हिन्दू धर्म ग्रंथों का संक्षिप्त इतिहास -डॉ.गोविन्द माधव
हिन्दू धर्म ग्रंथो का पुराना इतिहास रहा है.
स्वर्णिम भारतीय इतिहास की स्वर्णिम गाथा रूपी हैं ये धर्म ग्रन्थ.सदियों से मानवता के पथ प्रदर्शक.जीवन और समाज को ओजस्वी,सकारात्मक और विकासवादी बनाने को प्रयासरत हमारा वांग्मय.
रचना काल की दृष्टि से देखें तो करीब १० हज़ार साल पुराना हमारा ऋग्वेद ...तत्पश्चात अन्य वेदों की रचना हुई. फिर मनीषियों ने रचा उपनिषद. ये उपनिषद स्मृति भी कहे जाते हैं.इनकी रचना का मुख्या उद्देश्य वेदों के रिचाओं की विस्तृत व्ताख्या करना था.
ऋग्वेद में विराजमान है प्रकृति रूपी इश्वर के विभिन्न रूपों की स्तुति करते मन्त्र. और बहुत ही सौंदर्य के साथ पिरोये गए राजा और प्रजा के कर्तव्यों का वर्णन. सामवेद में इन रिचाओं के सटीक उच्चारण और पाठ का वर्णन है.अथर्ववेद में यज्ञों के नियम और कर्मकांड का वर्णन है, और यजुर्वेद में भी कमोबेश ऐसे ही प्रावधानों का.....यह बताना जरुरी है की आर्यों की सभ्यता में अब तक राम,कृष्णा,रामायण,इत्यादि कथानको का कोई वर्णन नहीं मिलता है, बल्कि प्रकृति को ही सर्वमान्य ब्रह्म की सत्ता के रूप में पूजा गया है.वेदों के अन्य नाम भी प्रचलित है जो कभी कभी दुविधा की स्थिति उत्पन्न करते हैं, जैसे-ब्राह्मण,अरण्यक,वानप्रस्थ,श्रुति,ऋचा इत्यादि.
तत्पश्चात रचे गए उपनिषदों में एक एक ऋचा का सविस्तार वर्णन मिलता है. उपनिषदों को वेदान्त भी कहा गया है.मुक्तोप्निषद में उपनिषदों की संख्या १०८ बताई गयी है. उपनिषदों की वास्तविक संख्या कितनी है यह एक विवाद का प्रश्न है. कई विद्वानों ने लगभग ३६ मुख्य उपनिषदों की उपस्थिति पे एक समुचित विचार बनाया है...इन उपनिषदों के नाम इनके रचनाकार ऋषियों के नाम पे है जैसे-कठोपनिषद, मनुस्मृति, अत्रेयुप्निषद , बृहस्पति उपनिषद, प्रश्न , मंडूक, केन, इश, ऐतरेय, छान्दोग्य..... इत्यादि. सभी उपनिषद एक ही रचना काल के नहीं है, बल्कि अलग अलग समय में लिखे गए है, इसलिए भी इन्हें आर्य सभ्यता के क्रमिक विकास और इतिहास का साक्ष्य माना जा सकता है, उनमे वर्णित राजा के कर्त्तव्य, समाज के विभिन्न वर्गोके स्थिति का वर्णन हमारे उद्दात सनातन सभ्यता के स्वर्णिम इतिहास की दर्शाता है...
कालांतर में आमजनों की धार्मिक आकाँक्षाओं की परिपूर्ति हेतु कई पुरानो की रचना हुई.
ये १८ पुराण मूलतः कथा संकलन है, इनमे कथा के माध्यम से जीवन मूल्यों का ज्ञान आम जनता को दिया गया है.....एक मत यह भी है की ये पुराण एक देव इष्ट को सर्वश्रेष्ट मानकर लिखे गए हैं....या फिर एक इष्ट को मानने वाले समुदाय ने अपने इष्ट के गुणगान वाले कथाओं के संकलन को प्राथमिकता दे दी....ध्यान रहे अबतक लिपि का प्रयोग नहीं था....सब कुछ बस श्रुति और स्मृति के रूप में ही एक पीढ़ी से दुसरे पीढ़ी में प्रदान किया गया है .अतः अशुद्धि की संभावना या फिर मूल रूप से बदलाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. भारतवर्ष के विभिन्न भागों में एक ही ग्रन्थ के अलग अलग संकलन , अलग अलग श्लोक विन्यासों का मिलना इसी बात का समर्थन करता है. ये पुराण हैं... विष्णु, गरुड़, मत्स्य, मार्कंडेय, वराह, वामन, शिव, स्कन्द, लिंग, अग्नि, ब्रह्माण्ड, भविष्य, भागवत,कुर्म आदि.
