Sunday, June 3, 2018

गर्मी और आपका स्वास्थ्य

#ठेठ_पलामू :गर्मी और आपका स्वास्थ्य
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~गर्मी के मौसम के शुरू होते ही हमें लू लगने का खतरा क्यों बढ़ जाता है?
~गर्मी के मौसम में और किन बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है?
~बुखार क्या है?
~लू लगने पर बुखार क्यों होता है?
~हमारा शरीर तापमान को किस तरह से नियंत्रित करता है?
~पानी हमारे लिए क्यों जरूरी है?
~ORS किस तरह से लू में उपयोगी है?
~लू से बचाव के लिए क्या करना चाहिए?

अगर आप इन सब सवालों के जवाब जानना चाहते हैं तो अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका #सेतू के अप्रैल अंक में प्रकाशित डॉ Govind Madhaw का यह स्तंभ पढ़ें. और अगर उपयोगी लगे तो अपने दोस्तों से शेयर करें.

इस गर्मी में आपके अच्छे स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं.
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डॉ गोविंद माधव पलामू के ही हैं. ठेठ पलामू के अनुरोध पर उन्होंने हमें ये आर्टिकल भेजा है.

आर्टिकल पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें या नीचे दिए गए एड्रेस पर login करें.

सेतु अप्रैल 2018

घुटने का दर्द

घुटने के दर्द से हर घर में कोई न कोई परेशान है. हर कोई चाहता है इससे मुक्ति. कोई बाबा वैद्य की शरण में जाकर तो कोई तेल मालिश कर के राहत की राह तक रहा है.

आखिर होती क्यों है घुटने में समस्या?
क्या इससे बचा जा सकता है?
क्या इसे जड़ से ठीक नहीं किया जा सकता?
हज़ारों सवाल सब के मन में...

पढ़िए अमेरिका से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका सेतू में डॉ Govind Madhaw का यह आलेख. अगर आप के परिवार या जान पहचान में कोई घुटने की समस्या से ग्रसित है तो आप उनका इलाज़ तो नहीं कर सकते लेकिन सही जानकारी और सलाह से मदद जरूर कर सकते हैं. उन तक जरूर पहुंचाए इस आलेख को.

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ढलते उम्र की निशानी समझे जाने वाली इस बीमारी को लेकर काफी शोध हुए। शोधकर्ताओं को एक बात समझ नहीं आ रही थी कि अगर यह बुढ़ापा का एक लक्षण मात्र है तो फिर हर किसी को क्यों नहीं होता? किसी को कम उम्र में ही तो किसी को बहुत बाद में क्यों? किसी को हलकी फुलकी परेशानी तो किसी को इतनी असह्य पीड़ा कि चलना फिरना भी मुश्किल? किसी को मामूली दवाई से ही राहत तो किसी को ऑपरेशन की नौबत क्यों? इन सवालों के जवाब जानने के लिए हमें एक और मेडिकल टर्म को समझना होगा - ‘रिस्क फैक्टर’।

‘रिस्क फैक्टर’ यानि वे कारण जिनके मौजूद होने से किसी व्यक्ति में खास बीमारी के होने का खतरा बढ़ जाता है। ओस्टियो-आर्थराइटिस के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले रिस्क फैक्टर्स हैं - बढ़ा हुआ वजन, नित्य व्यायाम की कमी, मॉडर्न लाइफस्टाइल, धूम्रपान, खाने में पोषक तत्वों की कमी, किसी भी दुर्घटना से लगने वाली चोट, बेडौल जूते, असामान्य चाल और कुछ वैसे काम जिसमे घुटनों पर ज्यादा भार पड़ता है। इनमें से सबसे अधिक दुष्प्रभाव डालने वाला कारण है वजन। ऐसा हो ही नहीं सकता कि प्रौढावस्था को पार कर रहे या पार कर चुके, मोटापे के शिकार व्यक्ति को घुटने में परेशानी न हो। हालाँकि कभी-कभार छरहरे बदन के व्यक्ति में भी ओस्टियो-आर्थराइटिस हो सकता है तभी जब उस व्यक्ति में अन्य रिस्क फैक्टर्स भी मौजूद हों।

