Monday, February 25, 2013

पडाव


पडाव
"an autobiograohy of traditional waiting room"- by Dr. Govind Madhaw
मैं हूँ ही ऐसा.लोग मुझ तक आते हैं, आकर खुश भी हो जाते हैं,उन्हें खुश देखकर मैं भी खुश होने की कोशिश करता हूँ. थोड़ा गुरुर पालने लग जाता हूँ मन में इस बात का कि लोग मुझ तक आना चाहते हैं, मुझे पाना चाहते है. पर यही तो मेरी भूल है. लोग मुझ तक आना तो जरुर चाहते हैं पर पाना नहीं चाहते. मुझसे होकर वे अपनी मंजिल की और जाना चाहते हैं, और बस इसलिए मुझ तक आना चाहते हैं. क्यों की मैं तो बस पलभर की छांव हूँ.हाँ सबकी ज़िन्दगी का मैं एक पडाव हूँ. पडाव मात्र.

कुछ मुसाफिर आकर, थोड़ा सुस्ताकर मुझे साफ़ कर देते हैं. थोड़ा सजाने की कोशिश करते हैं. शायद ये उनका स्वार्थ निहित काम होता है, पर इसे मैं अपने लिए नेह मान लेता हूँ.क्षणिक थकन मिटाने के लिए वे मुझे दिल से धन्यवाद् देते हैं तो मैं उनसे रिश्ता जोड़ने की कोशिश करता हूँ. पर थकान मिटते ही वे भूल जाते हैं मुझे. मैं उम्मीद करता हूँ कि शायद वे मुझे अपना समझने लग गए हैं और मैं रिश्ते के बीज बोने लग जाता हूँ और बार बार मैं भूल जाता हूँ कि रिश्ते हमेशा दुख ही देते हैं.

कभी कोई मुसाफिर रात गुज़रता है मेरे आगोश में. उसके बेसुध निद्रामग्न शारीर की रातभर जागकर मैं देखभाल करता हूँ. वो कभी मेरी दीवारों पे कील ठोंकता है,जो सीधे मेरे दिल पे लगती है,पर आदतन प्रेम की उम्मीद लिए मैं यह ज़ख्म भी हँसते हँसते सह लेता हूँ. पर उन्हें तो इस  बात की भनक भी नहीं होती.वे बेफिक्र से, बेखबर से अपनी दुनिया में जीते हुए चले जाते हैं. मैं बेचैन सा हो जाता हूँ. एकतरफा ही सही बंधन तो मैं जोड़ चुका होता हूँ. फिर से उनकी एक झलक मिल जाती . काश. फिर दिन रात इंतज़ार और इंतज़ार.
लम्बे इंतज़ार के बाद भी जब वो लौटकर नहीं आते तो मैं निराश हो जाता हूँ. रोना नहीं चाहता, आंसुओं को छुपाने की कोशिश करता हूँ, पर ये भला छुपते हैं कभी. मेरी दीवारें भीग जाती हैं, फिर टूटने लग जाती हैं,  और अब तो कोई आना भी नहीं चाहता मुझ तक. अन्दर ही अन्दर घुटता रहता हूँ, टूटता  रहता हूँ.बस मौत का सहारा ही मुझे उबार सकता है, यही उम्मीद किये जाता हूँ. पर मौत भी इतनी आसान कहाँ.
कभी किसी की दुआ से मुझे नया रंग मिल जाता है मेरी जरुरत पड़ने पे.भले ही वो जरुरत थोड़े पल की हो.मुझे फिर से सजाने की कोशिश की जाती है.सजावट तो कम होती है पर सजाने का आयोजन भव्य होता है. बड़े बड़े लोग आते हैं.बाजे गाजे बजते हैं. दीवारें तो अन्दर से कमजोर ही रहजाती हैं पर बहरी चमक दमक बस बढ़ जाती है. और लोगों के आँखों पे एक पट्टी लग जाती है. एक पट्टी मेरे भी आँखों पे लगती है, जिसपे लिखा होता है..."पुन्रोधार. द्वारा माननीय ......". कुछ पल के लिए मैं भी वहम का शिकार हो जाता हूँ. पर अन्दर से उठती टीस  सारे  भ्रम मिटाकर मुझे वास्तविकता के धरातल पर फेंक देती है.