कहीं कहीं १८ उप पुराण के नाम भी मिलते हैं.मगर महाभारत को महापुराण का दर्ज़ा प्राप्त है. और इसे पंचम वेद भी कहा गया है. यह भी वर्णित है की"जो महाभारत में नहीं है, वो पुरे भारत में नहीं है"
बीच का काल कई व्याकरण सूत्रों, पाणिनि,पतंजलि इत्यादि ग्रंथो का रहा है.
प्रथम महाकाव्य होने का श्रेय आदि काव्य वाल्मीकि रचित रामायण को जाता है.
भगवान् राम के कृत्यों का बखान करते मर्यादा पुरुषोतम की छवि जनमानस में स्थापित करने में यह काव्य अत्यंत सफल रहा.और राम भक्ति की गंगा तदनंतर लगातार प्रवाहित होती रही.
रामायण के लिखे जाने के करीब १५०० साल बाद महाभारत का रचना काल माना जाता है.यह बात ध्यान देने की है कि- ग्रंथों के रचना काल से इनमे वर्णित घटनाओं के रचनाकाल का अंदाज़ा लगाना एक भयानक त्रुटी होगी. क्योकि लगभग सभी घटनाओं का वर्णन पूर्व रचित पुरानो में पहले से ही वर्णित है. रामायण और महाभारत तो बाद में लिखे गए महाकाव्य हैं.जिनमे कवी के विद्वता और भक्ति का पूट मिलता है.
ततपश्चात संस्कृत भाषा का लोप होने लगता है. भारतीय जनमानस की लोक व्यवहार की भाषा के रूप में पाली और फिर प्राकृत भाषा का स्थान आ जाता है.पाली में जैन धर्माव्लाबियों के ग्रन्थ लिखे गए हैं और प्राकृत में बौद्ध धर्म ग्रन्थ. हाँ संस्कृत काव्य जैसे कालिदास और भात्र्हरी आदि के मनमोहक संस्कृत महाकाव्य इस दौर में भी लिखे गए मगर राजदरबारो के संरक्षण में.अतएव इनमे राजाओं के चरित्र चित्रण आधिक हैं.
फिर अपभ्रंश भाषा के बाद अवधि और व्रज भाषा ने साहित्य को जिन्दा रखा. और फिर तुलसी के मानस, सूरदास के सूरसागर और रहीम कबीर के दोहे......
इतने लम्बे इतिहास में असंख्य ग्रंथों की रचना हुई, मगर तीन ही ग्रन्थ उपजीव्य काव्य के अंतर्गत रखे गए हैं. रामायण,भागवत और महाभारत. इनमे रचनाकारों ने चरित्रों के जीवन शैली और घटनाओं का जो सजीव और अद्भुत वर्णन कर दिया-वह हज़ारो सालो तक बुद्धिजीवियों के बीच नयी रचना का प्रेरणा श्रोत बना रहा...और आज भी रोज़ ही न जाने कितने ही काव्य,आलेख,निबंध इन्ही तीनो में से किसी दृश्य,घटना या विचार को मूल मानकर लिखे जा रहे हैं. शायद इसका श्रेय कहीं न कहीं इन सब में सामान रूप से व्याप्त कुछ विवादित अंशो को जाता है. जैसे केवट प्रसंग हो या अशोकवाटिका प्रसंग, सीता की अग्नि परीक्षा हो या,राम का वनवास,कैकेयी का चरित्र हो या भरत का राज्त्याग,उर्मिला का चरित्र हो या जानकी का. इसी प्रकार व्रज की गोपियों का परित्याग कृष्ण के द्वारा हो या फिर द्रौपदी का चीर हरण या कृष्णा का छल का वर्णन महाभारत में, या फिर अहल्या इत्यादि....न जाने कितने प्रसंग ऐसे है जो सदियों से बुद्धिजीवियों के मानस पटल पे अनेको आकर प्रकार ग्रहण करते हैं ,नए प्रश्नों को गढ़ते हैं,संवेदनाओं को झकझोरते रहे हैं.
