“पति से प्रेम? कैसा
प्रेम? कहाँ से लाऊं मैं प्रेम? अभी तो शादी के चार ही महीने हुए थे. ठीक से इस
आदमी को समझ भी नहीं पाई थी कि सड़क दुर्घटना ने उसके नाभि से नीचे के शरीर को
बेजान कर दिया था हमेशा के लिए. रीढ़ की हड्डी टूटी और छूट गया शरीर का दिमाग से
रिश्ता. अब पांव ना तो हिलते हैं ना ही मच्छर के डंक ही महसूस करते हैं, मगर मुंह
और पेट तो अपना काम किये जाते हैं.” नफरत-गुस्सा-घृणा जैसे भावों को छुपाने और
मल-मूत्र के दुर्गन्ध से बचने के लिए एक हाथ से चेहरे पर रुमाल पकडे, दुसरे हाथ से
बिस्तर से चादर खींचती वह युवती सोच रही थी.
“वह पति है भी तेरा?
ना आर्थिक ना ही शारीरिक या मानसिक सुख या सुरक्षा दे पायेगा तुम्हे कभी! तो फिर
क्यों रखना उसके नाम से सूत्र-सिंदूर और शील?” अधेड़ ने सहानुभूति के बहाने युवती
के मन को अनाथ घोषित करते हुए, तन पर अधिकार मांगने की जल्दबाजी दिखा दी थी. मगर
एक दूसरे नवयुवक पडोसी ने धैर्य का परिचय दिया और युवती के ह्रदय में स्नेह के बीज
डालने में सफल हुआ. अधेड़ अब अपनी असफलता छुपाने के लिए युवती को चरित्रहीन साबित
करने में लग गया था.
मर्दानगी से हाथ धो
बैठा पति अब और अधिक गुस्सैल, शक्की और चिड़चिड़ा हो गया था. सेवा में जरा सी चूक पर
चिल्लाता, युवती के माँ-बाप से शिकायत करता, घर आये मेहमानों के बीच उसका मजाक
उडाता और सती-सावित्री-अनुसूया के चित्र दीवारों पर लगवाता. युवती को अब इस अभागे
पति पर दया आने लगी थी. मगर प्रेम?
“क्या वह आदमी जो
तुम्हारा पति है, ठीक वैसे ही तुम्हारा ख्याल रखता, जैसा कि वो तुमसे चाहता है अगर
उसकी जगह तुम ऐसे आधी-लाश बनी होती? उसकी नरक जैसी जिंदगी के लिए तुम तो जिम्मेदार
भी नहीं हो.”- नवयुवक ने युवती के तन-मन की प्यास को भांपने की कोशिश को जारी रखा.
इस दुनिया में सभी
स्वार्थी हैं, और उसने इस सच को जान लिया है-ऐसा सोचने से उसने खुद के अपराधबोध को
कम होता पाया. आईने में अपनी कम उम्र को निहारने के बाद युवती ने भी अपना पाशा
फेंका- “यह जानते हुए भी कि मैं विधवा जैसी हूँ, सिर्फ मेरे प्रेम की खातिर तुम
मुझसे विवाह करने को तैयार हो?”
“हाँ! मगर तुम्हे
मेरे साथ चलना होगा. और तुम विधवा नहीं हो, तुमने शायद पहली बार किसी से प्रेम
किया है, हम आज से किसी दुसरे शहर में अपने नए जीवन की मधुर शुरुआत करेंगे.
तुम्हारे पहले पति को तो वैसे भी पत्नी की नहीं बल्कि एक सेविका की जरुरत है जिसका
इंतजाम मैंने कर रखा है, ताकि तुम्हारे दिल पर बोझ न पड़े.” गाडी में सामान लादते
हुए नवयुवक ने युवती के आँखों में अपनी परिपक्वता के लिए सम्मान देखना चाहा.
अच्छा मैं अभी आई-
कहकर युवती घर के अन्दर गयी.
युवती की योजना से
अनजान पति उसे देखते ही फुट-फुट कर रोने लगा- “कहाँ चली गयी थी मुझे छोड़कर तुम
इतनी देर से? कब से गीले बिस्तर पर पड़ा हुआ मैं इंतज़ार कर रहा था!” लाचारी और
निर्भरता के कारण, कुंठा और समर्पण ने उसके शर्म और गुस्से का स्थान ले लिया था.
अब उसकी आँखें उस बछड़े की तरह लबालब थी जिसकी मां अभी अभी चर कर जंगल से वापस आई
थी.
युवती ने तब अपने
पति में एक मासूम बच्चे को देखा. उसने खुद के हृदय में ममता के समंदर को उमड़ते
हुए महसूस किया. अथाह प्रेम से निकले आंसू उसके अपराधबोध को बहा ले गए थे. खून में
बढ़ते ऑक्सीटोसिन ने एस्ट्रोजन को कम करना शुरू कर दिया था.
दरवाज़े पर खड़े
नवयुवक ने युवती के आँखों में अपने लिए तिरस्कार और घृणा के भाव देखे.
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