत से अनजान शराबी किरायेदार कफ़न के इंतज़ाम में लगा हुआ कहता जा रहा था- हमारे ही हाथों से पानी पीकर बाबा ने अपनी आखिरी सांस ली, शायद मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे. नसीब में बेटे के हाथ का पानी भी नहीं था.

मरी हुई आत्मा जाते जाते जैसे लाश के चेहरे पे अनंत शान्ति का भाव छोड़ गयी थी.सच में मुक्ति मिल गयी थी शायद, वरना आधे मरे शारीर का बोझ उनकी आत्मा के लिए ढो पाना तो ..........


खैर ये था मेरे डेथ रजिस्टर का पहला पन्ना.