शायद ये अंश जानबूझ कर इन ग्रंथों में समाहित किये गए हैं ताकि समय समय पर जनमानस को उद्वेलित किया जाता रहे, उनकी संवेदनाओं को मरने से बचाया जा सके, उनके ह्रदय के मर्मिक् स्थलों को प्रोत्साहन मिलता रहे. इस बात का प्रमाण इस से भी मिलता है की स्वयं तुलसीदास ने भी वनवास और अग्निपरीक्षा में सीता माता का पक्ष लेते हुए राम की नींदा की और कहा कि
- "हे आराध्य.आप ने कोमलांगी पूजनीय सीता माता को इन कष्टों के भंवर में भेज दिया है, जानता हूँ की आपने यह कदम अपने मर्यादा के रस्सी में जकड़े होने के कारण किया है, मगर मेरा कवी मन जानकी के कष्टों को नहीं देख पा रहा है, अतः हे राम अगर इस दृश्य के वर्णन क्रम में अगर मैं आप की अवहेलना भी कर बैठूं तो आप क्षमा करना. हे पुरुषोतम मुझे तो लगता है की आपने यह प्रसंग शायद इसलिए रचा ताकि समय समय पर समाज के अग्रणी मस्तिष्क वाले नारी के कष्टों के सागर में गोते लगाते हुए अन्याय और अधर्म के विरुद्ध जाने की हिम्मत कर पाएं और धर्मान्धता में ही भले पर जननी के मर्यादा पर उठने वाली कलुषित दृष्टी का नाश कर सकें. जय सिया राम."
आज भी न जाने कई पंथ और कई संप्रदाय रोज पनप रहे हैं.मगर सब के मूल में हमारे सनातन वांग्मय का ही प्रभाव दिख जाता है.
स्वर्णिम भारतीय इतिहास की स्वर्णिम गाथा रूपी हैं ये धर्म ग्रन्थ.सदियों से मानवता के पथ प्रदर्शक.जीवन और समाज को ओजस्वी,सकारात्मक और विकासवादी बनाने को प्रयासरत हमारा वांग्मय.
रचना काल की दृष्टि से देखें तो करीब १० हज़ार साल पुराना हमारा ऋग्वेद ...तत्पश्चात अन्य वेदों की रचना हुई. फिर मनीषियों ने रचा उपनिषद. ये उपनिषद स्मृति भी कहे जाते हैं.इनकी रचना का मुख्या उद्देश्य वेदों के रिचाओं की विस्तृत व्ताख्या करना था.
ऋग्वेद में विराजमान है प्रकृति रूपी इश्वर के विभिन्न रूपों की स्तुति करते मन्त्र. और बहुत ही सौंदर्य के साथ पिरोये गए राजा और प्रजा के कर्तव्यों का वर्णन. सामवेद में इन रिचाओं के सटीक उच्चारण और पाठ का वर्णन है.अथर्ववेद में यज्ञों के नियम और कर्मकांड का वर्णन है, और यजुर्वेद में भी कमोबेश ऐसे ही प्रावधानों का.....यह बताना जरुरी है की आर्यों की सभ्यता में अब तक राम,कृष्णा,रामायण,इत्यादि कथानको का कोई वर्णन नहीं मिलता है, बल्कि प्रकृति को ही सर्वमान्य ब्रह्म की सत्ता के रूप में पूजा गया है.वेदों के अन्य नाम भी प्रचलित है जो कभी कभी दुविधा की स्थिति उत्पन्न करते हैं, जैसे-ब्राह्मण,अरण्यक,वानप्रस्थ,श्रुति,ऋचा इत्यादि.
