पुरुष ट्रेक्टर तो महिला कंप्यूटर-महिला दिवस पर
सुनने में थोडा अजीब भले लगे, मगर सोचिये जरा सा तो इस बात की असली गहराई समझ में आयेगी।
आज समाज में नारी उत्थान, महिला ससक्तिकरण,स्त्री विमर्श इत्यादि नारों के साथ न जाने क्या क्या लिखा जा रहा है। आन्दोलन, कानून, विधेयक,नैतिकता और न जाने क्या क्या। मगर मैंने जब एक साधारण बूढ़े से दुकानदार की ये बात सुनी तो मुझे अजीब सी ख़ुशी मिली। लगा जैसे मेरे कई सवालों के जवाब मिल गए हो।
समाज में फैली लिंग विषमता और नारी उत्पीडन के बारे में बचपन से ही पढता,सुनता, देखता और महसूस करता आ रहा हूँ। कई तरह के सवाल मन में रोज़ पनपते थे। पहला सवाल तो ये कि क्या सच में नारी के साथ अत्याचार होता है? क्यों कि अपने घर में मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। माँ को घर की गृहस्थी पे पूरा अधिकार प्राप्त था।बुआ दीदी सब को बराबर की स्कूली शिक्षा मिली थी।हाँ उन्हें ऑफिस में नौकरी के लिए भले नहीं भेजा गया था।क्यों कि उन्हें पैसे कमाने से भी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी दी गयी थी -हम बच्चो को पढ़ाने की।परिवार सम्हालने की। अब ये काम या फिर जिम्मेदारी किस तरह उनके आजादी में बाधक थी, या फिर किस तरह उनके अरमानो का गला घोंटा गया था ...ऐसी कोई बात मुझे अपने बचपन में नहीं समझ आ रही थी।
ज़माना बदला। घर छोड़कर बाहर निकला तो कुछ अहसास हुआ। मेरे घर में भले नहीं मगर कई जगहों पे विषमता है।मुझे समझ में आ गया कि - कई घर ऐसे हैं जो भले पढ़े लिखे हों मगर वास्तविक शिक्षा से कोसो दूर की मानसिकता लिए बैठे थे। दहेज़, स्त्री भ्रूण हत्या,समाज में गिरता स्त्री-पुरुष अनुपात,बलात्कार,शिक्षा से वंचित आधी आबादी, कुपोषण से ग्रसित ग्रिह्शोभाएं,चिकत्सा रोग बिमारी में भी दोहरा मानदंड,नशबंदी में भी महिला को दी जाने वाली जबरन जिम्मेदारी,कम उम्र में शादी, घर से बाहर निकलने में पाबंदी,मन के मुताबिक़ जीवन साथी या पेशा न चुन पाने का दर्द…. मन सच में डर गया। आखिर इंसान इंसान में ये भेद भाव क्यों? आखिर किसने दे दी है पुरुषों को शासन करने की इज़ाज़त? किसने ये हक दे दिया कि पुरुष ही भाग्य विधाता बन जाए आधी आबादी की? आखिर इसका उपाय क्या है? तो क्या मानवता के नाते अब नारी को शासन की बागडोर सौंप दिया जाना चाहिए ? तो क्या कानून बना कर नारी को पुरुष से श्रेष्ठ घोषित कर दिया जाना चाहिए?
