Monday, February 25, 2013

एक प्रेम कहानी - a very simple love story


एक प्रेम कहानी - a very simple love story.

[a work of complete fiction, any resemblance is mere a coincident]

         - Dr. Govind Madhaw

आज बारिश के बाद मौसम ने अजब रुख लिया है। सर्दियों में होनेवाली ये बेमौसमी बारिश और दिल में यादों की दहकती आग।

       शाम से बेचैनी महसूस हो रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बेचैनी की वजह क्या है। मगर जब रांची से मेरे दोस्त गोविन्द ने फोन कर उसका जिक्र किया तो समझ में आया। अवचेतन मन उसकी कमी की टीस महसूस कर रहा था। मगर बाहरी मन उसे जबरदस्ती दरकिनार कर आस-पास के वातावरण में अपनी बेचैनी का कोई और कारण  खोज रहा था।


"वो" - चली गयी। मजबूरन। रुक जाती तो क्या अच्छा न होता। कितना अच्छा होता कि हम साथ फिर बैठकर बालकनी में बारिश का मजा लेते। चाय की चुश्कियो के साथ। वो हर बूँद पे कोई न कोई नयी बात कह जाती- मगर मैं तो उसके चेहरे के बदलते भाव को ही पढता रह जाता।वो न जाने किस बात पे हंस रही होती, मुझे खबर कहाँ। मैं तो बस उसकी हंसी को ही निहारता रह जाता। और फिर  जब वो टोक देती मुझे -"कहाँ खो गए इंजिनियर साहब? मैं तो यहीं हूँ?" तो मैं जान बूझ कर कोई बहाना बना देता -झूठा ही, वो भी आसानी से पकड़ा जा सकने वाला।वो समझ कर भी अनजान बनती और फिर खिलखिलाती  हंसी ......अचानक बिजली कडकती  और डर कर वो मेरा हाथ पकड़ लेती ... और अजब सी बिजली मेरे ज़ेहन में भी कड़कती। ओह ...ये ख्वाब भी न ....मैंने अपने महत्वाकांक्षी ख्यालों को झटकते हुए किचेन  का रुख किया।


शाम 7 बजने को है। office से आकर तो ऐसे ही  ख्यालों में गुम  रहा। अब खाने पीने का भी कुछ इंतज़ाम किया जाए। क्या करू, पहले चाय बना लूं क्या? चाय - ओह इस चाय से भी तो मुई कई यादें जुड़ी  हुई हैं उसकी  .....किस किस से पीछा छुड़ाउंगा। उसने चाय  पे बुलाया था मुझे अपने घर। उसके परिवार वाले सब जानते थे मुझे। मैं उस  hydroelectric project का इंजिनियर था। और उसके पापा वहीँ मेरे नीचे काम करते थे। पूरी कोलोनी में मेरा नाम जाना पहचाना था, हालाँकि मेरी उम्र कम होने के कारण  रुतबा थोडा कम था मेरा। घर साधारण था उसका। मगर उसका कमरा सलीके से सजाया हुआ था जहाँ मुझे चाय के बाद ले जाया गया। खिड़की के ऊपर टंगा हुआ था photo-frame और उसके बचपन की तस्वीर लगी थी उसमे। इस तस्वीर पे कई बार हंस चुके थे हम दोनों। और इसके एक कोने पे पेंसिल से चित्रकारी कर दी थी मैंने। उसने इस छेड़खानी  को भी संजोकर रखा था। मेज पर उसीका बनाया गया table cloth लगा हुआ था, बिलकुल वैसा ही जैसा की उसने मुझे gift किया था। हाय  रे उसका भोला मन। और दरवाजे के पीछे देखकर तो मैं दंग  ही रह गया। मेरी दी हुई पहली greeting card. उसमे मैंने किसी का नाम नहीं लिखा था। उस समय मैं इस रिश्ते को लेकर ज्यादा serious नहीं था, इसलिए बस लिख दिया था -" to my friend ". उसने "special" खुद ही जोड़ दिया था। "धत पागल" - मैं मन ही मन सोच उठा। हाँ यही तो अदा थी उसकी। हर बात पे शर्माते हुए कह पड़ती थी - "धत पागल". 