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घुटने का जोड़ ‘फीमर’ और ‘टिबिया’ नाम की दो हड्डियों के मिलने से बनता है। साथ लगे चित्र में आप देखें कि ऊपर फीमर और नीचे टिबिया है। लेकिन दोनों हड्डियाँ एकदम से सटी हुई नहीं हैं। दोनों के बिच में गैप है, इसे ‘जॉइंट-स्पेस’ कहते हैं। इस स्पेस में एक खास तरह का लुब्रिकेंट भरा हुआ होता है जिसे ‘साइनोवियल-फ्लूइड’ कहते हैं। हड्डियाँ, मांसपेशियाँ और साइनोवियल द्रव- ये सब मिलकर किसी हाइड्रोलिक सिस्टम की तरह काम करते हैं। यानी शरीर का बोझ सीधे एक हड्डी से दुसरे हड्डी पर नहीं जाता बल्कि ऊपर वाली हड्डी से बीच में स्थित द्रव पर और तब नीचे वाली हड्डी पर पड़ता है। इस व्यवस्था से एक तो घर्षण कम होता है, दूसरा हड्डियों को पोषण भी मिलता रहता है और उनमें होने वाली मामूली टूट-फ़ूट की मरम्मत भी होती रहती है।

अब जरा सोचिये कि अगर किसी व्यक्ति का वजन बहुत बढ़ जाए तो घुटनों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या सीमा से अधिक बोझ पड़ने पर भी यह हाइड्रोलिक सिस्टम ठीक से काम कर पायेगा? क्या दोनों हड्डियों के बीच का जॉइंट-स्पेस यथावत बना रहेगा या कम होता जायेगा? क्या हो अगर यह स्पेस काफी कम हो जाये जिससे ऊपर और नीचे की हड्डियाँ काफी नजदीक आ जाएँ और आपस में टकराने लगें? क्या तब भी घुटनों पर होनेवाली हरकत (मूवमेंट; घुटनों का मुड़ना या सीधा होना) स्मूथ बनी रहेगी या घर्षण के कारण बाधित या सीमित होने लगेगी? क्या धीरे धीरे जॉइंट्स स्पेस में मौजूद सिनोविअल द्रव कम नहीं होने लगेगा? क्या अब घर्षण के चलते हड्डियाँ आपस में रगड़ खा कर घिसने-टूटने नहीं लगेंगी?
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पूरा आर्टिकल पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें!

सेतु मई अंक

Monday, May 21, 2018

मौसम

मई की तपिश में ये हसीन बारिश.
सलाखें तोड़ती आवारगी की ख्वाहिश.

ताज़ा अजनबी दर्द मुस्कान में लिपट रहा.
फुर्सत भी नमी ओढ़े मुझ में सिमट रहा.

आशिकी के बादल बरसने को बेताब हैं .
मगर माशूका कौन? ये किसका शबाब है?

आह!
ये तन्हाई में खुद से इश्क करने का मौसम है.
खुद में डूबने - तैरने - भटकने का मौसम है.

© गोविंद माधव

सिलेट पेंसिल


एक दौर था वो जब पलामू के गाँव मे सारे बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे. प्राइवेट स्कूल का कल्चर नहीं आया था. अंग्रेज़ी मीडियम का भूत भी नहीं सवार हुआ था किसी गार्जियन पर. सब बच्चे अपना अपना बोरा और बोरा का ही बना हुआ बस्ता ले कर स्कूल जाते थे.

ओह! क्या दिन थे वे. मासूमियत से लबरेज हम बच्चे. सब के बस्ते में सीलेट और चौक या चुना वाला पेंसिल. ककहारा मात्रा और गिनती लिखना सीखते थे और तुरंत थूक लगा के मिटाते भी थे.

'अरे. विद्या में जूठा करेगा? सरस्वती माता गोसा जाएगी. प्रणाम करो.'

किसी को कलम कागज से लिखते देखते तो मन ललचा जाता था. कब हम भी कॉपी मे लिखेंगे. मगर सिलेट में लिखते हुए हज़ारों गलतियाँ करने की आजादी थी. पेंसिल और कट-पेंसिल अलग अलग चीज़ थी. कटर से छीलने वाला कट-पेंसिल और चौक वाला सिर्फ पेंसिल. रँग बिरंगा लिखने वाला पेंसिल.