मन फिर से उद्विग्न हो रहा था। मैं एक शाम शहर की लाइब्रेरी के पास वाली चाय दूकान में बैठा बसंत ऋतू की वास्तविक सुन्दरता को भीड़ से भरे इस शहर की रफ़्तार में महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि सामने से एक रैली गुजरी। कई सारे स्कूलों की लड़कियां, फिर महिला क्लब के मेंबर्स, और सुरक्षा के लिए महिला पुलिस .....नारे लग रहे थे। महिला ससक्तिकरण का जूनून दिख रहा था। कुछ मौकापरस्त अधेड़ पुरुष भी अपनी आँख सेंकने के लिए ही सही इस आन्दोलन में बैनर थामे साथ हो लिए थे।कुछ लड़कियों के आशिक भी अपने दोस्त को साथ लिए मोटरसाइकिल में भीड़ के पीछे पीछे चल रहे थे। बीच बीच में चिल्ला भी रहे थे और अपनी मोबाइल से अपने निशाने पे फ़्लैश भी चमका रहे थे। कुछ पत्रकार भी "मिशन ब्यूटी हंट" की तरह खुबसूरत चेहरों को खोज कर कैमरे में कैद करने की लगातार कोशिश कर रहे थे। उन्हें मालूम था की इन चेहरों को वो पुरे साल तक "फाइल चित्र" बनाकर नारी ससक्तिकरण के नाम पर अपनी बिक्री बढाने के प्रयोग में लाते रहेंगे।शाम ढलने लगी थी तो कुछ लड़कियों के घरवाले भी पहुंचे हुए थे सुरक्षा की चिन्ता से। कुछ अतिउत्साही महिलाएं पुरुष विहीन समाज की कल्पना को जोर दे रही थी। एक महिला ने तो अपने पति को तलाक की धमकी दे डाली थी - ऐसा उसने आगे मैदान में होने वाले नारी संग्राम सभा में भाषण में कहा। संग्राम, लड़ाई, आन्दोलन, उर्जा युक्त नारे और ढेर सारी कहानियाँ। एक महिला ने कहा- "मैं क्यों खाना बनाऊं? किसने कहा की बच्चो के देखभाल की जिम्मेवारी पुरुष की नहीं है? मैं भी अपने पैर पे खड़े होना चाहती हूँ, नौकरी करना चाहती हूँ, मेरे पति को मजबूरन नौकरी छोड़कर घर में बैठना पड़ा और घर का काम अब वो ही करता है". सम्मलेन में तालियों की गूंज हुई। करतल ध्वनि के साथ उत्साह का महासागर उमड़ उठा। एक महिला ने जो पुरुस्हीं की तरह के परिधान में यानी कोट -पैंट -टाई में थी उसने कई सारे उदाहरण गिना दिए, व्यवसाय में महिलाओं द्वारा जड़े गए कीर्तिमान,खेल कूद में जीते गए पदक, विज्ञान और शोध में नए आयाम,सेना,फैशन,क्रिकेट, wwf fighting तक में महिलाओं की भागीदारी और प्रशाशन में भी उनका योगदान या भागीदारी। सच में प्रेरणा दायक। फिर से जोश।मन को सुकून का अहसास तो हुआ। मगर फिर से सवालों के खेप के खेप उतरने लगे मन के आंगन में।
