छुट्टियों
के बाद घर से लौटना।
लगभग
हर शख्स आज परमानेंट एड्रेस और कोरेस्पोंडेंस एड्रेस की दूरियों में बंट गया है।
सफ़र के पहले हिस्से में जेहन में तैरते हैं
छुटते लम्हे, पड़ोसियों की बतकहियों का विश्लेषण, इस साल त्यौहार के रंग-उमंग में
आये फर्क, मोहल्ले में बन गयी नयी सड़क, अचानक से मुछ-दाढ़ीवान हो गए बच्चे, ओढ़नी
सम्हालती ट्यूशन को जाती सहेलियों की टोली, पिछली पीढ़ी के टीचर और उनके इंजिनियर
होते बेटे, मगर अब भी वैसी की वैसी पड़ोस वाली विधवा बुआ की बुरी लगने वाली बातें
और अलग शहरों में बिखर गए स्कूली दोस्तों के कारनामे. चलती गाड़ी की खिडकियों से झांकते
हुए विचारक बनने का सुख भी प्राप्त होता है और सब कुछ बदलने के प्रण लेता खुद में
छुपा एक क्रांतिवीर भी झांकता है कुछ देर के लिए.
मगर दुसरे हिस्से में!
फिर वही खीच-पीच, कीच कीच!
असाइनमेंट्स, क्लास.
अटेंडेंस, मार्क्स.
ड्यूटी, नौकरी.
बॉस, सैलरी.
सिग्नेचर,फाइल.
फेक स्माइल.
टैक्स, किराया.
ट्रैफिक, पराया...
फिर वही खीच-पीच, कीच कीच!
असाइनमेंट्स, क्लास.
अटेंडेंस, मार्क्स.
ड्यूटी, नौकरी.
बॉस, सैलरी.
सिग्नेचर,फाइल.
फेक स्माइल.
टैक्स, किराया.
ट्रैफिक, पराया...
मगर दोनों वेरिएबल हिस्सों में जो कांस्टेंट होता
है हमेशा- इयरफोन और रोमांटिक गाने के साथ गुनगुनाती तेरी याद.
छुट्टियों
के बाद घर से लौटना।
मैं
भी तो परमानेंट और कोरेस्पोंडेंस एड्रेस के बीच झूलता हूँ. मगर चाहता हूँ कि दोनों
एड्रेस पे पहुँचने वाली मेरी चिट्ठियां तुमसे होकर गुजरे.
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