पहली बार उसने अपनी भतीजी के हाथों एक गुलाब भेजा था। करीब 3-4 साल की होगी उसकी भतीजी। मैं अचरज में पड़  गया था, आखिर कौन है जिसने मेरे लिए गुलाब भेजा है। क्योकि मुझे लगता था कि पढने -लिखने के बाद मुझे नौकरी तो मिल गयी है पर प्यार-इश्क ये सब मेरे बस की बात नहीं। ऐसा नहीं है कि लडकियों के सपने मैं नहीं देखता था- पर अपनी below average look और  co-curricular activity zero  होने ले कारण  inferiority complex आते थे मन में। सबसे ज्यादा बुरा तो तब लगा था जब रांची में पढ़ते समय सामने वाले घर की एक लड़की , जो मुझे थोड़ी अच्छी लगती थी, मेरे दोस्त से हंस-हंस कर बात करने लग गयी थी। धीरे-धीरे phone no. exchange हुए, और  एक दिन दोनों पहाड़ी मंदिर जाने का प्लान बना रहे थे मेरे सामने ही।  मैं मन ही मन कुंठित होता था ये सोचकर कि आखिर इतनी कमी क्यों दी भगवान ने मेरे में, कि जिस लड़की के छत पे आने का मैं घंटो इंतज़ार करता था अपना tuition छोड़कर, उसने मुझे आज तक ढंग से देखा तक नहीं। खैर एक वो दिन था और आज ... एक लड़की ने गुलाब भेजा है मेरे लिए। फिर ख्याल आया कि शायद किसी दोस्त की साजिश हो। इस से पहले भी कई दोस्त मेरे excess sensitive nature का मजाक उड़ा चुके थे। कई बार तो नए मोबाइल से प्यार भरा sms कर के उकसाते थे मुझे, और बाद में पोल खुलने पे ...हलाकि सब दोस्त ही थे मेरे।


ओह। हाथ जल गया , दूध उबाल लेने लग गया था. मैं तो यादों में ही खोया रह गया। हाथ पे पट्टी लगा कर चाय ख़त्म की किसी तरह से। फिर देखा राशन का सामान नहीं है। कई दिनों से खुद से बहाना कर कर के टाल रहा था, मगर आज सारे resource ख़त्म थे, समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है। list बनाकर चल पड़ा दूकान की ओर। दरअसल दूकान जाने के लिए उसके घर से होकर गुजरना पड़ता था। और अब उस खाली घर को देखने की हिम्मत नहीं है मुझमें। उसका घर वीरान पड़ा है। घर के बाहर रंगोली बनाई  थी उसने इस दिवाली। ढेर सारे डिजाइनों में से एक चुनना पड़ा था मुझे- आज बड़ा फीका लग रहा है रंगोली का रंग। सिवाय उसके एक फूल के जिसमे उसने अपने नाम का पहला अक्षर लिखा था - "P" यानि पायल। सच पायल की ही तरह खनकती रहती थी वो हरदम। जब वो यहाँ थी-दिनभर में कई बार दूकान के बहाने उधर से गुजरता था मैं और वो घर के बाहर के चबूतरे पर बैठी रहती थी मुझे देखने के लिए।


उस दिन भी तो वो अपनी सहेली के साथ घर के बाहर बैठी थी जब उसकी भतीजी ने गुलाब दिया था मुझे । मैंने एकदम से नहीं पहचाना था उसे। मुझे लगता था कि उसकी सहेली ने गुलाब भेजा है। फिर एक दिन छोटी  लड़की गुलाब के साथ एक कागज भी लेकर आई थी जिसपर लिखा था-" अगर गुलाब पसंद हो तो इस कागज के पीछे अपना मोबाइल नंबर लिख देने की गलती करेंगे क्या? मेरे गुलाब भेजने की गलती के बदले में?" और न जाने मुझे क्या हुआ मैंने अपना दोनों नंबर  लिख दिया बिना कुछ सोचे समझे । और फिर रात में मेरे मोबाइल का दिल गाने लगा- मंगल भवन अमंगल .......मेरे जैसे धार्मिक लोगो का पसंदिदा रिंग टोन। 


"कौन बोल रहा है?"