आखिर ये लड़ाई क्यों? बेहतर कौन? क्या सच में दोनों एक सामान हैं? ये संग्राम कहीं अलगाववाद तो नहीं?कम्पटीसन की तैयारी कर रहे एक बेरोजगार ग्रेजुएट ने दुःख भरे व्यंग के साथ कहा-"सोचिये न एक तरफ तो ये सब समानता की बात करती हैं, और दूसरी तरफ आरक्षण भी मांगती है? अगर बराबर ही है तो फिर आरक्षण कैसा??"मैं इसका जवाब सोच ही रहा था कि तभी उस बूढ़े चाय वाले ने कहा-" क्या बाबू?आप लोग तो मेडिकल के विद्यार्थी हैं?आप ही बताइये कि क्या सच में भगवान् ने उन्हें इस तरह संग्राम करने के लिए बनाया है? आखिर इनमे से बेहतर कौन है? क्या शारीरिक ताकत ज्यादा होने से ही पुरुष शासन का अधिकारी हो जाता है? अगर सिर्फ महिलाओं को सारे अधिकार दे दिए जाएँ तो ये पुरुषों का क्या करेगी? क्या अपना अलग थलग समाज या दुनिया बसाएगी या फिर पुरुषों को गुलाम बना लेगी? तो फिर क्या पुरुष ही बच्चे पैदा करेंगे? "
मैं अपना पक्ष निर्धारित नहीं कर पा रहा था। आखिर सच क्या है? आखिर सही कौन है? आखिर आदर्श समाधान क्या है? मैंने अपने असमंजस के भाव को अपने चेहरे से ही स्पष्ट हो जाने दिया।तब उस बूढ़े आदमी ने कहा-" मुझे तो बस इतना पता है कि पुरुष अगर ट्रेक्टर है तो स्त्री कंप्यूटर है। शारीरिक ताकत ज्यादा होने पर ट्रेक्टर खेत तो जोत सकता है, भारी भरकम काम कर सकता है, अपनी विशालता का प्रदर्शन कर सकते है,मगर कंप्यूटर की तरह जटिल काम नहीं कर सकता। मस्तिष्क ज्यादा विकसित है कंप्यूटर का। कंप्यूटर भी चाहे तो अपनी क्षमता पर इठलाये, घमंड करे, मगर वो भी ट्रेक्टर वाले काम नहीं कर सकता ना। अब कंप्यूटर बनाने के लिए भी ट्रेक्टर से कल पुर्जे आते हैं, और ट्रेक्टर बनाने के लिए कंप्यूटर की जरुरत पड़ती है। तो एक दूजे के बिना तो दोनों का अस्तित्व खतरे में है। अब फैसला इन्हें करना है कि ये इस तरह संग्राम कर के अलग अलग रहना और ख़त्म हो जाना पसंद करेंगे, या फिर एक दुसरे के महत्व को स्वीकारते हुए बिना किसी रेस लगाए सहस्तित्व को अपनाते हुए दुनिया को आगे बढाते हैं।"
मैंने भी अपने बायोलॉजी के ज्ञान को खंगालना शुरू किया तो उस बूढ़े आदमी का उदाहरण एकदम सटीक बैठ गया। Biologically ये एकदम परफेक्ट उदहारण है. अगर मुझसे कोई पूछ दे कि लीवर और किडनी में कौन बड़ा है तो मैं क्या जवाब दूंगा? और अगर कोई मुझसे पूछे की दोनों बराबर हैं क्या? तो भी मैं निरुत्तर ही रहूँगा।दरअसल भगवान् ने नारी और पुरुष दोनों को अलग अलग ही बनाया है। और इसके पीछे भी कई प्रयोजन हैं। स्त्री शारीरिक रूप से कोमल है, कमजोर कहना सही नहीं है, मगर जटिल भी है। भावनात्मक रूप से ज्यादा उन्नत है,किसी भी भाव के अभिव्यक्ति कर सकने में ज्यादा सक्षम है। और इसलिए उसे रचनात्मकता में सर्वोतम यानि जीवन की रचना करने की क्षमता और जिम्मेदारी है। पुरुष मांशपेशियों की ताकत से युक्त है,मगर ह्रदय से कठोर।इसलिए रक्षा,शारीरिक परिश्रम या पसीने बहाने वाले कार्य इसके अनुरूप हैं।