झूठे ही सही पर इस काया कल्प से लोग मुझ तक फिर से आने लगते हैं.मैं फिर से अपनी उपलब्धियों पर गर्व अनुभव करता हूँ.अपनी औकात भूलकर सपने देखने लग जाता हूँ. मेरा पुराना संकल्प टूटता है-"फिर से नया रिश्ता न जोड़ने का". ये जानते हुए भी की मैं किसी के भी दिल में अपनी जगह नहीं बना सकता , अकेलेपन के मेरे साथी हैं तो बस सड़क के आवारा कुत्ते और मेरी तन्हाई. सब समझते हुए भी मैं रिश्ता जोड़ जी लेता हूँ. पल भर के लिए खुश हो जाता हूँ.

तुम ये सब जानकर मुझे मुर्ख कहोगे. मुझे फर्क नहीं पड़ता. मैं मुर्ख ही  बने रहना चाहता हूँ. मुझे मत समझाना निष्काम कर्म और इसी तरह की ज्ञान की बातें. मैं समझदार इंसानों की तरह भावनाशुन्य नहीं बनना चाहता, भले मैं इसी तरह तड़पता, टूटता रहूँ. अगर मुझसे हमदर्दी है तो बस इतना करना कि अगर तुम्हे सफ़र में कोई इंसानी पड़ाव मिले, मुझ ईंट गारे के पडाव को तो छोड़ ही दो,तो उसके रिश्ते को मत ठुकराना.अरे मैं तो अब उपदेश देने लग गया. मैं तो भूल ही गया था की तुम इंसानों को उपदेश से शख्त नफरत है. तुम्हे तो मजा आता  है किसी की दुखभरी कहानी सुनने में. मैं ऐसा नहीं कह रहा की तुम किसी के दुःख को समझना चाहते हो. शायद ऐसा कह कर तुम्हारे सोसाइटी में तुम्हारी बेईज्ज़ती हो जाएगी. तुम्हारे प्रोफेस्नालिज्म पर सवाल खड़े हो जायेंगे. न न इतनी मुसीबत  में नहीं डाल सकता मैं.बल्कि तुम्हे तो मजा आता  है दुःख भरी कहानी बस सुनने भर में. क्यों की ऐसा करना ट्रेजेडी फिल्मो के जैसा मजा देता है.भागते भागते जब तुम भूल जाते हो की इंसान में भावनाएं भी होती है और इन भावनाओं में दुःख भी एक है तो तुम चले आते हो थिएटर. या फिर दुःख भरी कहानियां पढने लग जाते हो या फिर सत्यमेव जयते.ये कहानियां सच्ची हो तो और ज्यादा मजा देती हैं. हाँ भाई. जमाना रियलिटी शो का जमाना है न. भले तुम में से कोई भी, कभी भी कहानी के किरदारों के दर्द दूर करने नहीं जाता. अजीब है न. मजेदार भी है....दूसरों  के दर्द का मजा लेना...sadistic pleasure.
खैर छोड़ो इन बातो को.मैं अपनी कहानी सुनाता हूँ.तुम्हारे पैसे वसूल नहीं होंगे तो मुझे गालियाँ दोगे..
मैं रोता हूँ.और रोता ही रहता हूँ. यही मेरी दास्तान है, मैं गम समेटे हुए, छोटे छोटे टूटते सपनों की छाँव हूँ. मैं एक पडाव हूँ. पडाव मात्र....

कहानी बस इतनी सी है भाई. आखिर औरों ने भी तो टिकेट ख़रीदे है रोने के लिए...
.....आओ भाई...
.......मैं हूँ पडाव....
मैं?
दिल बड़ा कमजोर है. हर बार सहारे के लिए उम्मीद का दामन  पकड़ लेता है. शायद जनता नहीं की "उम्मीदें अक्सर रुलाया करती है."

हर बार पिछले ज़ख्म मिटाकर मैं सोचने लग जाता हूँ कि शायद इस बार कोई अपना समझने वाला होगा....मैं फिर से बाहें पसार देता हूँ...मैं मौत तक हारते ही जाने वाला दांव हूँ...मैं एक पडाव हूँ..पडाव मात्र...


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