"रहा नहीं, बोल रही है।"


" हाँ हाँ, कौन बोल रही है?"


" भूतनी। भूतनी ही तो इतनी रात में फोन करेगी। क्यों डर नहीं लग रहा?"


"हाँ। डर तो लग रहा है, पर सोच रहा हूँ इस भूतनी को गुलाब भेजने की क्या जरूरत पड़  गयी?"


" क्यों? भूतनियो का सिर्फ शरीर मरता है इंजिनियर साहब, दिल नहीं।"  

            - और फिर खनकती हंसी के साथ फोन कट गया था। return call किया तो  miss भूतनी  का नंबर  switch off. वाह रे। न नाम , न जान पहचान . मैंने उसका नाम भी 'miss भूतनी' ही  save कर दिया मेरे  mobile में। बाद में जब उसे पता चला था तो खूब हंसी थी। आज भी उसका वही नाम है मेरे मोबाइल में, बस एक फर्क है- उसने खुद बदलाव किया था -" आपकी भूतनी".

और फिर तो हर रात मुझे अपनी इस भूतनी के फोन का इंतज़ार रहता था। रोज ऑफिस से जल्दी आना - जल्दी खाना पीना - और फिर इंतज़ार। वो अब धीमी आवाज़ में बात करती थी क्योकि परिवार के साथ रहती थी न। हम अपने प्रेमालाप को 'फुसफुसी' कहते थे।


रात रात भर फोन पे बात करता तो ऑफिस में नींद तो आती ही। मेरे साथ वाले पूछ भी देते -"residential  quarter  ठीक नहीं है क्या जो रात में नींद पूरी नहीं हो रही है? बोलो तो बदलवा दूं।" मेरा दिल जोर से धड़क उठा था उस अनजाने डर से। मैंने उनकी बात काट दी। और फिर तब से ऑफिस में ही चुप-छुप कर झपकियाँ लेता था। बाकी लोगों  की फुसफुसाहट  मेरे कानो में पड़ती तो मुझे अपनी फुसफुसी की याद आ जाती और उस झपकी में ही मैं सपने देखने लग जाता उस गुलाब भेजने वाली लड़की के। मगर सपने में उसका चेहरा नहीं दीखता था सिर्फ आवाज़ गूंजती थी।क्योंकि अबतक मैंने उसे देखा नहीं था। रोज उसके घर के सामने से गुजरता था मगर घर के बाहर चबूतरे पे छोटी लड़की के अलावा 3-4 लड़कियां और रहती थी।अब इनमे से मेरी भूतनी कौन है ये जानने में मुझे तीन-चार महीने लग गए- जब वो badminton खेल रही थी बाहर में, और उसने फोन कर पर पूछा कि  -" मैं कैसा खेल रही थी?" मैं जान कर खुश था। अब सपने में उसका चेहरा भी आने लगा था। night-talk  की duration बढ़ने लगी। रोज रेकोर्ड टूटते - आज 2 बजे तक, आज 4 बजे तक, आज सारी रात। हालाँकि अगर कोई पूछे कि बात क्या हुई इतने देर तो मैं कुछ भी ना बता सकता। सच में नहीं पता कि हम रात भर बात क्या करते थे- मगर जो भी हो- बात करना अच्छा लगता था।


दूकान पे दुकानदार ने पुछा -"क्या बात है अमित बाबु? बहुत दिनों के बाद आये सामान लेने? लाइए झोला। सामान डाल देते हैं। अरे। ये तो मेहता जी का झोला है। आपको बहुत मानते थे न,शायद इसलिए आपको देकर चले गए ....पूरा कोलोनी उदास  है उनके जाने से। मगर retirement के बाद तो हर कोई अपनी माटी-अपने देश के मोह में बांध ही जाता है। हालाँकि शराबी थे वो मगर फिर भी मिलनसार आदमी थे। उनकी बच्चिया पायल- वो भी बड़ा नटखट थी-....बचपन से ही नाना नाना कहती थी। उसे बड़ा पसंद था ये 'आम कूट  चूरन '....."