और इन दोनों प्राणियों के बीच संतुलन ही मानवता की पहचान रही है। अगर राजनीति,मौकापरस्ती,शक्तियों का दुरूपयोग,स्वार्थ और अंधी दुस्पराम्पराओं को मिटा दें तो फिर शायद महिला दिवस की आवश्यकता न रहे। फिर कोई कुटिल चाल नहीं चली जायेगी। फिर कोई आजादी के नाम पर अलगाववाद की आग नहीं फैलाएगा। फिर कोई बड़ा और बेहतर कौन या समानता जैसे काल्पनिक मुद्दों पे बांटकर संग्राम नहीं करवा पायेगा।
सुनने में थोडा अजीब भले लगे, मगर सोचिये जरा सा तो इस बात की असली गहराई समझ में आयेगी।
आज समाज में नारी उत्थान, महिला ससक्तिकरण,स्त्री विमर्श इत्यादि नारों के साथ न जाने क्या क्या लिखा जा रहा है। आन्दोलन, कानून, विधेयक,नैतिकता और न जाने क्या क्या। मगर मैंने जब एक साधारण बूढ़े से दुकानदार की ये बात सुनी तो मुझे अजीब सी ख़ुशी मिली। लगा जैसे मेरे कई सवालों के जवाब मिल गए हो।
समाज में फैली लिंग विषमता और नारी उत्पीडन के बारे में बचपन से ही पढता,सुनता, देखता और महसूस करता आ रहा हूँ। कई तरह के सवाल मन में रोज़ पनपते थे। पहला सवाल तो ये कि क्या सच में नारी के साथ अत्याचार होता है? क्यों कि अपने घर में मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। माँ को घर की गृहस्थी पे पूरा अधिकार प्राप्त था।बुआ दीदी सब को बराबर की स्कूली शिक्षा मिली थी।हाँ उन्हें ऑफिस में नौकरी के लिए भले नहीं भेजा गया था।क्यों कि उन्हें पैसे कमाने से भी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी दी गयी थी -हम बच्चो को पढ़ाने की।परिवार सम्हालने की। अब ये काम या फिर जिम्मेदारी किस तरह उनके आजादी में बाधक थी, या फिर किस तरह उनके अरमानो का गला घोंटा गया था ...ऐसी कोई बात मुझे अपने बचपन में नहीं समझ आ रही थी।
ज़माना बदला। घर छोड़कर बाहर निकला तो कुछ अहसास हुआ। मेरे घर में भले नहीं मगर कई जगहों पे विषमता है।मुझे समझ में आ गया कि - कई घर ऐसे हैं जो भले पढ़े लिखे हों मगर वास्तविक शिक्षा से कोसो दूर की मानसिकता लिए बैठे थे। दहेज़, स्त्री भ्रूण हत्या,समाज में गिरता स्त्री-पुरुष अनुपात,बलात्कार,शिक्षा से वंचित आधी आबादी, कुपोषण से ग्रसित ग्रिह्शोभाएं,चिकत्सा रोग बिमारी में भी दोहरा मानदंड,नशबंदी में भी महिला को दी जाने वाली जबरन जिम्मेदारी,कम उम्र में शादी, घर से बाहर निकलने में पाबंदी,मन के मुताबिक़ जीवन साथी या पेशा न चुन पाने का दर्द…. मन सच में डर गया। आखिर इंसान इंसान में ये भेद भाव क्यों? आखिर किसने दे दी है पुरुषों को शासन करने की इज़ाज़त? किसने ये हक दे दिया कि पुरुष ही भाग्य विधाता बन जाए आधी आबादी की? आखिर इसका उपाय क्या है? तो क्या मानवता के नाते अब नारी को शासन की बागडोर सौंप दिया जाना चाहिए ? तो क्या कानून बना कर नारी को पुरुष से श्रेष्ठ घोषित कर दिया जाना चाहिए?
