पटाखे और प्रदुषण : संभव
है अगले कुछ दिनों में यह टॉपिक स्कूलों में निबंध का विषय बन जाये. जाहिर सी बात है
लोगो के नजरिये अलग अलग होंगे और फिर उनके बच्चो के नजरिये भी उसी तरह के होंगे. कुछ
कान्वेंट और मदरसे वाले स्कूलों में टॉपिक जरा बदला सा होगा- 'दिवाली और प्रदुषण'. वहीँ कुछ संघी स्कूलों
में 'दिवाली और पटाखे' सरीखे टॉपिक पे वाद-विवाद के आयोजन भी होंगे
जिसमे कुछ पक्षधर होंगे तो कुछ रविश कुमार के फोलोवेर्स.
अभी अभी दिल्ली से लौटा हूँ. और इस सच को अच्छी तरह से महसूस
कर के आया हूँ कि वाकई दिवाली की रात लोगों ने हवाओं में खूब जहर घोला है. इतना जहर
कि उस रात के बाद से दिल्ली की फिजाओं में बस धुआं और अँधेरा बिखरा है. जाने कैसी रौशनी
फैला रहे थे लोग. प्रकाश पर्व में कब 'धुआं
और ध्वनि' सम्मिलित
हो गए यह तो इतिहासकारों के शोध का प्रश्न है- अलग बात है इतिहासकारों की भी आजकल जमात
होती है,कुछ कम्मुनिस्ट तो कुछ सेक्युलर और कुछ देशभक्त.
खैर सिर्फ सवाल उठाना मेरा मकसद नहीं है, सिर्फ
सवाल करने के लिए तो कई सारे लोग आपके इर्द गिर्द हैं. जिनका काम हर एक सेकंड सिर्फ
सवाल करना है. और सवाल न मिले तो यह भी एक सवाल बन जाता है. और फिर आता है- #बागोमेंबहारहै?
आइये न हम इन सवालों के जवाब ढूंढे? हां! अगर
आप सच में बागो और बहारो के शौकीन हैं, तो आइये न दो कदम चलते हैं साथ साथ...जवाब तलाशने
के लिए.
१.
#पटाखे: हमें इनकी क्या जरुरत है? बेमतलब अचानक से चिल्ला
देने वाले, गम हो या ख़ुशी- बस एक ही तरह के आवाज़ निकलने वाले ये क्या हैं? ख़ुशी
तो हमारे नज़रिए में होती है. हमारे इतिहासों में तो धमाकों का जिक्र बस युद्ध-कथाओं
में मिलता है. ख़ुशी के आयोजनों को मिनी-युद्ध की शक्ल देनेवाले, हादसों
को आमंत्रित करने वाले,
मेरे जैसे कमजोर-दिल वालों को डरपोक साबित कर हंसी का पात्र
बना देने वाले,
किसानो के इस देश में पुवालो-खलिहानों में चिंगारी देकर सब बर्बाद
कर देने वाले,हवाओं में जहर घोलने वाले, बाल-श्रमिकों के सबसे लम्बी फौज खड़ी करने वाले, प्रदुषण जैसे शब्द को हज़ार गुना
महिमामंडित करने वाले,
भारत-पाक क्रिकेट में देशभक्ति और देशद्रोह वाले मोहल्ले का
पैमाना बनने वाले,
न्यू-इयर में चाइना और लन्दन से तथा क्रिसमस में रोम से आतिशबाजी-कलाबाजी
की तरह लाइव होनेवाले ये!!पटाखे क्या हमारे लिए इतना जरुरी हैं?
क्यों न सरकार और समाज के द्वारा पटाखों और इसी की
तरह बेमतलब के शोर करने वालो और ध्वनि-धुआं-ध्यान-और हमारी सोच को प्रदूषित करने वाली
हर चीज़ पे बैन लगा दिया जाए. जैसे कि कुछ राज्यों में शराब पे बंदी है, क्यों
न पुरे देश में पटाखों पे ही पाबन्दी हो. #पटाखोंपेपाबन्दी
२. #स्मोकिंग: दिवाली और प्रदुषण में फिलोसोफी
झाड़ते लोगो को सुना. दिल्ली में ही सुना. चाय पे चर्चा करते देश के होनहारो को भी सुना
और उनके सामाजिक सरोकारों को भी. मगर ये मोदी
वाली चाय पे चर्चा नहीं थी. ये थी #चाय सुट्टे पे चर्चा . जितना
प्रदुषण ये पटाखे से कम करना चाह रहे थे, इनकी चर्चा लम्बी होती जा रही
थी और उतनी ही बढती जा रही थी सुट्टे/सीगेरेट के खपत. यकीं मानिये दस मिनट में माहौल
ऐसा कि मुझे मास्क लगाना पड़ गया. और मेरी सवाल पूछने के लिए ही सही मगर आवाज़ निकालने
की हिम्मत नहीं हुई. अस्थमा ने भी मौका देखकर अपना अनशन तोड़ लिया था.
३.#ट्रैफिक: वो अमीरी ही क्या जो दुनिया को
ना दिखे. दिल्ली में मर्सिडीज़, पोर्स्च, स्कोडा, bmw और भी
कई तरह के ब्रांड ....सब रोड में चहलकदमी करते हैं...मगर उनमे सवारी सिर्फ एक. बाकी
की सीट खाली. बाइक से ज्यादा कार यही पे दीखते हैं. हमारे रांची में तो यह अनुपात उल्टा
है. मतलब सिर्फ शौक और दिखावे के लिए अपने पिछवाड़े से लगातार हवाओं में धुआं छोड़ने
वाली ये आदत क्यों?
क्या मेट्रो-बस-पब्लिक ट्रांसपोर्ट और साइकिल जैसे option पे विचार नहीं होना चाहिए. सोचिये?
४. बाकी की सवालों को लिखने का एक ही मतलब है की आप बिना पढ़े
उसे या तो like
करेंगे या discard. अतः अपने शब्द बर्बाद कर
के वैचारिक प्रदुषण फैलाने के मेरा कोई इरादा नहीं है. एक और आग्रह है उनलोगों से जो
फेसबुक पे एक बार में 20-25
photo अपलोड करते है, जिनमे एक ही photo के तीन-चार नमूने होते हैं. तो जनाब इन तस्वीरों को कोई नहीं देखता, क्योंकि ना तो किसी के पास बेकार समय है ,ना ही डाटा....यह बल्क-अपलोड भी एक तरह का प्रदुषण
ही है.#photopollution, #डाटाpollution.