 और जैसे कोई मेरे नसों को झकझोर गया हो। मैंने भी एक 'आम कूट चूरन' ली , झोला उठा कर वापस आने लगा। सच में कितनी नटखट थी वो, बच्ची ही  थी या शायद बड़ी होकर भी अपने बचपन को सहेजकर रही हुई थी। मगर दूकानदार ने मेहताजी का जिक्र क्यों किया? कहीं इसे भी हमारे रिश्ते की भनक तो नहीं थी ..और शायद इसलिए मेरी थाह लेना चाह रहा हो? नहीं नहीं। मैंने खुद को ढाढस बंधाया .... शायद झोले को पहचानता होगा- यह झोला पायल का बनाया हुआ था जिसपे बड़ी  खुबसूरत  नक्काशी की थी उसने। दो जोड़ी बनायीं थी।एक मुझे भी दिया था। आज पहली बार झोले को निकला था। हालाँकि मुझे  अपनी इस छोटी गलती पे पछतावा हुआ। पर दुकानदार ने पायल के बचपन के जो किस्से सुनाये - मन के एक कोने  में सुकून का अहसास हुआ। वो नहीं है पर उसकी यादे जुडी हुई है कोलोनी के चप्पे चप्पे से।

"बड़े अजीब आदमी हो आप? मेरा बर्थडे है आज ,और आपने न तो कोई गिफ्ट दिया, न ही हैप्पी बर्थडे बोला और न ही मिलने का कोई प्लान बनाया, कम से कम मिलना तो चाहिए न हमें।"

उस दिन मैं झेप गया था। सच में गलती तो मेरी थी। पर तभी याद आया कि उसने आजतक कभी अपना बर्थडे तो बताया ही नहीं मुझे? तो भला मैं कैसे ...

"वाह जी। इतना भी नहीं पता कर सकते ?"


"करना पड़ेगा। मुझे नहीं पता कैसे? पर करना पड़ेगा। और हाँ आज मेरा बर्थडे नहीं है, ये तो ऐसे ही वार्निंग थी। और हाँ, गिफ्ट के साथ मिलना भी पड़ेगा। कब -कहाँ -कैसे- मैं नहीं जानती। समझे कि नहीं?"


बड़ी मुश्किल आन पड़ी थी। क्या करूँ? क्या जुगत लगाऊं?काफी जद्दोजहद के बाद एक आईडिया आया-उसने बताया था कि उसकी एक सहेली भी engaged है , i mean committed है। हाँ,पायल से बात करते करते कोलोनी के लगभग सभी लड़कियों के  affairs की जानकारी वो भी विस्तारपुर्वक मिल जाती थी मुझे। इतना ही नहीं, औरतों के नाजायज रिश्तो की खबर और पुख्ता सबूत तक मेरे पास थे। कसम से ऐसी बातें तो एक बार सुनकर ही याद हो जाती है भले ही पढ़ी हुई बात न याद रहे। आखिर में उसकी सहेली जो की मेरे गार्ड के बेटे के साथ फंसी हुई थी , को भरोसे में लेकर उसका बर्थडे  पता करना पड़ा।