मन फिर से उद्विग्न हो रहा था। मैं एक शाम शहर की लाइब्रेरी के पास वाली चाय दूकान में बैठा बसंत ऋतू की वास्तविक सुन्दरता को भीड़ से भरे इस शहर की रफ़्तार में महसूस करने की कोशिश कर रहा था कि सामने से एक रैली गुजरी। कई सारे स्कूलों की लड़कियां, फिर महिला क्लब के मेंबर्स, और सुरक्षा के लिए महिला पुलिस .....नारे लग रहे थे। महिला ससक्तिकरण का जूनून दिख रहा था। कुछ मौकापरस्त अधेड़ पुरुष भी अपनी आँख सेंकने के लिए ही सही इस आन्दोलन में बैनर थामे साथ हो लिए थे।कुछ लड़कियों के आशिक भी अपने दोस्त को साथ लिए मोटरसाइकिल में भीड़ के पीछे पीछे चल रहे थे। बीच बीच में चिल्ला भी रहे थे और अपनी मोबाइल से अपने निशाने पे फ़्लैश भी चमका रहे थे। कुछ पत्रकार भी "मिशन ब्यूटी हंट" की तरह खुबसूरत चेहरों को खोज कर कैमरे में कैद करने की लगातार कोशिश कर रहे थे। उन्हें मालूम था की इन चेहरों को वो पुरे साल तक "फाइल चित्र" बनाकर नारी ससक्तिकरण के नाम पर अपनी बिक्री बढाने के प्रयोग में लाते रहेंगे।शाम ढलने लगी थी तो कुछ लड़कियों के घरवाले भी पहुंचे हुए थे सुरक्षा की चिन्ता से। कुछ अतिउत्साही महिलाएं पुरुष विहीन समाज की कल्पना को जोर दे रही थी। एक महिला ने तो अपने पति को तलाक की धमकी दे डाली थी - ऐसा उसने आगे मैदान में होने वाले नारी संग्राम सभा में भाषण में कहा। संग्राम, लड़ाई, आन्दोलन, उर्जा युक्त नारे और ढेर सारी कहानियाँ। एक महिला ने कहा- "मैं क्यों खाना बनाऊं? किसने कहा की बच्चो के देखभाल की जिम्मेवारी पुरुष की नहीं है? मैं भी अपने पैर पे खड़े होना चाहती हूँ, नौकरी करना चाहती हूँ, मेरे पति को मजबूरन नौकरी छोड़कर घर में बैठना पड़ा और घर का काम अब वो ही करता है". सम्मलेन में तालियों की गूंज हुई। करतल ध्वनि के साथ उत्साह का महासागर उमड़ उठा। एक महिला ने जो पुरुस्हीं की तरह के परिधान में यानी कोट -पैंट -टाई में थी उसने कई सारे उदाहरण गिना दिए, व्यवसाय में महिलाओं द्वारा जड़े गए कीर्तिमान,खेल कूद में जीते गए पदक, विज्ञान और शोध में नए आयाम,सेना,फैशन,क्रिकेट, wwf fighting तक में महिलाओं की भागीदारी और प्रशाशन में भी उनका योगदान या भागीदारी। सच में प्रेरणा दायक। फिर से जोश।मन को सुकून का अहसास तो हुआ। मगर फिर से सवालों के खेप के खेप उतरने लगे मन के आंगन में।
आखिर ये लड़ाई क्यों? बेहतर कौन? क्या सच में दोनों एक सामान हैं? ये संग्राम कहीं अलगाववाद तो नहीं?कम्पटीसन की तैयारी कर रहे एक बेरोजगार ग्रेजुएट ने दुःख भरे व्यंग के साथ कहा-"सोचिये न एक तरफ तो ये सब समानता की बात करती हैं, और दूसरी तरफ आरक्षण भी मांगती है? अगर बराबर ही है तो फिर आरक्षण कैसा??"मैं इसका जवाब सोच ही रहा था कि तभी उस बूढ़े चाय वाले ने कहा-" क्या बाबू?आप लोग तो मेडिकल के विद्यार्थी हैं?आप ही बताइये कि क्या सच में भगवान् ने उन्हें इस तरह संग्राम करने के लिए बनाया है? आखिर इनमे से बेहतर कौन है? क्या शारीरिक ताकत ज्यादा होने से ही पुरुष शासन का अधिकारी हो जाता है? अगर सिर्फ महिलाओं को सारे अधिकार दे दिए जाएँ तो ये पुरुषों का क्या करेगी? क्या अपना अलग थलग समाज या दुनिया बसाएगी या फिर पुरुषों को गुलाम बना लेगी? तो फिर क्या पुरुष ही बच्चे पैदा करेंगे? "
