Sunday, June 3, 2018

घुटने का दर्द

घुटने के दर्द से हर घर में कोई न कोई परेशान है. हर कोई चाहता है इससे मुक्ति. कोई बाबा वैद्य की शरण में जाकर तो कोई तेल मालिश कर के राहत की राह तक रहा है.

आखिर होती क्यों है घुटने में समस्या?
क्या इससे बचा जा सकता है?
क्या इसे जड़ से ठीक नहीं किया जा सकता?
हज़ारों सवाल सब के मन में...

पढ़िए अमेरिका से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका सेतू में डॉ Govind Madhaw का यह आलेख. अगर आप के परिवार या जान पहचान में कोई घुटने की समस्या से ग्रसित है तो आप उनका इलाज़ तो नहीं कर सकते लेकिन सही जानकारी और सलाह से मदद जरूर कर सकते हैं. उन तक जरूर पहुंचाए इस आलेख को.

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ढलते उम्र की निशानी समझे जाने वाली इस बीमारी को लेकर काफी शोध हुए। शोधकर्ताओं को एक बात समझ नहीं आ रही थी कि अगर यह बुढ़ापा का एक लक्षण मात्र है तो फिर हर किसी को क्यों नहीं होता? किसी को कम उम्र में ही तो किसी को बहुत बाद में क्यों? किसी को हलकी फुलकी परेशानी तो किसी को इतनी असह्य पीड़ा कि चलना फिरना भी मुश्किल? किसी को मामूली दवाई से ही राहत तो किसी को ऑपरेशन की नौबत क्यों? इन सवालों के जवाब जानने के लिए हमें एक और मेडिकल टर्म को समझना होगा - ‘रिस्क फैक्टर’।

‘रिस्क फैक्टर’ यानि वे कारण जिनके मौजूद होने से किसी व्यक्ति में खास बीमारी के होने का खतरा बढ़ जाता है। ओस्टियो-आर्थराइटिस के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले रिस्क फैक्टर्स हैं - बढ़ा हुआ वजन, नित्य व्यायाम की कमी, मॉडर्न लाइफस्टाइल, धूम्रपान, खाने में पोषक तत्वों की कमी, किसी भी दुर्घटना से लगने वाली चोट, बेडौल जूते, असामान्य चाल और कुछ वैसे काम जिसमे घुटनों पर ज्यादा भार पड़ता है। इनमें से सबसे अधिक दुष्प्रभाव डालने वाला कारण है वजन। ऐसा हो ही नहीं सकता कि प्रौढावस्था को पार कर रहे या पार कर चुके, मोटापे के शिकार व्यक्ति को घुटने में परेशानी न हो। हालाँकि कभी-कभार छरहरे बदन के व्यक्ति में भी ओस्टियो-आर्थराइटिस हो सकता है तभी जब उस व्यक्ति में अन्य रिस्क फैक्टर्स भी मौजूद हों।

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घुटने का जोड़ ‘फीमर’ और ‘टिबिया’ नाम की दो हड्डियों के मिलने से बनता है। साथ लगे चित्र में आप देखें कि ऊपर फीमर और नीचे टिबिया है। लेकिन दोनों हड्डियाँ एकदम से सटी हुई नहीं हैं। दोनों के बिच में गैप है, इसे ‘जॉइंट-स्पेस’ कहते हैं। इस स्पेस में एक खास तरह का लुब्रिकेंट भरा हुआ होता है जिसे ‘साइनोवियल-फ्लूइड’ कहते हैं। हड्डियाँ, मांसपेशियाँ और साइनोवियल द्रव- ये सब मिलकर किसी हाइड्रोलिक सिस्टम की तरह काम करते हैं। यानी शरीर का बोझ सीधे एक हड्डी से दुसरे हड्डी पर नहीं जाता बल्कि ऊपर वाली हड्डी से बीच में स्थित द्रव पर और तब नीचे वाली हड्डी पर पड़ता है। इस व्यवस्था से एक तो घर्षण कम होता है, दूसरा हड्डियों को पोषण भी मिलता रहता है और उनमें होने वाली मामूली टूट-फ़ूट की मरम्मत भी होती रहती है।

अब जरा सोचिये कि अगर किसी व्यक्ति का वजन बहुत बढ़ जाए तो घुटनों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या सीमा से अधिक बोझ पड़ने पर भी यह हाइड्रोलिक सिस्टम ठीक से काम कर पायेगा? क्या दोनों हड्डियों के बीच का जॉइंट-स्पेस यथावत बना रहेगा या कम होता जायेगा? क्या हो अगर यह स्पेस काफी कम हो जाये जिससे ऊपर और नीचे की हड्डियाँ काफी नजदीक आ जाएँ और आपस में टकराने लगें? क्या तब भी घुटनों पर होनेवाली हरकत (मूवमेंट; घुटनों का मुड़ना या सीधा होना) स्मूथ बनी रहेगी या घर्षण के कारण बाधित या सीमित होने लगेगी? क्या धीरे धीरे जॉइंट्स स्पेस में मौजूद सिनोविअल द्रव कम नहीं होने लगेगा? क्या अब घर्षण के चलते हड्डियाँ आपस में रगड़ खा कर घिसने-टूटने नहीं लगेंगी?
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सेतु मई अंक

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