डेट का तो इंतज़ाम हो गया था, अब बारी गिफ्ट की थी। पहली बार गिफ्ट खरीदना मुश्किल काम लग रहा था मुझे। इसके पहले तो बस दूकान में जाना होता था और-" भैया कोई सा गिफ्ट दे दीजिये, इतनी उम्र के ....के लिए, इतने दाम का,....." और बस बिना देखे ही पैक हो जाता था।लेबल लगा और काम ख़त्म।मगर इस बार परेशानी महसूस कर रहा था मैं। क्या ख़रीदा जाए? एक शो-पीस पर नज़र पड़ी- एक कपल आलिंगनबाद्ध  था। देखकर मन रोमांचित हो उठा था। मगर फिर ख्याल आया की किसी ने देख लिया तो/ दर गया था मैं। कभी कभी रिश्तों को छुपाना भी adventurous काम की तरह मजा देता है। फिर नजर पड़ी एक टेडी-बियर पे। हाँ यही सही है। वह रोज इसे सीने से लगा कर रखेगी। रूमानियत नस नस पे हावी हो रहा था मेरे।मगर वहीँ एक और लड़का जब टेडी-बियर खरीदने लगा तो मुझे अपना ख्याल बदलनापड़ा था। क्यों की मैं औरो से हटकर कुछ अलग करना चाहता था। परेशानी बढती जा रही थी। इस छोटे शहर में भी आशिकों की भरमार है, वाह । प्यार  हर ज़गह मौजूद होता है। और आखिर में फोटो-फ्रेम ....वही जो उसकी दीवार पे लगा था। हालाँकि मैंने सोचा था की बाद में हम दोनों की साथ वाली तस्वीर लगेगी इसमें। लगी भी थी। उसने दिखाया था।उस बचपन वाली तस्वीर के पीछे। मगर फ्रेम में तस्वीर के पीछे छुपकर हमारी तस्वीर लगाने का क्या फंडा था मुझे आज तक नहीं समझ में आया  ......

अब टेंशन था तो मिलने की जगह decide करना। 'डाल्टनगंज ' जैसा छोटा शहर। न रॉक गार्डेन , न नक्षत्र वन , न ही पहाड़ी मंदिर। अब क्या किया जाये।marketing complex भी काफी भीड़ वाले थे। restaurant के नाम पर 'किनारा' और 'मधुवन', मगर लड़की के साथ जाना अभीतक यहाँ के  कल्चर में शामिल नहीं था। लोग अजीब तरीके से घूरते थे। और फिर जान-पहचान वालो के भी मिल जाने का दर रहता था। और आखिर में वही फ़िल्मी आईडिया काम आया था। फिल्म देखने का। 'नवकेतन' में एक पुरानी सी फिल्म लगी थी। बस सेफ प्लेस था। और हम पहली बार इस तरह मिले। 

फिर सरस्वती पूजा का समय आया था। चंदा लेने वालो में कुछ वो लड़के भी थे जो "छैला इंजिनियर " और "परदेशी प्रतियोगी प्रेमी " समझकर मुझे पीटने में शामिल थे। मौके को भांपते हुए मैंने 5001/- रुपये का चंदा दिया। सब अकचका कर रह गए थे। फिर तो मैं बेफिक्र होकर पूजा में भाग ले रहा था। काफी ताबज्जोह दे रहे थे सब लड़के। पैसे की माया का लाइव -डेमो देखकर दुनिया की सच्चाई समझने में मदद मिली थी। कोलोनी में पूजा का आयोजन हुआ था। वो भी आई थी।पूजा में बैठकर भी मैं अन्दर से गुदगुदी महसूस कर रहा था। सॉरी सरस्वती मदर .......


मूर्ति विसर्जन के दिन तो हद हो गयी थी। बैंड बाजे के साथ लड़के नाच रहे थे। मोहल्ले की छतो से लड़कियां देख रही थी। लड़के भी इम्प्रेस करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाह रहे थे। कोई नागिन के स्टेप पे मस्त था तो कोई अपना बॉडी दिखने में। कुछ शराफत का ढोंग रचे साइड में खड़े होकर,दूसरों की बचकानी हरकतों पे मुस्कुराते हुए खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश में लगे थे। और कुछ ज़बरदस्ती ही सामाजिक होकर प्रसाद वितरण कर रहे थे। और मैं? मन ही मन खुश था। " आज रात इन सब की बेवकूफी की बातें होंगी हमारे बीच फोन पे।" मुझे लग रहा था-" मैं तो बिना दौड़े ही रेस  जीत चूका हूँ, ये बेचारे बेकार मेहनत  कर रहे हैं।" दया मिश्रित व्यंग वाली मुस्कराहट छुपाये नहीं छुप रही थी मेरे चेहरे से।



