Thursday, April 28, 2016

क्या मुझे अपना मोबाइल नंबर मरीजों को बाँटना चाहिए?

अभी ३६ घंटे  की लगातार ड्यूटी कर के लौटा था. थके मन ने खाने की जगह सोने को ताबज्जोह दी. बिखरे  पड़े कमरे में सोने के लिए जगह बनाता  लुढका तो होश ही नहीं रहा की मोबाइल तब से साइलेंट मोड में ही पडा हुआ है. कुछ देर बाद जब आँख खोलने के लायक हुआ तो अँधेरे कमरे में जो पहली जरुरत महसूस हुई वो मोबाइल के टोर्च वाली रौशनी की. ओह! 18 मिस्स्काल्ल्स. और 2 मेसेज भी. और ढेर सारे whatsapp के messages और एक फेसबुक का चैट-विंडो.
पहली जिज्ञासा missed calls की थी. मम्मी के दो थे, उन्हें आखिरी में कॉल बैक करूँगा.  4 मेरे दोस्तों के थे जिन्होंने गेट-together  प्लान किया था. सब पहुँच गए थे मगर मैं....खैर अब इन्हें बाद में समझाया जाएगा. 5 - 6  unknown नंबर्स थे. और बाकी मेरे मरीजों के. शुरुआत उन्ही से की. कुछ ठीक थे, कुछ गड़बड़. कुछ को बुलवा लिया कुछ को यथासंभव फ़ोन पे ही सलाह दे दी. हालाँकि मरीजों को मोबाइल  नंबर देना -पता नहीं कितना सही है. कुछ तो आपकी मजबूरी समझते हैं, समय देखकर कॉल करते हैं वो भी बहुत जरुरी हो तो. मगर अधिकतर तो बिना सोचे समझे कभी भी फोन कर देते हैं. जैसे-
"...आज घर में मटन बना था तो पापा को खिला दे क्या? "
"....आज न मेरी बेटी को बुखार जैसा लग रहा है,क्या करें दिखा दे डॉक्टर से या एक दो दिन इंतज़ार कर ले?आप मुझे नहीं पहचाने,मैं अपनी साली को लेकर दिखाने आया था?"
"....अच्छा आज रांची बंद है क्या? कुछ काम से रांची आना था तो आप रांची में थे न तो सोचे की आप से ही पूछ लें?"
".....अच्छा डॉक्टर साहब आप देखे थे मेरे जीजाजी को तो हम सोच रहे थे की एकबार उनको एम्स में दिखा लें, क्या सलाह रहेगा आपका. मान लीजिये कि आप तो देख हि रहे हैं मगर एक संतुष्टि के लिए.?"
"....वो जो मेरी पडोसी थे जिनको कि हमलोग प्राइवेट हॉस्पिटल में ले गए थे दिखाने के लिए,आपके हॉस्पिटल में AC नहीं था न इसलिए, तो वो वाले डॉक्टर साहेब तो विदेश गए हुए हैं, अभी उनको थोडा सा लूज़ मोशन हो गया है तो सोचे की आपही से पुच लेते हैं,आखिर आपको भी तो इतना नॉलेज तो होगा ही न. न हो तो किसी सीनियर डॉक्टर का नाम बताइए न उन्ही से दिखा लेते हैं?...... "
...
...
और भी इसी तरह के कई वाहियात सी बातें. भाई सरकार हमें फ़ोन उठाने का पैसा थोड़े न देती है. और इस सरकारी अस्पताल में हम बिना फीस के मरीज़ देखते हैं, सांस लेने के लिए भी घडी देखते हैं, उसमे ऐसे फ़ोन कॉल्स...और न उठा पाए तो रोबदार नाराज़गी भी.

Wednesday, April 6, 2016

सुसाइड का फैशन

एक कहावत है-"दिन की शुरुआत अच्छी हो तो दिन अच्छा होता है"
मगर दिन की शुरुआत सुसाइड की खबर से हो तो...?
एक गज़ब का फैशन सा बनता जा रहा है- आत्महत्या या फिर  अंग्रेजी वाली सुसाइड करने का .

अगर मीडिया के बिकते-गिरते नज़रिए पे ज़रा सा भी यकीं कर लिया जाए तो हर आत्मघाती/सुसाइड-कर्मी(!!) को एक शहीद की तरह दिखाया जाता है. और फिर बिना सोचे समझे तुरंत ही एक विलेन ढूंढ  लिया जाता है. असली विलेन चाहे जो भी हो, मगर सुर्ख़ियों के माध्यम से कुख्यात-घृणा पात्र वो विलेन बनता है जिसपे ज्यादा  से ज्यादा TRP बटोरी जा सके. इशारा तो आप समझ ही गए होंगे. प्रेमी,यौन शोषक,पूर्व पति,लिव-इन -रिलेशनशिप वाला यार या फिर ऐसा कोई शख्स  जिसके माध्यम से हम उन सारी संभावनाओं पे खुल कर चर्चा कर सकें जो हमारी कुंठित मानसिकता के बोझ तले दबी हुई दहाड़ने को बेताब रहती है.

क्या सच में सुसाइड करने वाला व्यक्ति इतनी sympathy का हक़दार होता है जितना कि हम बिना कुछ सोचे समझे दे देते हैं?

क्या सही में ये sympathy - हमारी उस अंधी-बहरी मगर आधी गूंगी उस मानसिकता का परिचायक है जिसमे मरने के बाद हर व्यक्ति महान बन जाता है- चाहे वो जीते जी हमारे लिए परम-निन्दनीय क्यों न रहा हो. उदाहरण के तौर पे आप अपने महानतम राजनेताओं को ले सकते हैं जो मरते के साथ ही स्मारक चिन्हों में खुदकर अमर होने लग जाते हैं.

और क्या ये क्षणिक-क्षद्म-ओछी sympathy सुसाइडकर्मी को मरने के लिए और प्रेरित नहीं करता? कहीं न कहीं हर आत्मघाती के मन में यही दबी ख्वाइश रहती है कि शायद उसके मरने के बाद उसकी खामियों को भुला दिया जाएगा और उसके महानता की बातें सब जगह परोसी जायेगी. कम से कम कैंडल-मार्च या शोक सभाओं में तो जरुर उसका गुणगान किया जायेगा. और ऐसी शोक-सभाओं के भव्य -गंभीर आयोजनों का बढ़ता फैशन तो और अधिक इनके सुसाइडल tendency को प्रोत्साहित करता है.

सुना है isis के लड़ाके  भी सुसाइड बॉम्बर इसी भुलावे में बनते  हैं कि मरने के बाद जन्नत में उन्हें....और उनके परिवार को......क्या उनके लिए भी हम वही नजरिया रखते हैं?
और फिर राजस्थान की सती-प्रथा के सुसाइडल-legacy को आप किधर रखते हैं?
और क़र्ज़ में डूबे किसानो की आत्महत्या वाले पीपली-लाइव के चरित्र पे होने वाली राजनीति भी एक अलग ही फिलोसोफी दिखाती  है जिंदगी की .

और "शंघाई " फिल्म का वो बेचारा छला हुआ सुसाइडकर्मी जिसे आत्मदाह के प्रयास मात्र के लिए पैसे का लालच दिया गया था इस भरोसे के साथ कि  उसे हर हालत में बचा लिया जाएगा, मगर मीडिया और एडवेंचर देखने के पिपासु आँखों के सामने उसे जल कर पकने  के लिए छोड़ दिया जाता है अपनी पोलटिकल लिट्टी के लिए चोखा-भरता  सेंकने के लिए.