तत्पश्चात रचे गए उपनिषदों में एक एक ऋचा का सविस्तार वर्णन मिलता है. उपनिषदों को वेदान्त भी कहा गया है.मुक्तोप्निषद में उपनिषदों की संख्या १०८ बताई गयी है. उपनिषदों की वास्तविक संख्या कितनी है यह एक विवाद का प्रश्न है. कई विद्वानों ने लगभग ३६ मुख्य उपनिषदों की उपस्थिति पे एक समुचित विचार बनाया है...इन उपनिषदों के नाम इनके रचनाकार ऋषियों के नाम पे है जैसे-कठोपनिषद, मनुस्मृति, अत्रेयुप्निषद , बृहस्पति उपनिषद, प्रश्न , मंडूक, केन, इश, ऐतरेय, छान्दोग्य..... इत्यादि. सभी उपनिषद एक ही रचना काल के नहीं है, बल्कि अलग अलग समय में लिखे गए है, इसलिए भी इन्हें आर्य सभ्यता के क्रमिक विकास और इतिहास का साक्ष्य माना जा सकता है, उनमे वर्णित राजा के कर्त्तव्य, समाज के विभिन्न वर्गोके स्थिति का वर्णन हमारे उद्दात सनातन सभ्यता के स्वर्णिम इतिहास की दर्शाता है...
कालांतर में आमजनों की धार्मिक आकाँक्षाओं की परिपूर्ति हेतु कई पुरानो की रचना हुई.
ये १८ पुराण मूलतः कथा संकलन है, इनमे कथा के माध्यम से जीवन मूल्यों का ज्ञान आम जनता को दिया गया है.....एक मत यह भी है की ये पुराण एक देव इष्ट को सर्वश्रेष्ट मानकर लिखे गए हैं....या फिर एक इष्ट को मानने वाले समुदाय ने अपने इष्ट के गुणगान वाले कथाओं के संकलन को प्राथमिकता दे दी....ध्यान रहे अबतक लिपि का प्रयोग नहीं था....सब कुछ बस श्रुति और स्मृति के रूप में ही एक पीढ़ी से दुसरे पीढ़ी में प्रदान किया गया है .अतः अशुद्धि की संभावना या फिर मूल रूप से बदलाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. भारतवर्ष के विभिन्न भागों में एक ही ग्रन्थ के अलग अलग संकलन , अलग अलग श्लोक विन्यासों का मिलना इसी बात का समर्थन करता है. ये पुराण हैं... विष्णु, गरुड़, मत्स्य, मार्कंडेय, वराह, वामन, शिव, स्कन्द, लिंग, अग्नि, ब्रह्माण्ड, भविष्य, भागवत,कुर्म आदि.
कहीं कहीं १८ उप पुराण के नाम भी मिलते हैं.मगर महाभारत को महापुराण का दर्ज़ा प्राप्त है. और इसे पंचम वेद भी कहा गया है. यह भी वर्णित है की"जो महाभारत में नहीं है, वो पुरे भारत में नहीं है"
बीच का काल कई व्याकरण सूत्रों, पाणिनि,पतंजलि इत्यादि ग्रंथो का रहा है.
प्रथम महाकाव्य होने का श्रेय आदि काव्य वाल्मीकि रचित रामायण को जाता है.
भगवान् राम के कृत्यों का बखान करते मर्यादा पुरुषोतम की छवि जनमानस में स्थापित करने में यह काव्य अत्यंत सफल रहा.और राम भक्ति की गंगा तदनंतर लगातार प्रवाहित होती रही.
रामायण के लिखे जाने के करीब १५०० साल बाद महाभारत का रचना काल माना जाता है.यह बात ध्यान देने की है कि- ग्रंथों के रचना काल से इनमे वर्णित घटनाओं के रचनाकाल का अंदाज़ा लगाना एक भयानक त्रुटी होगी. क्योकि लगभग सभी घटनाओं का वर्णन पूर्व रचित पुरानो में पहले से ही वर्णित है. रामायण और महाभारत तो बाद में लिखे गए महाकाव्य हैं.जिनमे कवी के विद्वता और भक्ति का पूट मिलता है.