   और फिर होली थी। मैं अपने गाँव में था। उससे दूर। गाँव में माहोल जमा हुआ था। हर रात किसी न किसी के घर होली गाने का कार्यक्रम होता। लोग जमा होते थे। उम्र से भले न सही पर नौकरी के कारन अब मैं भी अपने गाँव का सम्माननिय व्यक्ति बन चूका था- सो लगभग हर रात किसी न किसी घर से निमंत्रण मिलना ही था। होली गाने वालों में एक 'महादेव बाबा' सबसे आगे रहते थे। उम्र करीब 55 साल की होगी, उनकी पत्नी का स्वर्गवास 10 साल पहले हुआ था। और उनका पसंदीदा गाना था-' मोरे बलमा गए परदेश की फगुआ कैसे कटे ......". बार बार बच्चे उन्हें ललकारते थे-" बाबा। उ  वाला गावल जाये न। ओकर बिना तो होली के मजे नइखे .....।" पहले मैं भी लुत्फ़ लिया करता था इन शैतानियों का। मगर इस बार उनकी आवाज़ में दर्द मह्सुस कर रहा था मैं। न जाने क्यों उनकी आँखों में विरह-वेदना साफ़ दिख रही थी। हालाँकि बाकि लोग इस बार भी खुश थे। जैसा की पहले हम सन रहते थे। ये परिवर्तन उन की आवाज़ में था या मेरी सोच में ......शायद मुझ में ही। आखिर मैं खुद के विरह-दर्द को हर जगह मौजूद होता देख प् रहा था। सच में अपने दर्द की अभिव्यक्ति का ऐसा साधन कही और नसीब न था। सब खुश थे- मैं भी मजा ले रहा था -अपने दर्द का और महादेव बाबा भी। प्रेम से कोई भी अछूता नहीं।



घर में रहते हुए बार बार फोन लेकर बहार जाना- कमजोर नेटवर्क का बहाना कर के, मोबाइल की बैटरी ख़त्म होने पे कुछ ज्यादा ही चिंतित होना, रात में अकेले कमरे में सोना, किसी को भी अपना मोबाइल न देना, सब से बाते करते करते कहीं खो जाना ....इत्यादि।ये सब परिवर्तन एकदम नए थे। और अचानक भी। भलेही मैं समझ रहा था कि कोई नोटिस नहीं कर रहा है मगर मुझे छोड़कर सब समझ रहे थे। सब को किस्म किस्म की चिंता हो रही थी। आखिर दीदी पूछ  ही बैठी- क्या बात है? उनके पूछने का तरीका इतना  Supportive था की मैं खुद को रोक न सका।और प्रेमियों को तो मौका चाहिए ....कई दिनों की सीने में बंद हसरत ....की चिल्ला चिल्ला कर सब को बता दूं ....की मुझे प्यार हो गे है ....उस दिन पूरी हो गयी।मगर ये अच्छा नहीं हुआ था। घर में सब को पता चल गया था।, मगर किसी ने कुछ भी नहीं पुछा , सिवाय माँ के जिसने लौटते वक़्त कहा था -"पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन्ने का मतलब ये नहीं होता की आदमी परिवार की इज्ज़त का भी ख्याल न करे। वैसे मुझे पूरा यकीं है तुम पर।" ये इशारो में क्या क्या न कह दिया था उसने। ये OVER-TRUST  दिखावा था/ सच था/ या चाल थी  ......मैं सोचते रह गया था कई दिनों तक।ये एकदम वैसा ही था जैसा पायल ने घर आते वक़्त कहा था-" घर जाकर मुझे भूल मत जाइएगा, बदल मत जाइएगा। वैसे मुझे पूरा भरोसा है आप पर।"


