Tuesday, September 5, 2017

ल. प्रे. क 07: पिछली सीट की सवारी


तुम्हे याद है जब हम बाइक से शहर का चक्कर काट रहे थे, हलकी बारिश का लुत्फ़ लेते हुए. बहुत लगाव था ना तुम्हे इस शहर से. अक्सर अनजानी गलियों में यादों को तलाशते हुए घुस जाया करते थे तुम, अपने भीतर के कोलम्बस को ढूंढते हुए. अजनबी फूटपाथ वाले से कुछ खरीदना तो एक बहाना होता था, तुम्हे तो उसकी चादर नुमा बिखरी दूकान के पीछे की जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी होती थी. कई बार मैं irritate भी हो जाती थी- “ये पागलपन वाले काम अकेले में किया करो. हर बार मुझे साथ घसीटने की क्या जरुरत?”
और तुम्हारा वही जवाब- “मैं क्या हूँ यह मैं बता नहीं सकता. बस मुझमें से होकर गुजरने का मौका दे सकता हूँ.”

शहर के पुरबी छोर में चौराहे के बगल में बैठी वो सब्जी बेचने वाली बुढ़िया याद है? चाय की चुस्कियों के साथ उसे ऑब्जर्व करते हुए बोल रहे थे तुम – “इसके घर में दो से अधिक आदमी नहीं होंगे, क्योंकि इतनी सब्जियां बेचकर ही इसके चेहरे पे संतुष्टि के भाव हैं. अब ग्राहक का इंतज़ार नहीं कर रही वो, इसने आज के लिए पर्याप्त सौदा कर लिया है. इसकी नज़रों में देखो. ये सड़क के उस छोर की तरफ देख रही है बार-बार, जिधर से ग्राहक नहीं गाड़ियाँ आती हैं. तेज़ होती बारिश इसके माथे पे चिंता की लकीर खिंच रहे हैं जबकि इसकी दुकान ऊँचे जगह पे एकदम शेड में है, यानि कोई आ रहा है जिसके भीग जाने का डर है. मंदिर में आरती शुरू होते ही उसने अपनी गठरी समेटना शुरू कर दिया, यानि अब उसके आने का समय हो गया है. वो देखो पोटली में पैसे किस तरह बांध रही है, मगर आँचल में नहीं बांध रही, शायद किसी को सौंप देगी अपनी कमाई. मगर जिस लगन से पोटली लपेट रही है, किसी अपने को ही देने वाली है, जो इसके दिल के बेहद करीब है, वरना दुसरे को अपनी कमाई देते समय अमूमन लोगों में थोड़ी हिचकिचाहट होती है.....”
अब बस भी करो मेरे शर्लाक! मैंने टोक दिया था तुम्हे.
फिर हमने जाते हुए देखा था उन दोनों को- सब्जी वाली बुढ़िया और उसके रिक्शाचालक प्रेमी को. वह प्रेमी अपनी प्रेमिका को रिक्शा की सवारी करते हुए वैसा ही महसूस कर रहा था जैसा तुम अपनी नयी नयी बाइक में मुझे बैठा कर. जैसे दुनिया की सबसे खुबसूरत लड़की तुम्हारे साथ है. लोगों के बीच में रफ़्तार धीमी कर उन्हें जाताना कि तुम्हारे पास भी.....और फिर बयार के संग किसी नगमे को होठों पे थिरकाते हुए, मेरी तरफ मुस्कुराती निगाहों का फेरना. मैं शरारती लहजे में कहती कि आगे देख लो किसी को चोट ना लग जाए.
लेकिन जो तुम कभी नहीं देख पाए कि आखिर उस बुढ़िया के मन में क्या भाव थे? ठीक वैसे ही जैसे तुम कभी नहीं समझ सके कि तुम्हारे बाइक की पिछले सीट की लगभग परमानेंट सवारी बन कर मुझे कैसा लगता था.
आज मैं वहीं खड़ी थी. मेरे पति को सिगरेट खरीदना था.

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