बचपन खत्म हुआ तो कलम मिल गया, छूट गया सिलेट. मगर अब हर कदम संभल कर रखना था, हर अक्षर सोच कर लिखना था. क्योंकि अब गलतियाँ मिटती नहीं, हमेशा के लिए दाग बन कर रह जाती हैं.

किसी के पास मिट्टी वाला सिलेट तो किसी के पास प्लास्टिक वाला होता था. प्लास्टिक वाला टूटता नहीं था, लेकिन घिस कर उजर हो जाता था, जिसमें चौक नहीं उगता था. लेकिन प्लास्टिक वाले में रबर गोली से abacus बना रहता था, उसका यूज़ करना तो नहीं आता था हमें पर खेलना जरूर आता था उससे.

तब चंदा मामा हुआ करते थे- दूर के,
पुआ पकाए गुड़ के
अपने खाए थाली में
हमको देते प्याली में
प्याली जाती टूट
हम भी जाते रूठ.

सूरज और झोपड़ी - चित्रकला के नाम पर बस यही बना पाते थे.

और 4 बजते ही लाइन में लगकर समवेत स्वरों में मासूम कंठ गा उठते - "एक पर एक ग्यारह, एक पर दो बारह,... दो पर सोना बीस. मास्टर जी का फीस. टीस टीस टीस..."

अब तो बच्चे कॉपी कलम से आगे निकल टैब्लेट मोबाइल तक पहुंच गए हैं. पता नहीं अब किसी स्कूल मे सिलेट प्रयोग में आता भी है कि नहीं.

क्या अब के बच्चे भी चॉक खाते हैं?
क्या अब भी बच्चे दूसरे की पेंसिल चोरी कर विद्या कसम खाते हैं?
क्या अब भी बच्चे शनिवार को सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होकर गाना गाते हैं?
क्या अब भी मिडिल क्लास के बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं?
क्या अब भी सरकारी स्कूल में मास्टर साहेब ओतना ही दुलार से हाथ पकड़ कर अ.. आ.. लिखना सिखाते हैं....

काश कि फिर से उसी दौर में पहुंच जाते हम जब हाथ में सिलेट होती और होती गलती और मनमानी करने की आजादी. ना होता इतनी समझदारी और किताबों का बोझ, ना ही सम्हल सम्हल कदम रखने की जरूरत.