दुविधा ....असमंजस ....PUZZLE .....समस्या ...ऐसे ही नकारात्मक शब्द नाचने लगे थे मेरी आँखों पे।रश्ते  भर, ऑटो में, बस में, ट्रेन में ....पैदल  सामान उठाकर चलते समय ...तब तक, जब तक मैंने उसे दुबारा नहीं देख लिया था। वो इंतज़ार कर रही थी कोलोनी जाने के राश्ते पे ही, अपनी भतीजी के साथ।उसे स्कूल से लेकर आना तो एक बहाना था, ये समझते मुझे देर नहीं लगी थी। उसे देखते ही मेरी परेशानियाँ ख़त्म।कैसा चमत्कार है ...कोई जादू ही है ये प्यार भी।


और फिर उसके घर में भी पता चल गया था। कोलोनी के जलनखोर लड़कों ने उसके पापा यानि मेहता जी को शराब पिला कर सबकुछ बता दिया था। मगर आश्चर्यजनक रूप से वे सब खुश थे। और मेरी दुविधा बढती जा रही थी। मेहता जी ने एक दिन कहा था-" पायल का बी ए का एक्जाम है। अगर शाम में या कभी भी आपके पास टाइम है तो उसे थोडा अंग्रेजी पढ़ा दीजियेगा क्या? .."..मुझे समझ में नहीं आया कि मैं खुश हो जाऊं या डरूं। पायल से मिलने की समस्या का इस से अच्छा उपाय कुछ भी नहीं हो सकता था। मगर मेरे मन में शक के बीज पड़ गए थे। कहीं मेहता जी ने ही तो पायल को नहीं उकसाया था मुझे प्यार में फंसा कर शादी करने के लिए। क्योकि ऐसे किस्से मैं अपने दोस्तों से सुन चूका था।



अब तो सप्ताह के दो तीन शामें  पायल के ही घर में कटती । प्यारी इतनी लगने लगी थी की 'शक' गायब हो जाता मेरे मन से। हमारी बातों के विषय पास-पड़ोस से निकल कर फ्यूचर प्लानिंग तक पहुँच चुके थे। पर अचानक उसने टोक दिया था -"मुझे पता है आप एक दिन छोड़ दोगे मुझे। मैं आपके लायक नहीं हूँ न। उम्र में भी कम हूँ, जात में भी कम हूँ, औकात में भी कम हूँ। आप मान भी गए तो क्या आपके घर वाले राज़ी होंगे? मेरी तरफ से निश्चिंत रहिये। मैं तो घरवालों को मन चुकी हूँ। बड़ी दीदी की शादी में सारी ज़मीन बेचनी पड़ी थी, तो मेरे लिए दहेज़ देना तो पापा के बस की बात नहीं। और इसलिए मैं जिससे मन उससे शादी कर सकती हूँ .....लेकिन समय रहते ....वरना फिर वो जिससे चाहें , बिना न नुकुर किये मुझे बंधना पड़ेगा।"


"तो क्या इसलिए मुझे अपने चक्कर  में फंसाया है तुमने?"


"मुझे पता है कि आप यही सोचेंगे। वैसे भी मेरी बात आपको साजिश लगती है।मगर आप ही बताइए की अगर माँ बाप प्यार का साथ दे दें , तो प्यार झूठा हो गया क्या? अगर मेरे माँ बाप विरोध नहीं कर रहे तो इसका मतलब ये  नहीं की मेरा प्यार झूठा या फरेब है। उनका विरोध नहीं करना उनकी खुली मानसिकता नहीं बल्कि मजबूरी है मिस्टर। .......वैसे एक बात और है कि  कौन  माँ बाप नहीं चाहेगा की उसकी बेटी संपन्न परिवार में जाए?....आप मन भी कर देंगे तो मैं आप पर कोई दबाव नहीं डालूंगी .....मगर याद रखियेगा, मैं किसी और के साथ खुश नहीं रह पाऊँगी ...."