ततपश्चात संस्कृत भाषा का लोप होने लगता है. भारतीय जनमानस की लोक व्यवहार की भाषा के रूप में पाली और फिर प्राकृत भाषा का स्थान आ जाता है.पाली में जैन धर्माव्लाबियों के ग्रन्थ लिखे गए हैं और प्राकृत में बौद्ध धर्म ग्रन्थ. हाँ संस्कृत काव्य जैसे कालिदास और भात्र्हरी आदि के मनमोहक संस्कृत महाकाव्य इस दौर में भी लिखे गए मगर राजदरबारो के संरक्षण में.अतएव इनमे राजाओं के चरित्र चित्रण आधिक हैं.
फिर अपभ्रंश भाषा के बाद अवधि और व्रज भाषा ने साहित्य को जिन्दा रखा. और फिर तुलसी के मानस, सूरदास के सूरसागर और रहीम कबीर के दोहे......
इतने लम्बे इतिहास में असंख्य ग्रंथों की रचना हुई, मगर तीन ही ग्रन्थ उपजीव्य काव्य के अंतर्गत रखे गए हैं. रामायण,भागवत और महाभारत. इनमे रचनाकारों ने चरित्रों के जीवन शैली और घटनाओं का जो सजीव और अद्भुत वर्णन कर दिया-वह हज़ारो सालो तक बुद्धिजीवियों के बीच नयी रचना का प्रेरणा श्रोत बना रहा...और आज भी रोज़ ही न जाने कितने ही काव्य,आलेख,निबंध इन्ही तीनो में से किसी दृश्य,घटना या विचार को मूल मानकर लिखे जा रहे हैं. शायद इसका श्रेय कहीं न कहीं इन सब में सामान रूप से व्याप्त कुछ विवादित अंशो को जाता है. जैसे केवट प्रसंग हो या अशोकवाटिका प्रसंग, सीता की अग्नि परीक्षा हो या,राम का वनवास,कैकेयी का चरित्र हो या भरत का राज्त्याग,उर्मिला का चरित्र हो या जानकी का. इसी प्रकार व्रज की गोपियों का परित्याग कृष्ण के द्वारा हो या फिर द्रौपदी का चीर हरण या कृष्णा का छल का वर्णन महाभारत में, या फिर अहल्या इत्यादि....न जाने कितने प्रसंग ऐसे है जो सदियों से बुद्धिजीवियों के मानस पटल पे अनेको आकर प्रकार ग्रहण करते हैं ,नए प्रश्नों को गढ़ते हैं,संवेदनाओं को झकझोरते रहे हैं.
शायद ये अंश जानबूझ कर इन ग्रंथों में समाहित किये गए हैं ताकि समय समय पर जनमानस को उद्वेलित किया जाता रहे, उनकी संवेदनाओं को मरने से बचाया जा सके, उनके ह्रदय के मर्मिक् स्थलों को प्रोत्साहन मिलता रहे. इस बात का प्रमाण इस से भी मिलता है की स्वयं तुलसीदास ने भी वनवास और अग्निपरीक्षा में सीता माता का पक्ष लेते हुए राम की नींदा की और कहा कि
- "हे आराध्य.आप ने कोमलांगी पूजनीय सीता माता को इन कष्टों के भंवर में भेज दिया है, जानता हूँ की आपने यह कदम अपने मर्यादा के रस्सी में जकड़े होने के कारण किया है, मगर मेरा कवी मन जानकी के कष्टों को नहीं देख पा रहा है, अतः हे राम अगर इस दृश्य के वर्णन क्रम में अगर मैं आप की अवहेलना भी कर बैठूं तो आप क्षमा करना. हे पुरुषोतम मुझे तो लगता है की आपने यह प्रसंग शायद इसलिए रचा ताकि समय समय पर समाज के अग्रणी मस्तिष्क वाले नारी के कष्टों के सागर में गोते लगाते हुए अन्याय और अधर्म के विरुद्ध जाने की हिम्मत कर पाएं और धर्मान्धता में ही भले पर जननी के मर्यादा पर उठने वाली कलुषित दृष्टी का नाश कर सकें. जय सिया राम."
आज भी न जाने कई पंथ और कई संप्रदाय रोज पनप रहे हैं.मगर सब के मूल में हमारे सनातन वांग्मय का ही प्रभाव दिख जाता है.
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