© Govind Madhaw

#ठेठ_पलामू

Wednesday, April 11, 2018

📖 My first publication


ठीक से याद नहीं पहली बार खुद के ख्यालों को कब कागज़ पर उतार पाया था? शायद 13-14 साल की उम्र में. जब कहीं से पिछले साल की एक पुरानी पड़ गयी डायरी हाथ लगी थी. फिर चम्पक और नंदन के लिए अपनी रचनायें भेजता और हमेशा ही रिजेक्ट होता रहा. पहली बार किसी पत्रिका में अपना नाम मैंने संत जेविअर्स कॉलेज रांची के कॉलेज मैगज़ीन में देखा था.
और फिर कुछ साल रिम्स मेडिकल कॉलेज की वार्षिक पत्रिका 'स्पृहा' में सम्पादकीय मण्डली का हिस्सा बन कर रहा. ये मेरे लिए सबसे खुबसूरत साल थे. हर साल जब नयी पत्रिका के विमोचन का दिन होता था, मुझे लगता था जैसे मैंने मातृत्व का सुख प्राप्त कर लिया है. घंटो बीत जाते नयी पत्रिका को हाथ में लिए. हालाँकि पत्रिका के छपने से पहले ही मैं ना जाने कितनी दफा उसमें गोते खा चूका होता था मगर फिर भी विमोचन के कुछ दिन तक मैं हर पन्ने से कई दफा गुजरता, कभी किसी आर्टिकल के लिए चुने गए चित्र पर मुग्ध होता तो कभी किसी पेज की सजावट पर. कभी फीलर्स के जुगाड़ से मन हरसता तो कभी कवर और इंडेक्स में की गयी कलाकारी और मेहनत पर. कुछ लेखकों से कितनी मन्नतें करनी पड़ती थी आर्टिकल लिखने के लिए. कहीं कहीं कोई गलती भी दिख जाती थी कभी तो लगता था कि अभी सब के हाथ से वापस ले लूँ सारी प्रतियाँ और सुधार कर फिर से बाँटू. विमोचन के दिन से मेरे कान खड़े हो जाते थे. दोस्तों से जबर्दस्ती ही मैगज़ीन का जिक्र करता इस उम्मीद से कि वे मेरे प्रयासों पे गौर करेंगे और कुछ बहुत प्रसिद्धि का सुख प्राप्त हो जायेगा. कुछेक दोस्त प्रशंसा भी करते थे, कुछेक को बस चुटकुलों और गप्पों वाले पन्ने का इंतज़ार रहता था, कुछ को बस अपनी तस्वीर से मतलब रहता था और कुछ को अपना नाम देखने की जिद रहती थी. अधिकतर लेखकों को अपना आर्टिकल पहले पन्ने पर चाहिए होता था. और कुछ की फरमाइश होती थी कि उनकी सारी कवितायें पत्रिका में स्थान पाए. कुछ से कहासुनी भी होती थी. कुछेक रचनाओं में वर्तनी सम्बन्धी सुधार के लिए पसीना भी बहाना पड़ता, हालाँकि वर्तनी की सबसे ज्यादा परेशानी मेरी खुद की रचनाओं में होती थी. और कभी कभी तो रचनात्मकता की आड़ में कुछेक रचनाओं से छेड़छाड़ भी कर देता था चुपके से, जिसके लिए कभी सराहना तो कभी उलाहने भी मिलते.
आज फिर से वो सारी यादें ताज़ा हो गयी. अहा ज़िन्दगी के अप्रैल अंक में मेरी एक कहानी को स्थान मिला. ये पहली बार है जब मेरी कोई रचना प्रकाशित हो रही है. और मेरे नानाजी श्री Dhanendra Prawahi जी ने टिपण्णी की- 'वाह नाती! पहली ही बार में इतनी लम्बी छलांग! मुझे तो कई साल लग गए थे राष्ट्रिय स्तर की पत्रिका में जगह पाने में .'
Sushobhit Saktawat से मेरी पहचान फेसबुक के जरिये ही हुई. और पहली ही पोस्ट से उन्होंने मुझे दीवाना बना लिया. बहुत कुछ सीखा है उनसे. एक दिन ऐसे ही बात बात में मैंने पूछ लिया कि क्या मैं भी अपनी रचना किसी पत्रिका में भेज सकता हूँ? तब तक आप दोस्तों के प्यार से मैं कुछेक #लप्रेक और '#100kissesOFdeath' सीरीज की चार पांच कहानियां लिख चूका था. विवेक कान्त मिश्र ने मेरा हौसला बढाया और फिर उस दिन मैंने सुशोभित को अपनी रचना भेजते हुए एक आग्रह किया कि अगर यह आपके पत्रिका के स्तर को सूट करे तभी, अन्यथा ऑनेस्ट रिजेक्शन से भी मेरा खुद का मूल्यांकन ही होगा.
और फिर ये सुखद क्षण!
इतनी लम्बी पोस्ट के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, मगर क्या करता , मन के आवेग को रोकना कठिन था. और फिर आदत भी तो है अपनी हर छोटी-बड़ी ख़ुशी को आपके साथ शेयर करने की.
बहुत बहुत आभार आप सब का.
प्रेम-आशीर्वाद-विश्वास बनाये रखें.


Wednesday, January 24, 2018

ल.प्रे.क.12: Hormone

“पति से प्रेम? कैसा प्रेम? कहाँ से लाऊं मैं प्रेम? अभी तो शादी के चार ही महीने हुए थे. ठीक से इस आदमी को समझ भी नहीं पाई थी कि सड़क दुर्घटना ने उसके नाभि से नीचे के शरीर को बेजान कर दिया था हमेशा के लिए. रीढ़ की हड्डी टूटी और छूट गया शरीर का दिमाग से रिश्ता. अब पांव ना तो हिलते हैं ना ही मच्छर के डंक ही महसूस करते हैं, मगर मुंह और पेट तो अपना काम किये जाते हैं.” नफरत-गुस्सा-घृणा जैसे भावों को छुपाने और मल-मूत्र के दुर्गन्ध से बचने के लिए एक हाथ से चेहरे पर रुमाल पकडे, दुसरे हाथ से बिस्तर से चादर खींचती वह युवती सोच रही थी.