मैं अपना पक्ष निर्धारित नहीं कर पा रहा था। आखिर सच क्या है? आखिर सही कौन है? आखिर आदर्श समाधान क्या है? मैंने अपने असमंजस के भाव को अपने चेहरे से ही स्पष्ट हो जाने दिया।तब उस बूढ़े आदमी ने कहा-" मुझे तो बस इतना पता है कि पुरुष अगर ट्रेक्टर है तो स्त्री कंप्यूटर है। शारीरिक ताकत ज्यादा होने पर ट्रेक्टर खेत तो जोत सकता है, भारी भरकम काम कर सकता है, अपनी विशालता का प्रदर्शन कर सकते है,मगर कंप्यूटर की तरह जटिल काम नहीं कर सकता। मस्तिष्क ज्यादा विकसित है कंप्यूटर का। कंप्यूटर भी चाहे तो अपनी क्षमता पर इठलाये, घमंड करे, मगर वो भी ट्रेक्टर वाले काम नहीं कर सकता ना। अब कंप्यूटर बनाने के लिए भी ट्रेक्टर से कल पुर्जे आते हैं, और ट्रेक्टर बनाने के लिए कंप्यूटर की जरुरत पड़ती है। तो एक दूजे के बिना तो दोनों का अस्तित्व खतरे में है। अब फैसला इन्हें करना है कि ये इस तरह संग्राम कर के अलग अलग रहना और ख़त्म हो जाना पसंद करेंगे, या फिर एक दुसरे के महत्व को स्वीकारते हुए बिना किसी रेस लगाए सहस्तित्व को अपनाते हुए दुनिया को आगे बढाते हैं।"
मैंने भी अपने बायोलॉजी के ज्ञान को खंगालना शुरू किया तो उस बूढ़े आदमी का उदाहरण एकदम सटीक बैठ गया। Biologically ये एकदम परफेक्ट उदहारण है. अगर मुझसे कोई पूछ दे कि लीवर और किडनी में कौन बड़ा है तो मैं क्या जवाब दूंगा? और अगर कोई मुझसे पूछे की दोनों बराबर हैं क्या? तो भी मैं निरुत्तर ही रहूँगा।दरअसल भगवान् ने नारी और पुरुष दोनों को अलग अलग ही बनाया है। और इसके पीछे भी कई प्रयोजन हैं। स्त्री शारीरिक रूप से कोमल है, कमजोर कहना सही नहीं है, मगर जटिल भी है। भावनात्मक रूप से ज्यादा उन्नत है,किसी भी भाव के अभिव्यक्ति कर सकने में ज्यादा सक्षम है। और इसलिए उसे रचनात्मकता में सर्वोतम यानि जीवन की रचना करने की क्षमता और जिम्मेदारी है। पुरुष मांशपेशियों की ताकत से युक्त है,मगर ह्रदय से कठोर।इसलिए रक्षा,शारीरिक परिश्रम या पसीने बहाने वाले कार्य इसके अनुरूप हैं।
और इन दोनों प्राणियों के बीच संतुलन ही मानवता की पहचान रही है। अगर राजनीति,मौकापरस्ती,शक्तियों का दुरूपयोग,स्वार्थ और अंधी दुस्पराम्पराओं को मिटा दें तो फिर शायद महिला दिवस की आवश्यकता न रहे। फिर कोई कुटिल चाल नहीं चली जायेगी। फिर कोई आजादी के नाम पर अलगाववाद की आग नहीं फैलाएगा। फिर कोई बड़ा और बेहतर कौन या समानता जैसे काल्पनिक मुद्दों पे बांटकर संग्राम नहीं करवा पायेगा।
nice one...dear!!
ReplyDeleteसमझ मे आया आज सच्चाई
ReplyDeleteये तुलना जबरदस्त रही। पुरुष ट्रेक्टर तो स्त्री कंप्यूटर। दोनों एक दूसरे का मौलिक कार्य नहीं कर सकते लेकिन एक दूसरे का सहयोग कर के उन्नति की राह पर जरूर जा सकते हैं।
ReplyDeleteज़ोरदार और सशक्त आर्टिकल
ReplyDeleteज़ोरदार और शक्त आर्टिकल
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