कभी अपनी कुची में समेटता दुनिया
कभी जुमले में ही ओढ़ता था जहाँ
मनचला,पागल, गैर जिम्मेदाराना
अपनी हरकतों से मजा करता था हरदम
पर मांग बैठा जो खुशियों का हिसाब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।।
लफ्ज भी तो दगा करते थे कभी
अन्दर से सिहरन भी उठ जाया करती थी
इस सिहरन को एक बीमारी समझा उसने
'काम' और 'वक़्त' की दवा दे डाली
शायद घर की मांगो का था ये जवाब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।
घुप्प अँधेरे में दाल दी रूह अपनी
बस मशीनी दिमाग बन सा गया
भूल गया वो कभी इस जहाँ में भी था
अब तो 'जरुरत' ही सांसो की वजह थी उसकी
कई दिनों से नहीं देखा उसने अफताब कोई।
फ़रार था वो दिनों से महीनो से।।
जब वो लौटेगा अपनी कागज़ी दुनिया में
घरवाले उसे फिरसे फ़रार समझेंगे
ये जो दोनों जहाँ में फासले से हैं
क्या पता सिमटेंगे कभी या कि नहीं
बना गया है इन दूरियों को बेहिसाब कोई।
फरार था वो दिनों से महीनो से।।
आज फिर कागज से दोस्ती की उसने
अपने अरमां वो कोरे पे लिखता जायेगा
शायद फिर से फरार होना पड़े
या फिर नज़रबंद कर दे ज़मानेवाले
या वो खुद ही लगा ले नया हिजाब कोई।
फ़रार है वो दिनों से महीनो से।।
this gazal is about the inner conflict of an artist.
he has to choose between his art and work
between his interest and responsibility
between his own choice and of family....
No comments:
Post a Comment