हालाँकि उसकी दलीलों से मैं कमजोर पड़  गया था और आंसुओं को रोकना मुश्किल था ....ढेर सारे वादे मुह से निकलने लगे थे जो भले स्थायी न थे मगर तत्काल दिल  को ठंढक पहुंचाने के लिए काफी थे। कभी कभी झूठी बातें भी खुशनूमा एफ्फेक्ट डालती है और तर्कसंगत भी। भले उसके प्यार पे शक हो गया  था मुझे मगर फिर भी "उसका किसी और के साथ जाना" मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। मैं प्यार करूँ या न करूँ, वो मुझे प्यार करे या न करे, मैं उसे किसी और के साथ नहीं देख सकता। ये over-possessiveness ... . . ....अजीब छ टपटी और बेचैनी .....


"बस और दो महीने। फिर पापा की नौकरी ख़त्म। हम चले जायेंगे अपने गाँव।फिर आपको सताने वाला कोई नहीं होगा। वैसे भी बहूत परेशां करते हैं न हम। आपका बहूत समय बर्बाद किया है मैंने। .....मगर एक request है ....क्या ये आखिरी दो महीने हम पहले की तरह प्यार से बिता सकते हैं? बिना आपके शक के? future  में क्या होगा मुझे नहीं पता मगर present  में खुश रहकर future के लिए मीठी यादों को तो बटोर जा सकता है ना? क्या ये मुश्किल है .....?"



फिर मुझे एक चिट्ठी मिली।

"छोडिये ना। बेकार में tension ले रहे हैं आप। वक़्त है ज़ख्म को भर देता है, समय के थपेड़े यादों को धुंधला कर ही देते हैं। जिस फैसले पर बाद में आपको पछतावा हो उसकी वजह मैं नहीं बनना चाहती। और फिर प्यार का अंतिम aim शादी ही तो नहीं है ना। जरा सोचिये -अगर शादी के बाद भी आपके मन से शक न गया तो क्या हम खुश रह पाएंगे? अगर आपको अपने परिवार से अलग होना पड़े तो क्या मुझे अच्छा लगेगा? फिर तो आप मुझसे भी नफरत करने  लगेंगे, जो मैं कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाउंगी। .....और फिर ठीक ही तो कहा गया है ......

'वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन


  उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
''
"

               .......................



वो चली गयी। मैं कमजोर पड़ गया था। परम्पराओं और जातिवादी बन्धनों के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं कर सका। उसका प्यार झूठा नहीं था। मेरा शक बेवजह था। मैं खुद को कोस रहा था। अब हमारी बात नहीं हो पाती ....उसके गाँव में मोबाइल का नेटवर्क नहीं है। STD बूथ से ज्यादा बात करना संभव नहीं है। खुद को दिलासा देने के लिए कई तर्क सोचता हूँ।" चलो परिवार की उम्मीद तो नहीं टूटी।"


आज बारिश ने जैसे यादों के अंगारों को हवा दे दी है। उसकी आखिरी चिट्ठी मेरे आंसुओं से भीग गयी है। मोबाइल में कैद उसकी ढेर साड़ी तस्वीरों को बार बार चूमने का मन कर रहा है। बारिश तेज है, खिड़की से झोंके  अन्दर तक आ रहे हैं- और मैं भीगता हुआ उसके खाली घर की तरफ देख रहा हूँ। आंसू बारिश में एकाकार हो रहा है। काश की वो होती यहीं कहीं। काश  की मैं माफ़ी मांग सकता अपने शक के लिए।


बिजली कड़क रही है. और उसकी यादों को और मजबूत करते हुए बार बार बस यही सवाल पूछ रही है ---


" सारे लड़कों को सुन्दर लड़की से ही प्यार होता है। लड़का एक लड़की की सुन्दरता की तारीफ में क्या क्या नहीं करता। तो अगर एक लड़की ने ठीक उसी तरह एक पैसे वाले लड़के  से प्यार कर ही लिया तो इसमें क्या बुराई है।"


मगर मर्दों की सोच, पुरुष प्रधान समाज, जाती वादी पुराणी सोच, परिवार, ............न जाने क्या क्या ...?????????????????????????????????????????????????????????


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