“वह पति है भी तेरा? ना आर्थिक ना ही शारीरिक या मानसिक सुख या सुरक्षा दे पायेगा तुम्हे कभी! तो फिर क्यों रखना उसके नाम से सूत्र-सिंदूर और शील?” अधेड़ ने सहानुभूति के बहाने युवती के मन को अनाथ घोषित करते हुए, तन पर अधिकार मांगने की जल्दबाजी दिखा दी थी. मगर एक दूसरे  नवयुवक पडोसी ने धैर्य का परिचय दिया और युवती के ह्रदय में स्नेह के बीज डालने में सफल हुआ. अधेड़ अब अपनी असफलता छुपाने के लिए युवती को चरित्रहीन साबित करने में लग गया था.

मर्दानगी से हाथ धो बैठा पति अब और अधिक गुस्सैल, शक्की और चिड़चिड़ा हो गया था. सेवा में जरा सी चूक पर चिल्लाता, युवती के माँ-बाप से शिकायत करता, घर आये मेहमानों के बीच उसका मजाक उडाता और सती-सावित्री-अनुसूया के चित्र दीवारों पर लगवाता. युवती को अब इस अभागे पति पर दया आने लगी थी. मगर प्रेम?

“क्या वह आदमी जो तुम्हारा पति है, ठीक वैसे ही तुम्हारा ख्याल रखता, जैसा कि वो तुमसे चाहता है अगर उसकी जगह तुम ऐसे आधी-लाश बनी होती? उसकी नरक जैसी जिंदगी के लिए तुम तो जिम्मेदार भी नहीं हो.”- नवयुवक ने युवती के तन-मन की प्यास को भांपने की कोशिश को जारी रखा.

इस दुनिया में सभी स्वार्थी हैं, और उसने इस सच को जान लिया है-ऐसा सोचने से उसने खुद के अपराधबोध को कम होता पाया. आईने में अपनी कम उम्र को निहारने के बाद युवती ने भी अपना पाशा फेंका- “यह जानते हुए भी कि मैं विधवा जैसी हूँ, सिर्फ मेरे प्रेम की खातिर तुम मुझसे विवाह करने को तैयार हो?”

“हाँ! मगर तुम्हे मेरे साथ चलना होगा. और तुम विधवा नहीं हो, तुमने शायद पहली बार किसी से प्रेम किया है, हम आज से किसी दुसरे शहर में अपने नए जीवन की मधुर शुरुआत करेंगे. तुम्हारे पहले पति को तो वैसे भी पत्नी की नहीं बल्कि एक सेविका की जरुरत है जिसका इंतजाम मैंने कर रखा है, ताकि तुम्हारे दिल पर बोझ न पड़े.” गाडी में सामान लादते हुए नवयुवक ने युवती के आँखों में अपनी परिपक्वता के लिए सम्मान देखना चाहा.

अच्छा मैं अभी आई- कहकर युवती घर के अन्दर गयी.

युवती की योजना से अनजान पति उसे देखते ही फुट-फुट कर रोने लगा- “कहाँ चली गयी थी मुझे छोड़कर तुम इतनी देर से? कब से गीले बिस्तर पर पड़ा हुआ मैं इंतज़ार कर रहा था!” लाचारी और निर्भरता के कारण, कुंठा और समर्पण ने उसके शर्म और गुस्से का स्थान ले लिया था. अब उसकी आँखें उस बछड़े की तरह लबालब थी जिसकी मां अभी अभी चर कर जंगल से वापस आई थी.

युवती ने तब अपने पति में एक मासूम बच्चे को देखा. उसने खुद के हृदय में ममता के समंदर को उमड़ते हुए महसूस किया. अथाह प्रेम से निकले आंसू उसके अपराधबोध को बहा ले गए थे. खून में बढ़ते ऑक्सीटोसिन ने एस्ट्रोजन को कम करना शुरू कर दिया था.

दरवाज़े पर खड़े नवयुवक ने युवती के आँखों में अपने लिए तिरस्कार और घृणा के भाव देखे.  
 

Ⓒ Govind Madhaw